इस साल मार्च-अप्रैल में हुए पांचों राज्यों के विधानसभा चुनाव ही सियासी नजरिए से अहम थे पर सारे देश को कौतुहल पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजों को लेकर सबसे ज्यादा था। सूबे की सत्तारूढ़ पार्टी तृणमूल कांगे्रस को सत्ता से बेदखल करने के लिए कोरोना संक्रमण के जोखिम के बावजूद भाजपा ने सभी तरीके आजमाए थे। तकरीबन वैसी ही जिज्ञासा सारे देश को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के संभावित नतीजों को लेकर है। देश के सबसे बड़े सूबे में सत्तारूढ़ भाजपा अपनी वापसी के लिए हर जतन कर रही है तो विपक्षी दल भी अपने हिसाब से रणनीति बनाने में जुटे हैं। उत्तर प्रदेश की अहमियत इतनी ज्यादा है कि उसके साथ ही चुनाव में जाने वाले पंजाब और उत्तराखंड के संभावित नतीजों को लेकर खुद सियासी दल भी उतने सक्रिय नहीं लगते। उत्तर प्रदेश का चुनावी नतीजा तो चाहे जो रहे पर विपक्ष की तरफ से सबसे मजबूत दावेदार के रूप में अखिलेश यादव की पार्टी सपा को ही गिना जा रहा है।
भाजपा में मोदी-शाह के दौर के उभार के बाद बसपा की ताकत लगातार घटी है। लोकसभा के 2014 के चुनाव में तो पार्टी का खाता भी नहीं खुल पाया था। मोदी की आंधी में भी समाजवादी पार्टी ने पांच सीटें जीत ली थी। विधानसभा के पिछले चुनाव में भाजपा की आंधी ने विरोधियों के पांव और बुरी तरह उखाड़ दिए थे। नतीजतन 2012 में 224 सीटें जीतकर सत्ता पाने वाली सपा 2017 में महज 47 सीटों पर सिमट गई थी। बसपा को तो 19 और कांगे्रस को अपना दल की सात सीटों पर सफलता मिल पाई थी।
बहरहाल अगले विधानसभा चुनाव को लेकर भाजपा के बाद सबसे ज्यादा आक्रामक भूमिका में सपा ही नजर आ रही है। अखिलेश यादव ने इस बार एलान कर दिया है कि वे हड़े दलों से कोई गठबंधन नहीं करेंगे। विधानसभा के पिछले चुनाव में उन्होंने 403 में से 100 सीटें गठबंधन कर कांगे्रस को दी थी। पर उसके महज 7 उम्मीदवार ही जीत पाए। लोकसभा चुनाव में उन्होंने बसपा के साथ बराबरी का गठबंधन किया था। उसका फायदा मायावती को हुआ।
बसपा का दलित वोट बैंक सपा के हिस्से वाली सीटों पर हिंदू-मुसलमान के जाल में फंसने से बच नहीं पाया। बसपा को दस सीटों पर सफलता मिली तो सपा पिछले पांच के आंकड़े से आगे नहीं बढ़ पाई। अखिलेश यादव ने आक्रामक भले न सही पर विपक्ष की सक्रिय भूमिका लगातार निभाई है। इसके उलट मायावती कोरोना काल में न केवल घर में दुबकी रही बल्कि एक बार तो उन्होंने यहां तक कह दिया कि वे भाजपा से गठबंधन करना पसंद करेंगी, सपा से कतई नहीं। अपै्रल-मई में हुए पंचायत चुनाव के नतीजों ने भी अखिलेश यादव का हौसला बढ़ाया। यह बात अलग है कि मतदाताओं ने जिन्हें सपा, कांग्रेस और बसपा के उम्मीदवार के नाते जिताया था, उन्हें प्रभावित कर जिला पंचायत अध्यक्ष परोक्ष चुनाव से भाजपा ने जीत लिए।
अखिलेश यादव इस बार छोटे दलों के साथ तालमेल की रणनीति पर काम कर रहे हैं। सपा के महासचिव राजेंद्र चौधरी के मुताबिक रालोद और महान दल से उनका गठबंधन तय है। किसानों के आंदोलन से भी सपा को सियासी लाभ की उम्मीद है। अखिलेश को अहसास है कि उत्तर प्रदेश में सिर्फ यादव और मुसलमान वोट बैंक के जरिए सत्ता हासिल नहीं की जा सकती। लिहाजा वे गैर यादव पिछड़ों और अति पिछड़ों को साथ लेने की कवायद में जुटे हैं। बसपा और कांग्रेस ही नहीं भाजपा के भी अनेक असंतुष्ट नेता ने दो महीने लगातार सपा में शामिल हुए हैं।
सबसे ज्यादा निराशा कांग्रेस और बसपा में है। अमेठी में राहुल गांधी की हार के बाद से उत्तर प्रदेश में कांगे्रस और कमजोर हुई है। बसपा ने अब मुसलमानों का मोह छोड़ 2007 की तरह ब्राह्मण मतदाताओं को लुभाने की रणनीति बनाई है। ब्राह्मण वोट बैंक के लिए सपा भी अपने ब्राह्मण नेताओं को आगे कर परशुराम सम्मेलन से लेकर जनेश्वर मिश्रा की जयंती और साइकिल यात्रा जैसे आयोजन कर चुकी है। अखिलेश यादव इस बार बसपा के प्रति भी नरमी नहीं दिखा रहे हैं। वे कई मौकों पर बसपा की यह कहकर आलोचना भी कर चुके हैं कि सत्तारूढ़ भाजपा का विरोध करने की जगह बसपा कांगे्रस और सपा को ही निशाना बना रही है। समाजवादी पार्टी इस बार अंदरूनी कलह से मुक्त होकर चुनावी जंग लड़ेगी।