बिहार विधानसभा चुनाव अब कुछ ही महीनों की दूरी पर हैं और राजनीतिक सरगर्मी तेज हो चुकी है। राज्य की सत्ता की राह हमेशा से मिथिलांचल और सीमांचल होकर गुजरती रही है। यही वजह है कि हर चुनाव में यह इलाका खास अहमियत रखता है। सवाल है—क्या इस बार भी मिथिला की चाबी से पटना की सत्ता का ताला खुलेगा?
विधानसभा की 50 से अधिक सीटों पर सीधा असर
दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, सीतामढ़ी, सुपौल, अररिया, किशनगंज, कटिहार, बेगुसराय, सहरसा, मुजफ्फरपुर और पूर्णिया जैसे जिलों को जोड़ें तो विधानसभा की 50 से अधिक सीटों पर सीधा असर मिथिला-सीमांचल का है। दरभंगा और मधुबनी में 10-10, समस्तीपुर में 10 और सीतामढ़ी में 8 सीटें हैं। इन जिलों का रुझान अक्सर पटना की गद्दी तय करता है। 2020 के नतीजों ने यह और साफ कर दिया—दरभंगा और मधुबनी की आधी से ज्यादा सीटें बीजेपी ने जीत लीं, समस्तीपुर में राजद-कांग्रेस का पलड़ा भारी रहा, जबकि सीमांचल में एआईएमआईएम की अप्रत्याशित एंट्री ने तस्वीर बदल दी थी।
किसानों को बेहतर मार्केट, प्रोसेसिंग और दाम दिलाना मकसद
मिथिला की पहचान सिर्फ संस्कृति या भाषा तक सीमित नहीं है, यहां की अर्थव्यवस्था का बड़ा सहारा है—मखाना। दरभंगा, मधुबनी और सीतामढ़ी के हजारों किसान इसी पर निर्भर हैं। सहरसा और पूर्णिया में आधुनिक तकनीक से बड़े पैमाने पर उत्पादन हो रहा है। हाल ही में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर मखाना बोर्ड बनाने की घोषणा की है, जिसका मकसद किसानों को बेहतर मार्केट, प्रोसेसिंग और दाम दिलाना है। चुनावी मंचों पर मखाना किसानों की समस्याएं और उनका भविष्य बड़ा मुद्दा बनने जा रहा है।
अयोध्या की तरह सीताजन्मस्थली बनी सियासत का बड़ा मुद्दा
इस बार चुनाव में सांस्कृतिक पहचान भी बड़े पैमाने पर गूंजेगी। सीतामढ़ी का पुनौरा धाम—जहां माता सीता की जन्मस्थली मानी जाती है—अब सियासत का केंद्र बन गया है। 8 अगस्त 2025 को यहां जानकी मंदिर कॉरिडोर परियोजना का शिलान्यास किया गया। राज्य कैबिनेट ने इसके लिए लगभग 883 करोड़ रुपये मंजूर किए हैं। इसमें 137 करोड़ मंदिर-संवर्धन, 728 करोड़ पर्यटन ढांचे और शेष भूमि-रखरखाव पर खर्च होंगे। डिज़ाइन वही टीम तैयार कर रही है जिसने अयोध्या का राम मंदिर बनाया।
इस परियोजना को लेकर सरकार ने ‘मिथिला की धार्मिक अस्मिता’ को साधने की कोशिश की है। भूमि-पूजन में संत-महात्माओं और श्रद्धालुओं की भारी मौजूदगी ने इसे जन-आंदोलन का रूप दिया। साथ ही, सीतामढ़ी-दिल्ली अमृत भारत एक्सप्रेस ट्रेन का शुभारंभ कर केंद्र और राज्य सरकार ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि मिथिला अब ‘कनेक्टिविटी’ और ‘पर्यटन विकास’ से भी जुड़ने जा रहा है।
राहुल गांधी और तेजस्वी यादव के नेतृत्व में विपक्ष की रणनीति
लेकिन विपक्ष भी हाथ पर हाथ धरकर बैठा नहीं है। कांग्रेस और वामपंथी दलों ने लंबे समय से चल रही ‘मिथिला राज्य’ की मांग को हवा देना शुरू किया है। दरभंगा और मधुबनी में हुई महापंचायतों ने इसे ताकत दी। कांग्रेस ने ‘वोट अधिकार यात्रा’ निकालकर लोगों को जोड़ने की कोशिश की है, जबकि राजद बेरोजगारी और महंगाई के सवाल पर सरकार को घेर रहा है। विपक्ष का तर्क है कि धार्मिक प्रतीकों के नाम पर राजनीति करने के बजाय रोजगार, उद्योग और शिक्षा पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
28 अगस्त को राहुल गांधी और तेजस्वी यादव सीतामढ़ी पहुंचे और जानकी मंदिर में पूजा-अर्चना की। भले ही वे पुनौरा धाम तक नहीं गए, लेकिन संदेश साफ था—धर्म पर भी उनकी दावेदारी है और विकास पर भी।
सीमांचल में एआईएमआईएम के ऐलान से आया दिलचस्प मोड़
चुनावी तस्वीर में सबसे दिलचस्प मोड़ एआईएमआईएम के ऐलान से आया है। पार्टी ने मिथिला और सीमांचल की लगभग 50 सीटों पर उम्मीदवार उतारने की बात कही है। अररिया, किशनगंज, कटिहार और पूर्णिया जैसे जिलों में मुस्लिम आबादी का प्रतिशत ज्यादा है। यहां एआईएमआईएम की सक्रियता महागठबंधन और एनडीए दोनों के लिए चुनौती है, क्योंकि कई जगह यह वोट कटवा की भूमिका निभा सकती है।
मिथिला की जनता अब सिर्फ भावनात्मक नारों से संतुष्ट नहीं है। यहां पहचान और संस्कृति के साथ-साथ रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा पर गंभीर बहस हो रही है। मखाना किसानों को सही दाम, युवाओं को रोजगार, पर्यटन से आय और बेहतर बुनियादी ढांचे की मांग हर तरफ सुनाई दे रही है। यही कारण है कि इस बार का वोटर सिर्फ जातीय समीकरण या धार्मिक प्रतीकों पर नहीं, बल्कि ठोस काम और नतीजे देखकर ही फैसला करेगा।
इतिहास गवाह है कि मिथिला-सीमांचल का रुख जिस ओर झुकता है, सत्ता की चाबी उसी के पास जाती है। 2020 में भी इस इलाके ने नतीजों की दिशा मोड़ी थी। अब जब मखाना, मंदिर और रोजगार जैसे बड़े मुद्दे चर्चा के केंद्र में हैं, तो यह कहना गलत नहीं होगा कि इस बार भी पटना की सत्ता का ताला मिथिला की चाबी से ही खुलेगा।