नीकु यानी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जिस पर कृपा होती है वह बेहिसाब होती है। जो भा गया, उसका ग्राफ तेजी से बढ़ गया। उनके कृपापात्रों की फेहरिस्त लंबी है। अपने पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं पर ही नहीं, चहेते अफसरों, पत्रकारों व दूसरे लोगों पर भी मेहरबानी करते रहे हैं नीकु। किसी को विधान परिषद में भेज दिया तो किसी को विधानसभा टिकट देकर नेता बना दिया। किसी को मंत्री पद से नवाज दिया तो किसी को राज्यसभा का सदस्य बना दिया। कुछ नहीं तो किसी सरकारी संस्था का ही मुखिया बना डाला। विधानसभा चुनाव में मददगार रहे एक कारपोरेट मैनेजर नीकु को भा गए। चुनाव निपटा और सरकार बनी तो नीकु ने उन्हें बतौर सलाहकार मंत्री जैसी हैसियत दे डाली। पर ये महाशय भी बड़े करामाती हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं पर भी हावी होना चाहते हैं। बड़े नेता भला इसे कैसे पसंद कर सकते हैं। लेकिन नीकु के मुंह लगे सलाहकार से भिड़ भी तो नहीं सकते। कभी मौका मिल जाएगा तो नीकु से दुखड़ा रोएंगे।
पिछले दिनों एक रोचक वाकया सामने आया। जद (एकी) के वरिष्ठ नेताओं और जिलों के पदाधिकारियों की बैठक थी। इस अहम बैठक में चर्चा भी अहम हुई। सलाहकार महोदय भी आ धमके। मूकदर्शक रहना तो मिजाज नहीं उनका। लगे हर किसी को हिदायत देने। पार्टी में अरसे से अपना तन-मन-धन समर्पित करने वाले नेताओं को नागवार गुजरा। ये महाशय अभी तक तो पार्टी के सदस्य भी नहीं हैं। अव्वल तो उन्हें पार्टी की बैठक में ही नहीं आना चाहिए था। पाठकों को इन महानुभाव के बारे में जानने की जिज्ञासा हो रही होगी। ये कोई और नहीं चर्चित प्रशांत किशोर ठहरे। लोकसभा चुनाव में मोदी के मददगार थे। चुनाव प्रबंधन के कौशल में पारंगत माने जाते हैं। नारे लिखने,प्रचार की रणनीति बनाने और मुद्दे तय करने के विशेषज्ञ बन गए हैं। लेकिन वह सब तो उनका धंधा है। पार्टी की सेवा तो की नहीं। समर्पण का भाव भी नहीं है। होता तो पंजाब में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर कांग्रेसी कैप्टन अमरिंदर सिंह से अपनी सेवाओं का सौदा क्यों करते?
चाह सुर्खियों की
चिराग पासवान लोकसभा चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी के दैदीप्यमान नक्षत्र बन कर उभरे थे। लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया अपने पिता रामविलास पासवान को मोदी से हाथ मिलाने का अनमोल सुझाव दिया था। उसी की बदौलत पिता तो जीते ही, पहली बार में ही वे खुद भी सांसद बन गए। इससे पहले फिल्मी दुनिया में करिअर तलाशा था। पर लाख मशक्कत करके भी नाकामी ही हिस्से आई थी। लोकसभा चुनाव में उनकी दूरदृष्टि का लोहा उनके पिता को भी मानना पड़ा था। पिछले हफ्ते चिराग पटना आए थे। नीतीश सरकार पर जमकर बरसे। यहां तक कि बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू करने तक की मांग कर डाली। चिराग अपनी पार्टी के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष भी हैं। फिलहाल मंशा पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं का सिरमौर बनने की है। पत्रकारों से मिले तो बिहार में बढ़ रहे अपराधों पर चिंता जताई। राष्ट्रपति शासन की मांग करने से पहले भूल गए कि सूबे में जोड़-तोड़ वाली कमजोर नहीं बल्कि तीन चौथाई बहुमत पाकर सत्ता में आई मजबूत सरकार है। अपराध का नाता वैसे भी कानून व्यवस्था से होता है जो केंद्र के अधिकार क्षेत्र में है ही नहीं। नहीं है तो क्या फर्क पड़ता है। चिराग का मकसद तो यही जताना रहा होगा कि वे अपने पिता से किसी तरह भी कम नहीं हैं।
दिवास्वप्न
राजन सुशांत का नया ठिकाना आजकल आम आदमी पार्टी है। कभी हिमाचल से भाजपा टिकट पर लोकसभा के लिए चुने गए थे। पर बाद में प्रेम कुमार धूमल से ठन गई तो पार्टी से बाहर होना ही पड़ता। अब वे केजरीवाल की पार्टी के संयोजक हैं। पर पंचायत चुनाव ने उन्हें आईना दिखा दिया। समझ गए होेंगे कि इस सूबे में केजरीवाल की पार्टी की दाल गलने वाली नहीं। केजरीवाल भी लल्लू नहीं हैं। कमजोरी की पड़ताल कराई तो वजह राजन सुशांत की निष्क्रियता निकली। कोई दमदार नेता होता तो जनहित के मुद्दों को उठा कर पार्टी की जड़ें जमा सकता था। यों सुशांत जुझारू रहे हैं। पर आम आदमी पार्टी को मजबूत नहीं कर पाए। नुक्ताचीनी हुई तो इस्तीफा भेज दिया। साधारण ्रार्यकर्ता की हैसियत से पार्टी में काम करने का एलान कर दिया। फिर खुद ही खुलासा भी कर डाला कि आलाकमान ने उनका इस्तीफा ठुकरा दिया है। सो वे और सक्रिय भूमिका अदा करेंगे। हिमाचल का कामकाज केजरीवाल ने अपने साथी संजय सिंह को सौंप रखा है। अब विरोधी खेमा यह कह कर सुशांत की खिल्ली उड़ा रहा है कि इस्तीफा तो उन्होंने खुद ही वापस ले लिया। विरोधियों को क्या पता कि भाजपा में तो उनके दरवाजे पहले से ही बंद हैं। सांसद और मंत्री रहते गिरगिट की तरह रंग बदलते थे। रही आम आदमी पार्टी की बात तो उसका नेटवर्क दूसरे दलों के बागियों के सहारे ही तो खड़ा हुआ है। यह बात अलग है कि हिमाचल की सियासत दो दलों तक ही सीमित है। आम आदमी पार्टी की तरह ही कभी लोक जनशक्ति पार्टी ने भी कोशिश की थी यहां पांव जमाने की। विजय सिंह मनकोटिया को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार भी बना आए थे रामविलास पासवान। यह बात अलग है कि चुनाव में उनका कोई उम्मीदवार अपनी जमानत तक नहीं बचा पाया था।
भूख वोट की
पश्चिम बंगाल की सियासत भी अल्पसंख्यक वोटों की धुरी पर टिक गई है। अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर ममता बनर्जी को भी अल्पसंख्यक वोट बैंक की दरकार है। कांग्रेस और वाम मोर्चा मिले तो ममता का यह वोट बैंक पूरी तरह भी नहीं खिसका तो बिखर जरूर सकता है। सो, कोशिश उन्होंने भी शुरू कर दी है। जमात-ए-उलेमा-ए-हिंद के मुखिया सिद्दीकुल्ला चौधरी के साथ तालमेल तकरीबन तय है। दोनों के बीच शुरुआती बातचीत भी हो चुकी है। यों जमात-ए-उलेमा एक सामाजिक संगठन ठहरा। पर उसका सियासी संगठन भी है। अखिल भारतीय यूडीएफ के नाम से। ममता और सिद्दीकुल्ला के बीच हुई मंत्रणा के वक्त शहरी विकास मंत्री फिरहाद हकीम और शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी भी मौजूद थे।
दरअसल पश्चिम बंगाल में मुसलमान मतदाता तकरीबन 29 फीसद हैं। इतना ही नहीं सूबे की 294 में से करीब 140 सीटों पर उनकी भूमिका निर्णायक है। 23 में से पांच जिलों में तो अल्पसंख्यकों का ही बोलबाला है। ये हैं- उत्तर दिनाजपुर, दक्षिण दिनाजपुर, मालदा, मुर्शिदाबाद व बीरभूम। वैसे आबादी उनकी नदिया, उत्तर-24 परगना और दक्षिण-24 परगना में भी कम नहीं है। मुसलमानों के प्रति एकजुटता दिखाने के मकसद से ही तो ममता ने सिद्दीकुल्ला की एक रैली में पिछले साल नवंबर में शिरकत की थी। ममता को एक तरफ तो भाजपा के बढ़ते असर से निपटना है तो दूसरी तरफ कांग्रेस और वाम मोर्चे के बीच तालमेल में रोड़े अटकाना है। तालमेल हुआ तो ममता को पसीने आ सकते हैं सरकार की वापसी में।
शर्म न हया
सत्ता के केंद्र में बने रहना किसी तीसमार खां के लिए भी हंसी खेल नहीं होता। न जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं। अपना पत्ता कटता दिखे तो मजबूरी में ही सही पत्नी का सहारा भी काम आता है। टिकट पत्नी को मिल जाए और वह जीत भी जाए तो कोई घाटा नहीं होता। कुर्सी पर हक तो परोक्ष रूप से पति का ही रहता है। सांसद-विधायक प्रतिनिधि कोई और हो सकता है तो पति क्यों नहीं? शहरी निकायों और पंचायती संस्थाओं में कुर्सी पर अगर महिला काबिज हो तो भी पति या दूसरे करीबी परिवार जन अपना राज चलाते ही हैं। हल्का-फुल्का विरोध भी होता रहा है ऐसी बेजा दखलंदाजी का। पर जहां चाह, वहां राह। मध्यप्रदेश में तो ऐसे निकायों में पति किसी विधायक या सांसद के प्रतिनिधि की हैसियत से सीना तान कर बैठकों में शिरकत कर रहे हैं। अध्यक्षता बेशक पत्नी कर रही हो पर वह रहती मौन ही है। पति अपना फरमान अध्यक्ष की हैसियत से ही चलाते हैं। सीहोर नगर पालिका में तो कमाल हो गया। अमिता अरोड़ा ने 17 जनवरी को ली थी चेयरमैन के नाते शपथ। पति जसपाल अरोड़ा को चलानी थी सल्तनत। दो दिन के भीतर ही भोपाल के सांसद के नुमाइंदे बन पिछले रास्ते से सत्ता हथियाने का उपाय खोज लिया। 24 जनवरी को नगरपालिका परिषद की पहली ही बैठक में जसपाल ने पत्नी के सारे अधिकारों का उसकी मौजूदगी में ही खुद इस्तेमाल कर दिखाया।
हरदा नगर पालिका अध्यक्ष साधना जैन का कामकाज अरोड़ा की तरह ही उनके पति सुरेंद्र जैन, राजगढ़ नगर पालिका में मंगला गुप्ता के पति शैलेश गुप्ता, इटारसी में सुधा अग्रवाल के भतीजे कल्पेश अग्रवाल मूंछ पर ताव देकर सांसद प्रतिनिधि की हैसियत से देख रहे हैं। रायसेन जिला पंचायत अध्यक्ष हैं- अनिता किरार। पर काम तो सारा उनके पति जयप्र्रकाश सांसद प्रतिनिधि बन देख रहे हैं। इस मामले में दलगत राजनीति आड़े नहीं आ रही। सत्ता की छीना-झपटी में न भाजपाई पीछे हैं और न कांग्रेसियों को कोई गैरत है। मसलन, सारंगपुर में रूपल सादानी की जगह नगरपालिका को चलाने का अधिकार दिग्विजय सिंह ने अपना प्रतिनिधि बना रूपल देवर प्रदीप सादानी को दिला दिया। सूची लंबी है और कांग्रेसी दिग्गज ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी अपने एक चेले को यही रास्ता अपनाने में मदद की है। यों बड़े नेताओं में शायद ही कोई इस प्रवृत्ति की खुली हिमायत करे। मध्यप्रदेश के भाजपा सूबेदर नंदकुमार सिंह ने भी कहा कि वे अपने सांसदों और विधायकों से अपील करेंगे कि स्थानीय निकायों में निर्वाचित महिलाओं के सगे-संबंधियों को अपना प्रतिनिधि कतई न बनाएं। ऐसे प्रतिनिधियों से तो खैर निर्वाचित महिलाओं के अधिकार हथियाने के फेर में बैठकों में नहीं जाने का आग्रह करेंगे ही।
अंधेर नगरी चौपट वजीर
राजस्थान विधानसभा का बजट सत्र नजदीक है। इस सत्र में वसुंधरा के मंत्रियों को अपनी काबलियत दिखानी होगी। पिछले सत्रों में सदन में हकलाते दिखे थे ज्यादातर मंत्री। सरकार की खासी जगहंसाई हुई थी। इस बार वसुंधरा चौकस हैं। तमाम मंत्रियों को पहले ही हिदायत दे डाली है कि वे अपने जवाबों और कार्यशैली से विधायकों को संतुष्ट करें। चूंकि विपक्ष कमजोर है और दो सौ के सदन में 160 तो भाजपाई सदस्य ठहरे। लिहाजा ज्यादातर मौकों पर सत्तारूढ़ दल के विधायक ही अपने मंत्रियों के गले की फांस बन जाते हैं। चूंकि मुख्यमंत्री ने सत्र के बाद मंत्रिमंडल के विस्तार के संकेत दिए हैं सो, मंत्री बनने के इच्छुक विधायक सदन में अपना कौशल जरूर दिखाएंगे। मंत्रियों की कमजोरी उजागर होगी। इसी से होश फाख्ता हैं ज्यादातर मंत्रियों के। बजट सत्र पूर्व की बैठकों में भी व्यापारियों, मजदूरों और महिला संगठनों के नुमाइंदों की मौजूदगी में वसुंधरा ने अपने मंत्रियों और अफसरों की खासी खिंचाई की। शिक्षा, चिकित्सा, श्रम और पानी-बिजली जैसे मंत्रालयों से हर किसी का वास्ता पड़ता है। सो, ज्यादातर मुद्दे इन्हीं विभागों को लेकर उठते हैं सदन में। ऐसे में इन महकमों के मंत्री ज्यादा घबराए हैं। जमीनी हकीकत सरकार के दावों की कलई खोलती है। अस्पतालों में डाक्टर नहीं हैं तो स्कूलों से शिक्षक नदारद हैं। राजेंद्र राठौड़ और वासुदेव देवनानी की विभागों पर पकड़ ढीली देख इन विभागों के अफसर सीधे मुख्यमंत्री कार्यालय से निर्देश ले रहे हैं। गनीमत है कि सदन में विपक्ष बेहद कमजोर है अन्यथा चक्रव्यूह से निकलना मुश्किल होता वसुंधरा के ज्यादातर मंत्रियों का। मंत्रियों को तो पार्टी के मुखिया अमित शाह भी जयपुर आकर खूब हड़का गए थे। चेताया था कि अपने ही विधायकों की अनदेखी करना बंद नहीं किया तो अंजाम खतरनाक हो सकता है।
भूतो न भविष्यति
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 18 फरवरी को मध्यप्रदेश के सीहोर जिले के शेरपुरा गांव में एक जनसभा को संबोधित करेंगे। आयोजक हैं सूबे के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान। एजंडा है सूबे के किसानों की तरफ से प्रधानमंत्री का आभार जताना। पाठकों को जिज्ञासा हो सकती है कि ऐसा क्या किया है मोदी ने कि उनका आभार चौहान जनसभा में जताएंगे। दरअसल किसानों के लिए मोदी ने बेहतर फसल बीमा योजना लागू की है। सो, किसान महासम्मेलन कर चौहान साबित करना चाहते हैं कि मोदी किसानों के हितैषी हैं। सत्ता और संगठन दोनों ही जुटे हैं एक पखवाड़े से इस महासम्मेलन की तैयारी में। शेरपुरा गांव भोपाल से सीहोर जाने वाले बाईपास पर है। 23 एकड़ जमीन ली गई है सभा की खातिर। ग्यारह लाख वर्गफुट का तो पंडाल बनेगा। इतना बड़ा पंडाल अतीत में कभी किसी सभा के लिए दुनिया में कहीं नहीं बनने का दावा कर रहे हैं भाजपाई। पांच किलोमीटर के इलाके को सुरक्षाकर्मियों ने अभी से घेर लिया है। चौहान का इरादा कम से कम पांच लाख किसानों को जुटाने का है। खर्च कौन उठाएगा, तस्वीर साफ नहीं। पार्टी या सरकार। जाहिर है कि मध्यप्रदेश भाजपा के पास तो इतने संसाधन हो नहीं सकते। जबकि प्रधानमंत्री दफ्तर की मंशा यही बताई गई है कि सरकारी खर्च नहीं होना चाहिए। आखिर में चौहान ने खुद प्रधानमंत्री से बात कर सफाई दी कि बंदोबस्त तो सरकार ही करेगी। पर खर्च किसानों के विकास वाले मद से रत्तीभर नहीं होगा।
सियासी शतरंज
हरीश रावत ने उत्तराखंड की राजनीति में जड़ें कुछ ज्यादा ही गहरी कर ली हैं अपनी। तभी तो दस जनपथ से संवाद कम ही हो रहा है। मोतीलाल वोरा ने पिछले दिनों पार्टी फंड में पैसे की तंगी का कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों से रोना रोया था। पार्टी के खजांची हैं तो पैसे की व्यवस्था के लिए चिंतित होना स्वाभाविक ठहरा। ऐसे में जगजाहिर है कि सत्ता की बदौलत चंदा आसानी से मिल जाता है। पर हरीश रावत इस कसौटी पर खरे नहीं उतर रहे। दूसरी तरफ भाजपा के नेताओं से उनके करीबी रिश्तों की खबरों ने भी उनके विरोधी विजय बहुगुणा खेमे को सोनिया और राहुल के कान भरने का मौका दिया है। पर उमा भारती की नमामि गंगे बैठक में शामिल होने और गृहमंत्री राजनाथ सिंह से सरकारी काम के बहाने शिष्टाचार बैठक बेखौफ करने वाले हरीश रावत आलाकमान की परवाह कर ही नहीं रहे। उत्तराखंड में भाजपा नेता बेशक हरीश रावत और उनकी सरकार की आए दिन किसी न किसी मुद्दे पर लानत-मलानत करते हैं पर केंद्र का कोई भाजपा नेता उनकी आलोचना नहीं कर रहा। उलटे केदारनाथ जाकर उमा भारती ने हरीश रावत की तारीफ भी कर दी। हरीश रावत को काबू में करने के लिए कुछ नहीं सूझा तो आला कमान ने एक समन्वय समिति बना दी। रावत के अलावा इंदिरा हृदेश, सरिता आर्य, प्रीतम सिंह, विजय बहुगुणा, अंबिका सोनी और संजय कपूर भी हैं इसमें। पर सियासी दाव-पेंच में इतने पारंगत हो चुके हैं हरीश रावत कि उनसे छेड़खानी करने का जोखिम शायद ही मोल ले उनका आलाकमान।
काम से काम
नेता भले न रहे हों पर समझदारी के मामले में नेताओं को भी पछाड़ दिया है केके पाल ने। उत्तराखंड के राज्यपाल हैं दिल्ली के रिटायर्ड पुलिस कमिश्नर केके पाल। राज्यपाल तो उन्हें यूपीए सरकार ने उत्तर-पूर्व में बनाया था। पर उत्तराखंड में तबादला राजग सरकार ने किया अजीज कुरेशी को हटा कर। कुरेशी के जमाने में राजभवन में नेताओं का जमघट आम बात थी। महामहिम का अपना कुनबा ही कौन सा कम था। पर पाल तो यहां अकेले ही रहते हैं। पुलिस महकमे में थे तो असर राजभवन पर भी दिखा है। समय की पाबंदी और अनुशासन से बंधा है राजभवन का हर कारिंदा। राज्यपाल के नाते कभी कोई विवादित बयान भी नहीं दिया। अलबत्ता आज कल सूबे के बदहाल विश्वविद्यालयों की तस्वीर सुधारने में लगे हैं। किसी से न ज्यादा आत्मीयता दिखाते हैं और न वैर भाव। तभी तो रामदेव के बुलावे पर उनके पतंजलि योग पीठ में हुए कार्यक्रम में भी पहुंच गए। पत्रकारों से आमतौर पर दूरी ही बनाई। हां, साल पूरा हुआ तो सबको चाय पर बुला उनके साथ फोटो खिंचाने से कतई गुरेज नहीं किया।