भारतीय पैनोरामा की तमिल फिल्म विसारनई (इनवेस्टीगेशन) एकेडमी अवार्ड आॅस्कर के लिए विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म की श्रेणी मे भारत की आधिकारिक प्रविष्टि है। इसके निर्देशक वेत्रिमारन है जो 2011 में अपनी फिल्म आदुकलम के लिए छह राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके हैं। यह फिल्म आॅटो रिक्शाचालक एम चंद्रकुमार के उपन्यास लॉकअप पर आधारित है, जो पुलिस हिरासत मे मारे गए निरपराध लोगों की सच्ची कथाओं का दस्तावेज माना जाता है। वेत्रिमारन इस फिल्म के लिए भी बेस्ट तमिल फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके हैं। भारतीय सिनेमा के इतिहास में पुलिस-माफिया-राजनेता गठजोड़ पर तो हजारों फिल्में बनी हैं, पर विसारनई में जिस साहस के साथ पुलिस थाने में होने वाले निरपराध लोगों के खून जमा देने वाले उत्पीड़न का जैसा यथाथर्वादी चित्रण हुआ है, वह दुर्लभ है। यहां राजनीति परदे के पीछे है जिससे मूल विषय भटकता नहीं है। बिना किसी मेलोड्रामा के पूरी फिल्म भारतीय थानों में चलने वाले भ्रष्टाचार, गुंडागर्दी, साजिश, दमन और यातना सहते निर्दोष लोगों के हाहाकार, निचली अदालतों की हास्यास्पद लाचारी और खाकी वर्दी मे जारी अपराध को अविस्मरणीय तरीके से दिखाती है।
तमिलनाडु से काम की तलाश मे कुछ मजदूर पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश के शहर गूंटूर आकर छोटे-मोटे काम कर जैसे-तैसे जी रहे हैं। शहर के एक ताकतवर अमीर के घर डकैती हो जाती है। पुलिस पर दबाव है कि जल्दी अपराधियों को पकड़े। पुलिस जब असली अपराधियों को नहीं पकड़ पाती तो इन प्रवासी मजदूरों को पकड़ लाती है। थाने में उन्हें असहनीय यातनाएं दी जाती हैं जिससे वे कबूल कर लें कि डकैती उन लोंगो ने ही डाली है। पुलिस की लाख यातना के बाद भी वे झूठा आरोप अपने सिर लेने को राजी नहीं है। अपने मालिक के वकील की सलाह पर वे यातना से बचने के लिए पुलिस की बात मान जाते है, पर निचली अदालत में जज के सामने रो-रोकर सच्चाई बयान करते हंै। अब मुश्किल यह है कि जज को तमिल नहीं आती। एक दूसरे बंदी केके की पुलिस रिमांड के सिलसिले में चेन्नै से गूंटूर कोर्ट आए तमिलनाडु के पुलिस डीसीपी उन बेबस मजदूरों के बयान का अंग्रेजी अनुवाद करते हंै। केके भी रसूखवाला है पर सत्ता समीकरण बदलते ही पुलिस को उसे सबक सिखाने का आॅर्डर मिला है। मजदूर रिहा होने के बाद डीसीपी के साथ चेन्नै आ जाते हैं क्योंकि केके को काबू में करने के लिए डीसीपी को उनकी मदद चाहिए। अब चेन्नै के थाने में पुलिस यातना न सह सकने पर केके मर जाता है। मजदूरों को थाने की साफ-सफाई के काम पर रखा जाता है। अब केके की मौत को लूट और हत्या साबित करने के लिए मजदूरों का पुलिस एनकाउंटर जरूरी है, जिससे उसकी करोड़ों का काला धन आपस में बांटा जा सके और उसकी मौत की जिम्मेदारी मजदूरों पर डाली जा सके। पांच में से एक मजदूर भागकर जान बचाने मे सफल होता है। एक गूंटूर में ही मर चुका है। तीन को पुलिस नकली मुठभेड़ मे मारती है। विरोध करने का शक होने पर मजदूरों के साथ डीसीपी को भी मार दिया जाता है।
यह कितना हृदयविदारक है कि भारतीय पुलिस इतनी क्रूरता और भ्रष्टाचार में जकड़ चुकी है कि असहमत होने पर अपने ही काबिल अफसरों को नकली मुठभेड़ में साजिशन मार देती है। वेत्रिमारन ने जान-बूझकर किसी सुपर स्टार को नहीं लिया है जिससे मूल विषय की तीव्रता बची रहे। कई दृश्यों की मार्मिकता खून जमा देती है। पुलिस की गिरफ्त में हर पल मार दिए जाने के डर के साए में मजदूरों का लाचार चेहरा उस हर आम आदमी का चेहरा है, जिसकी फरियाद कहीं नहीं पहुंच पा रही है। यह कड़वी सच्चाई है कि आजादी के बाद जितने नागरिक अपराधियों की गोली से नहीं मरे उससे अधिक पुलिस की गोली से मारे गए। फिल्म के मुख्य चरित्र पंडी की निरीह आंखोंं मे वही दहशत है जो मरने के पहले हिल्सा मछली की आंखों मे हम देखते हैं। एक पिता के सामने 15 साल के बच्चे को थाने में गोली मारी जाती है और वह उसे बचा नहीं पाता। वह बच्चा गलती से पुलिस के हत्थे चढ़ा था। उसका पिता गिड़गिड़ाता रह जाता है कि बच्चा जिंदा है, अस्पताल ले चलिए पर कोई नहीं सुनता।
एम चंद्रकुमार उन पांच मजदूरों में से एक है जो अपनी जान बचाने मे सफल रहे। उन्होंने आॅटोरिक्शा चलाकर जिंदगी गुजारी और उस घटना का सच्चा विवरण अपने उपन्यास लॉक-अप में लिखा जो अब बेस्ट सेलर किताब है। विसारनई उसका न्यायसंगत सिनेमाई संस्करण है। एम चंद्रकुमार ने उन निरपराध लोगों को न्याय दिलाने का अभियान चलाया है जिसे दुनियाभर से समर्थन मिल रहा है। विसारनई केवल तमिलनाडु या आंध्र प्रदेश के पुलिस थानों का यथार्थ नहीं है, यह पूरी तीसरी दुनिया की सचाई है। अगर यह फिल्म हिंदी मे बनी होती तो अब तक हंगामा मच चुका होता। तमिल में बनने के कारण इसकी धमक शायद दिल्ली तक नहीं पहुंच पाई है। संदेह है कि हिंदी में यह फिल्म बन सकती है।