मनोज कुमार मिश्र

अगर दिल्ली के नए महापौर का चुनाव न हुआ तो अदालत के हस्तक्षेप से चुनाव हो ही जाएगा। यह भी संभव है कि चार दिसंबर, 2022 को हुए दिल्ली नगर निगम के चुनाव में बहुमत से चुनाव जीतने वाली आम आदमी पार्टी (आप) का ही महापौर बन जाए और ‘आप’ के निगम पार्षदों में कोई टूट न हो। फिर भी नगर निगम की सबसे ताकतवर संस्था स्थायी समिति में उसका बहुमत कैसे होगा। सांकेतिक पद महापौर का जीत कर भी ‘आप’ क्या कर लेगी। नए संशोधन में सरकार का मतलब केंद्र यानी उपराज्यपाल किया गया है। इसीलिए मूल सवाल तो यह है कि उसके बाद क्या होगा।

‘आप’ अपने चुनावी वादों को कैसे पूरा करेगी। नगर निगम घाटे में है। निगम की आमदनी बढ़ाने के लिए किसी भी राजनीतिक दल में हिम्मत नहीं है। निगम की मुख्य आमदनी संपत्ति कर से होती है। अनधिकृत कालोनियों, दिल्ली के गांवों में संपत्ति कर लगता ही नहीं। संपत्ति कर में सालों से कोई बढ़ोतरी हुई ही नहीं। दो तिहाई दिल्ली में कोई संपत्ति कर लगता ही नहीं लेकिन निगम सभी को नागरिक सुविधाएं उपलब्ध करवाता है।

दिल्ली की साफ-सफाई के बदले दिल्ली वित्त आयोग की सिफारिश से दिल्ली सरकार पैसे देती है। वित्तीय सहायता का एक बड़ा हिस्सा केंद्र और दिल्ली सरकार से निगम के बेहतर रिश्तों से मिलता रहा है। 15 साल दिल्ली में कांग्रेस की शीला दीक्षित की अगुआई में सरकार थी। उस दौरान भी दिल्ली सरकार से निगम की लड़ाई होती थी लेकिन तब निगम के पैसे नहीं रोके जाते थे।

भाजपा के नेता नगर निगम चुनाव की हार को आसानी से स्वीकारने को तैयार नहीं है और ‘आप’ के नेता टकराव की राजनीति छोड़ने को। इसीलिए कहा जाने लगा है कि वे अपने समर्थकों का समर्थन बनाए रखने के लिए विवाद की राजनीति को ही अपनी रणनीति बनाए हुए हैं। वास्तविकता यह है कि नगर निगम के बहाने भाजपा और ‘आप’ की लड़ाई खुलकर होने लगी है। एक विवाद शांत होने ले पहले ही दूसरा शुरू हो जाता है।

पहले तो विवाद निगम पार्षदों (सदस्यों) को शपथ दिलाने के लिए उपराज्यपाल से नियुक्त पीठासीन अधिकारी की नियुत्ति पर हुआ और विवाद उग्र पहले मनोनीत सदस्यों के शपथ ग्रहण के कारण हो गया। तब तक दस मनोनीत सदस्यों में से चार ही शपथ ले पाए नगर निगम में न तो दलबदल विरोधी कानून लागू है और न ही दलों का व्हिप, इसलिए कुछ भी असंभव नहीं है।

उसके बाद दो बैठकों में हंगामा इस बात से हुआ कि पीठासीन अधिकारी ने न केवल मनोनीत सदस्यों से तीनों पदों के लिए वोट करवाने की घोषणा कर दी बल्कि तीनों चुनाव एक साथ करवाने की व्यवस्था दे दी। एक साथ चुनाव होने और मनोनीत सदस्यों के वोट देने से निगम की सबसे ताकतवर स्थायी समिति पर भाजपा ने कब्जा होता दिखने लगा है।

संसद में हुए संशोधन से तीन निगम 15 साल बाद एक हुआ और साथ ही निगम पार्षदों की संख्या 272 से कम हो कर 250 हुई। उसी संशोधन में निगम पर पूरा नियंत्रण केंद्र सरकार यानी उपराज्यपाल का कर दिया गया। सदनों में बहुत सारा काम नियमों से अधिक परंपराओं से होता है। पीठासीन अधिकारी वरिष्ठ पार्षद बनेगा यह परंपरा है। कई नाम सरकार भेजती है, उसमें तय करना उपराज्यपाल के अधिकार में है। उसी तरह मनोनीत सदस्यों को कब शपथ दिलाना है। यह पीठासीन अधिकारी तय करते हैं। ‘आप’ को डर है कि मनोनीत सदस्यों से वोट दिलाकर भाजपा अपनी रणनीति कामयाब कर लेगी।

निगम में तो मेयर केवल दिखावटी पद है। निगम में अधिकारियों से फैसलों को लागू करवाने वाली संस्था स्थायी समिति है जो निगम के आर्थिक फैसले लेने के लिए सक्षम है। उसके अध्यक्ष का चुनाव 12 जोन से आने वाले 12 सदस्य और सभी सदस्यों से चुने जाने वाले छह सदस्य करते हैं। भाजपा ने जिन दो निर्दलीय सदस्यों को अपनी पार्टी में शामिल कराया, उसमें से एक को स्थायी समिति ले सदस्य का चुनाव लड़वाना तय किया। अगर भाजपा का स्थायी समिति जीतने का लक्ष्य का पूरा हो गया तो अगली बार मेयर भी उसी का बनने लगेगा। 24 जनवरी और छह फरवरी की बैठक भी हंगामे के भेंट चढ़ गई।

इसी डर से दावा चाहे जो किया जाए, आप के महापौर का चुनाव नहीं होने दे रहे हैं। वैसे महापौर चुनाव करवाने के लिए आप दूसरी बार सुप्रीम कोर्ट गई। बड़ी समस्या यह है कि जब निगम सीधे केंद्र सरकार यानी उपराज्यपाल के अधीन है और निगम की सबसे ताकतवर संस्था स्थायी समिति पर उसका नियंत्रण हो जाएगा तो आप का महापौर क्या कर लेगा। इस तरह के हालात में तो आप के लिए यही सुविधाजनक है कि वह महापौर बनवाने के साथ-साथ हंगामा चालू रखे, भले ही इससे दिल्ली परेशान होती रहे और निगम चुनाव बेमतलब हो जाए।