यह इतिहास की एक सच्चाई है कि देश की आजादी के बाद सरदार पटेल ने अलग-अलग सूबों को जोड़ने के लिए अथक प्रयास किए। उनके इस पहल से ही आज कश्मीर से कन्याकुमारी और अरुणाचल प्रदेश से कच्छ तक एक अखंड भारत कायम है। उन्होंने जब यह काम शुरू किया था, शायद सबको इसका भरोसा भी नहीं रहा होगा कि अलग-अलग सूबेदारों को एक साथ जोड़ने में इतनी सफलता मिल सकेगी, लेकिन उनकी दूरदर्शिता और व्यावहारिक सोच की वजह से यह सच हो सका। हालांकि तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था में ऐसा माहौल था, जिनमें कई लोग उनके साथ नहीं थे, या जो थे भी वे मन से नहीं थे। अगर ऐसा न होता तो कश्मीर की समस्या भी नहीं रही होती।

इस विषय पर विस्तार से रोशनी डालती पीएन चोपड़ा एवं प्रभा चोपड़ा की किताब ‘सरदार पटेल कश्मीर एवं हैदराबाद’ के मुताबिक पंडित नेहरू को लेकर सरदार पटेल ने कहा था, “यदि उन्होंने कश्मीर को मेरे गृह मंत्रालय से अलग न किया होता तो जूनागढ़ और हैदराबाद की तरह इसका भी समाधान हो चुका होता।” तब कश्मीर बिना किसी विवाद के पूरी तरह से भारत का हिस्सा होता। सरदार पटेल के कुछ पत्रों से भी यह साफ पता चलता है कि नेहरू ने उनकी ओर से चीन के संबंध में दी गई चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया।

हालांकि नेहरू यह मानते थे कि सरदार पटेल की बौद्धिक और व्यावहारिक दृष्टि उनसे कहीं बेहतर है। इसीलिए वह उनका काफी सम्मान भी करते थे, लेकिन वैचारिक मतभेद होने पर वह अपनी बात के आगे किसी की नहीं सुनते थे। यही वजह है कि कश्मीर मसले पर वह गोपालस्वामी आयंगर को कश्मीर, पाकिस्तान और विदेश मामलों में खुद के साथ जोड़ा और उनकी मदद ली। गोपालस्वामी के बाद मौलाना आजाद और उनके बाद गोविंद बल्लभ पंत को अपने साथ जोड़ा। ये लोग नेहरू के साथ वैचारिक साम्यता रखते थे।

दूसरे नेता थे जम्मू-कश्मीर के शेख अब्दुल्ला, जिनके भरोसे पर सरदार पटेल को शुरू से आशंका थी। नेहरू शेख अब्दुल्ला के बजाए कश्मीर मसले पर अगर सरदार पटेल पर भरोसा जताते तो आज पूरा कश्मीर (पाकिस्तान कब्जे वाला हिस्सा समेत) भारत में होता और इसको लेकर किसी तरह का विवाद भी नहीं होता।

अब्दुल्ला चाहते थे कि कश्मीर एक स्वतंत्र देश बने, जिसका न भारत से संबंध हो और न ही पाकिस्तान से, लेकिन दोनों ही देश उसको आर्थिक सहायता दें तथा भारत, पाकिस्तान के साथ-साथ ब्रिटेन, अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र संघ उसको मान्यता दे।

सरदार पटेल के विश्वासपात्र मेहरचंद महाजन ने इसका उल्लेख करते हुए लिखा था कि “सरदार पटेल की व्यावहारिक बुद्धि तथा त्वरित निर्दोषपूर्ण निर्णयों ने ही कश्मीर को अब्दुल्ला के बदले भावों से बचाया और इसलिए मैं उन्हें कश्मीर बचाने वाला दूसरा व्यक्ति मानता हूं।” सरदार पटेल की ईमानदारी और दृढ़ता इस बात में झलकती है कि वे गलत को अस्वीकारने में पल भर की देरी नहीं करते थे।

जुलाई 1948 में ब्रिटिश पत्रकारों के रवैए पर उन्होंने कहा, “दुर्भाग्य से मेरा यह मानना है कि आम अंग्रेज स्वभाव से ही हमारे विपरीत रहा है। कुछ सम्माननीय विशेष लोग अवश्य हैं, पर बहुत कम। मैंने स्वयं अनुभव किया है कि हमें संयुक्त राष्ट्र संघ में नहीं जाना चाहिए था, और यदि हमने समय पर कार्य किया होता तो जब हम संयुक्त राष्ट्र संघ में गए थे तो अधिक शीघ्रता से तथा सफलतापूर्वक अपने हित में उसे सुलझा सकते थे, जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ ने न केवल समस्या को अधिक समय के लिए उलझाए रखा, अपितु हमारी जो मुख्य बातें थीं, उन्हें शक्ति की राजनीति में भुला दिया। मैं यह कहना चाहूंगा कि मैं आपके शिष्टमंडल की विचार भावना से अत्यंत हताश हुआ हूं। लार्ड माउंटबेटन ने अपनी ओर से भरसक सहायता की; किन्तु हम मानते हैं कि नोएल बेकर की धारणा से न्याय का पलड़ा हमारे विरुद्ध गया। अन्यथा मैं सोचता हूं, यूएसए तथा अन्य दूसरे देश हमारे विरुद्ध न होते।”

लार्ड माउंटबेटन भारत में गवर्नर जनरल थे, लेकिन उनका भी रवैया भारत के प्रति अच्छा नहीं था। जब पाकिस्तानी सेना ने भारत पर अचानक हमला कर दिया तो माउंटबेटन ने भारत सरकार को उस गलियारे पर बम फेंकने से मना कर दिया, जहां पाकिस्तानी सैनिक अपना अड्डा बना लिए थे। माउंटबेटन ने अंत तक भारत पर दबाव बनाए रखा कि भारत पाकिस्तानी सैनिकों पर हमले न करें। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रति भी सहनशीलता बरतने की राय देता रहा।

संभवत: माउंटबेटन के इन दबावों के कारण ही पं. नेहरू ने सरदार पटेल की उस चेतावनी की अनदेखी और अवहेलना की, जिसमें कहा गया था कि 13 अगस्त 1948 के संयुक्त राष्ट्र के भारत-पाकिस्तान आयोग के घोषणा पत्र को ही अंतिम माना जाना चाहिए और जब तक पाकिस्तान उस घोषणा पत्र को स्वीकार नहीं करता है, आगे किसी प्रकार की वार्ता न की जाए। इस सुझाव को अगर भारत मान लेता तो पाकिस्तानी सेना को राज्य से बाहर खदेड़ा जा सकता था और फिर समस्या ही खत्म हो जाती।

पाकिस्तान से पहला युद्ध लड़ने वाले और कश्मीर में तत्कालीन जनरल ऑफिसर कमांडिंग मेजर जनरल थिमय्या भी इस बात को मानते थे। युद्ध बंद करने के नेहरू के निर्देश पर उन्होंने असंतोष जताते हुए कहा था कि उन्हें उस समय युद्ध बंद करने के लिए कहा गया, जबकि भारतीय सेना पूरे कश्मीर को आक्रमणकारियों से खाली कराने ही वाली थी

कुछ समय पहले इसका उल्लेख पीएम नरेंद्र मोदी ने भी किया था। 2018 में कर्नाटक में एक जनसभा में उन्होंने कहा कि 1948 में भारत ने जनरल थिमय्या के नेतृत्व में कश्मीर युद्ध जीता था, पर वे जवाहरलाल नेहरू और रक्षा मंत्री वीके मेनन के हाथों बार-बार अपमानित किए गए और इस वजह से उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया।