नीकु मौके पर चूकते नहीं। किसे करीब लाना है और किससे दूरी बनानी है, ताड़ कर ही अपनी रणनीति बनाते हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की जीत पर न केवल उन्हें बधाई दी, खुशी भी जताई और यह एलान कर दिया कि वे ममता के शपथ ग्रहण समारोह में जरूर जाएंगे। ममता की तारीफ में कसीदे भी कम नहीं पढ़े। प्रमाण पत्र भी दे दिया कि ममता ने अपने सूबे में अच्छा काम किया है। इसीलिए उन्हें अपार जनादेश मिला। पिछले साल जब नीकु ने खुद मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी तो ममता को खासतौर पर न्योता दिया था। ममता ने उनके शपथ समारोह में शिरकत की भी थीं। पर नीकु ने बदले में गजब की सदाशयता दिखाई है। ममता के न्योते का इंतजार तक नहीं किया। अपने आप एलान कर दिया कि वे कोलकाता जाएंगे। जाहिर है कि अब तो ममता को न्योता भेजना ही पड़ेगा। ममता की जीत पर नीकु यहां तक कह गए कि बिहार और पश्चिम बंगाल में काफी हद तक समानता है। बिहार में नीकु को राजद और कांग्रेस के साथ तालमेल करके भाजपा से भिड़ना पड़ा था। तभी से वे भाजपा विरोधियों की एकता पर जोर दे रहे हैं। ममता को चुनाव जीतने के लिए किसी से तालमेल की जरूरत नहीं पड़ी। अलबत्ता उनके विरोध में दो धुर विरोधियों वाम मोर्चे और कांग्रेस का आपस में हाथ मिलाना ममता का कुछ नहीं बिगाड़ पाया। उलटे इन दोनों पार्टियों को ही घाटा हुआ। किसी जमाने में ममता भाजपा के साथ थीं। लेकिन बाद में अपनी अलग राह पकड़ ली। नीकु भी अरसे तक भाजपा के सहयोगी थे। बिहार का मुख्यमंत्री बनने से पहले केंद्र की वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे। भाजपा से अलग हुए तो लोकसभा चुनाव में मुंह की खानी पड़ी। पर विधानसभा चुनाव में लालू और सोनिया साथ आ गए। मिल कर सबने भाजपा को सबक सिखा दिया। नीकु बड़े दूरदर्शी हैं। वे समझ रहे हैं कि भविष्य में उन्हें ममता के समर्थन की जरूरत पड़ सकती है। केंद्र से मोदी को हटाने की मुहिम जो चला रहे हैं। ऐसे में देश भर में सक्रिय भाजपा विरोधी क्षेत्रीय दलों का साथ लेना ही होगा। ममता तो इस बार पहले से भी ताकतवर हो कर उभरी हैं। ऐसे में नीकु को उनका साथ मिल जाए तो कुछ भी गुल खिला सकते हैं।
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अपनी ढपली अपना राग
रामविलास पासवान जो भी करते हैं पूरी ताकत से करते हैं। हीला-हवाली उनके स्वभाव में नहीं। मसलन, आज कल नीकु की सरकार का विरोध कर रहे हैं तो उसमें कोई लिहाज नहीं बरत रहे। हाल में एक पत्रकार की हत्या हुई। उससे पहले व्यवसायी पुत्र की हत्या हुई थी। बिहार की कानून व्यवस्था बिगड़े तो भला पासवान के लिए यह मुद्दा क्यों न हो? उन्होंने दोनों हत्याओं को जोड़ दिया तो मुद्दा और बड़ा बन गया। सूबे में राष्ट्रपति शासन लागू करने की मांग कर डाली। पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी अब राजग में है। जहां भाजपा सबसे बड़ी पार्टी है। नीकु के विरोध में तो भाजपा भी किसी तरह से कम मुखर नहीं है। हां, उसके नेता अभी बिहार में राष्ट्रपति शासन जैसी अतिवादी मांग से बच रहे हैं। शायद यही कारण है कि नीकु की सरकार पासवान को गंभीरता से नहीं ले रही। ठीक भी है। जब भाजपा राष्ट्रपति शासन की मांग करने की हिम्मत नहीं कर पा रही तो फिर पासवान की हिम्मत का क्या उठता है। पर लोकतंत्र में कोई कुछ भी मांग कर सकता है। उनकी राष्ट्रपति शासन की मांग को कोई उनका बड़बोलापन बताता है तो बताता रहे, वे भी क्यों परवाह करेंगे?
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साख गंवाई
कोलकाता का जादवपुर विश्वविद्यालय अपनी साख लगातार खो रहा है। एक जमाने में उत्कृष्ट पढ़ाई के लिए देश में शोहरत थी इसकी। लेकिन अब तो चर्चा गलत वजहों से ही होती दिखती है। विश्वविद्यालय परिसर को यहां सक्रिय छात्र संगठनों के बीच जारी वर्चस्व की होड़ ने उपद्रव का अड्डा बना दिया है। पिछले दिनों विद्यार्थी परिषद ने एक फिल्म के प्रदर्शन को मुद्दा बनाया था। छात्राओं से हुई छेड़छाड़ पर भी बिफरे थे परिषद के कार्यकर्ता। तभी तो सूबे के राज्यपाल और विश्वविद्यालय के कुलाधिपति केशरी नाथ त्रिपाठी तक को अफसोस जताना पड़ा था। पिछले साल भी पुलिस लाठी चार्ज के मुद्दे को लेकर लंबे अरसे तक चले छात्र आंदोलन के कारण पढ़ाई चौपट हो गई थी। कुलपति के इस्तीफे के बाद ही थम पाया था हंगामा। सूबे में जब तक वाम मोर्चे का राज रहा, इस विश्वविद्यालय के छात्र संघ पर भी माकपा से जुड़े छात्र संगठन एसएफआइ का ही डंका बजता था। लेकिन 2011 में तृणमूल कांग्रेस सत्ता में आई तो विश्वविद्यालय परिसर पर वर्चस्व की जंग तेज हो गई। इसके बाद भाजपा के छात्र संगठन विद्यार्थी परिषद ने भी अपनी सक्रियता बढ़ा दी। नतीजतन लड़ाई तिकोनी हो गई। अतीत में हाबड़ा का बंगाल इंजीनियरिंग विश्वविद्यालय भी छात्र आंदोलनों के कारण होने वाली अराजकता के चलते बदनाम था। पर वहां बने कुलपति अजय राय ने छात्र संघ को भंग कर दिया। उसकी जगह एक सलाहकार परिषद बना डाली। तब जाकर शांत हो पाया माहौल। अब तो वैसे भी इसे केंद्रीय संस्थान बनाया जा चुका है। पर जादवपुर विश्वविद्यालय के हालात में कोई सुधार नजर नहीं आ रहा। नामचीन शिक्षाविद् भी विश्वविद्यालय के लगातार गिर रही प्रतिष्ठा से दुखी हैं। पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को कतई चिंता नहीं है। दूसरी बार सत्ता संभालेंगी तो शायद कोई पहल करें यहां सुधार की।
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बाराती शिव के
राजस्थान सरकार के भाजपाई मंत्री भी विचित्र हैं। कुछ का तो अपनी जुबान पर नियंत्रण ही नहीं। बेशक उनके बेतुके बोल मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को परेशान करते होंगे। विमंदित गृह और अस्पतालों में लगातार हो रही बच्चों की मौतों पर मंत्रियों के बयानों से लोगों का माथा ठनका है। शराबबंदी को लेकर कुछ मंत्रियों के बेतुके बयान पार्टी की साख पर सवाल उठा गए। दूषित जल के बारे में जल प्रदाय मंत्री का बयान तो सरकार की पोल खोलने वाला साबित हुआ। इससे कांग्रेस को आक्रामक होने का मौका मिल गया। पार्टी के सूबेदार सचिन पायलट और पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने मुख्यमंत्री की घेरेबंदी के लिए उनकी सरकार की कार्यशैली पर ही सवाल उठा दिया। नतीजतन मुख्यमंत्री को ऐसे बड़बोले मंत्रियों की क्लास लगानी पड़ी। शराबबंदी के मुद्दे पर उद्योगमंत्री गजेंद्र सिंह खींवसर के सुर ने उच्च शिक्षा मंत्री कालीचरण सर्राफ ने भी सुर मिला दिया। इसी तरह अजमेर की सरकारी अस्पताल में नवजात शिशुओं की मौत पर महिला बाल विकास मंत्री अनिता भदेल ने बेतुका बयान देकर सरकार की भद्द पिटवा दी। पार्टी दफ्तर पर चलने वाले जन सुनवाई कार्यक्रम में अपनी फरियाद लेकर आने वाले कार्यकर्ताओं और लोगों को कई बार मंत्री फटकार लगाने पर आमदा हो जाते। तभी तो नाराज कार्यकर्ता खुलेआम कहने लगे हैं कि मंत्री किसी काम के नहीं। वे तो दाम के बदले काम योजना चला रहे हैं। मुख्यमंत्री ने इन मंत्रियों को नसीहत पहली बार नहीं दी है। अब तो भाजपा संगठन और केंद्र सरकार के फेर बदल की इंतजार में बताई जा रही हैं वसुंधरा। उसके बाद ही वे करना चाहेंगी नाकारा और विवादास्पद मंत्रियों की छुट्टी।
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दौर-ए- चला चली
हिमाचल के मुख्यमंत्री अपने कुछ मंत्रियों से दुखी लग रहे हैं। अपने मंत्रियों को अनुशासन में रहने की चेतावनी भी दी है। साथ ही सचिवालय में बैठने की हिदायत भी। ऊपर से यह धमकी भी कि जो नहीं सुधरेंगे, उन्हें बाहर का रास्ता भी दिखाया जा सकता है। उनके साहबजादे विक्रमादित्य सिंह भी इस तरह की चेतावनी देने में संकोच नहीं कर रहे। वे तो कई बार कह चुके हैं कि मंत्रिमंडल में फेर बदल कर प्रदर्शन के हिसाब से काम दिया जाना चाहिए। एक मंत्री ने उनकी बात का प्रतिवाद किया तो बाद में पलट गए। दरअसल एक बार विक्रमादित्य ने विधायकों तक का रिपोर्ट कार्ड तैयार करने की बात कह दी थी। लेकिन इस बार तो खुद वीरभद्र ने ही आंखें तरेरी हैं। तीखे तेवर के साथ फरमाया है कि मंत्री अनुशासन में रहें। लगता है कि ज्यादातर मंत्री अब अपने मुखिया के कहे अनुसार नहीं चल रहे। सचिवालय में कम बैठेंगे तो आगंतुकों को परेशानी होगी ही। मंत्री ही क्यों अब तो नौकरशाह भी वीरभद्र को ज्यादा तवज्जो नहीं दे रहे। ज्यादा समय दिल्ली के दौरों पर खपा रहे हैं। मेज पर फाइलों के अंबार लगे हैं। ऐसे माहौल में भाजपा क्यों न उड़ाए खिल्ली। उसने तो मुख्यमंत्री पर तंज कस दिया कि उनका न अपने विधायकों और मंत्रियों पर नियंत्रण है और न अफसरों पर।
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उपहास के पात्र
सतपाल सिंह सत्ती भाजपा के हिमाचल के सूबेदार हैं। प्रेम कुमार धूमल की कृपा से तीसरी बार पा गए सूबेदारी। लेकिन पहले जैसा जोश अब नहीं दिखता। टीम बनाने में ही खासा वक्त लगा दिया। टीम बनाई भी तो खोदा पहाड़ निकली चुहिया की तर्ज पर। असरदार न संतुलित। गुटबाजी को भी नहीं पाट सके। भाजपा के तीन पुराने सूबेदार भी हैं। सुरेश भारद्वाज, सुरेश चंदेल और जयराम ठाकुर। तीनों अब साझा बयान दे रहे हैं। जाहिर है कि सत्ती पर भारी पड़ने और अपने अस्तित्व को बचाने की रणनीति मान रहे होंगे। इसका मतलब तो यही हुआ कि सूबेदार होने के बावजूद अपनी पार्टी में बेअसर हो गए हैं सत्ती। जिन्हें सत्ती ने अपनी टीम में जगह नहीं दी, वे चुप्पी साध कर सत्ती के कमजोर होने का मजा ले रहे हैं। बेचारे सत्ती ऐसे में पार्टी को मजबूत करेंगे भी तो कैसे?
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खुसर-फुसर
उपचुनाव भाजपा ने गुजरात में जीता और राहत चंडीगढ़ में राज्यपाल कप्तान सिंह सोलंकी ने महसूस की। हरियाणा के राज्यपाल हैं घोषित तौर पर वे। पर पंजाब में अर्से से कोई राज्यपाल है ही नहीं तो इस राज्य की लाट साहबी भी उन्हीं के हवाले है। ऊपर से संघ शासित क्षेत्र चंडीगढ़ के प्रशासक का कामकाज बतौर लुभाव पा गए। चर्चा थी कि आनंदी बेन पटेल से पटेल आंदोलन नहीं संभल पा रहा। सो, मुख्यमंत्री पद से उनकी छुट्टी कर उन्हें चंडीगढ़ के राजभवन में बैठाने का मन बना चुके हैं मोदी। लेकिन विधानसभा उपचुनाव की जीत और उम्र में और भी बड़े दो केंद्रीय मंत्रियों की मौजूदगी फिलहाल तो उनके लिए संजीवनी बन गई। सोलंकी को कहीं से भनक लगी होगी कि मोदी अपने मंत्रिमंडल में तो फेरबदल करेंगे ही, राजभवनों में भी बदलाव कर सकते हैं। पुड्डुचेरी में किरण बेदी को उपराज्यपाल बनाए जाने की आहट पाते ही रविवार को दिल्ली आ धमके सोलंकी। मुलाकात का मकसद शिष्टाचार बताना ही था। गोपनीय बातों को भला कोई उजागर करता है। चर्चा है कि वे गृहमंत्री से अपने भविष्य के बारे में पड़ताल करने आए थे। लगता है कि फिलहाल उनकी कुर्सी पर बड़ा खतरा नहीं है। हां, यह जरूर मुमकिन है कि उनसे पंजाब का प्रभार छिन जाए। पर हरियाणा से ज्यादा ग्लैमर तो पंजाब की लाट साहबी में ही है। चंडीगढ़ के पदेन प्रशासक का दायित्व जो जुड़ा है इस कुर्सी के साथ।
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क्या खाक जिताएंगे
विजय सांपला केंद्र में मंत्री होते हुए भी पंजाब भाजपा की सूबेदारी कर रहे हैं। बेशक अभी ज्यादा समय नहीं हुआ। विधानसभा चुनाव के मद्देनजर चला है मोदी और अमित शाह ने पंजाब में सांपला के जरिए अपना दलित कार्ड। पर उनकी सूबेदारी भी पार्टी में उत्साह नहीं भरपाई। ऐसा नहीं है कि सांपला सक्षम नहीं हैं। पर अड़चन बने हैं पिछले सूबेदार कमल शर्मा और उनका गुट। सांपला चाहते हैं कि आला कमान सूबे की गठबंधन सरकार में मंत्री भी उनकी पसंद के हिसाब से बनाए। जो भाजपाई मंत्री कारगर नहीं हैं उनकी जगह दूसरे असरदार लोगों को अवसर मिले। लेकिन कमल शर्मा गुट को भनक लगी तो जा पहुंचे दिल्ली दरबार। आला कमान को दबाव में आते देर नहीं लगी। रद्दी की टोकरी में चला गया सांपला का सुझाव। यों सांपला के सुझाव को पार्टी के लिए फायदेमंद मानने वालों की पंजाब में भी कमी नहीं। पर जिन्हें कुर्सी छीनने का खतरा है, वे तो बेचैन होते ही। पंजाब में दलितों की आबादी तकरीबन एक तिहाई है। इस नाते भाजपा ने कार्ड तो ठीक ही खेला है पर दलित उनके साथ तो तभी आ सकते हैं जब भाजपा उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करे। यहां तो संकट दूसरा है। भाजपा ठहरी अकाली दल की पिछलग्गू। मुख्यमंत्री तो अकाली दल का ही बनना तय है। फिर क्यों लामबंद होंगे पंजाब के दलित सांपला के साथ। बेचारे सांपला तो अभी अपनी टीम ही नहीं बना पाए हैं। चुनाव में क्या खाक चमत्कार दिखाएंगे।
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ढाक के तीन पात
हरीश रावत अब पछता रहे हैं। एक आइएएस अफसर पर जरूरत से ज्यादा भरोसा करना और उसी के इशारों पर नाचना भी उनके संकट का बड़ा कारण साबित हुआ। शासन में मुख्य सचिव राकेश शर्मा और मुख्यमंत्री के निजी स्टाफ में रणजीत रावत ने विधायकों को चिढ़ाया। ऊपर से खुद रावत ने भी बड़प्पन दिखाया होता तो विजय बहुगुणा जैसे कद्दावर कांग्रेसी कभी बगावत न करते। उनकी छोटी-छोटी और सही सिफारिशों को भी नहीं मानते थे हरीश रावत। अब करीबियों से कहा कि उनसे गलती हो गई। जब वक्त अच्छा था तो कई समझौते करने पड़े। राकेश शर्मा तो अब देहरादून में नजर नहीं आ रहे पर रणजीत रावत ने तो अपनी दुकान फिर सजा ली है। काश हरीश रावत समझ पाते कि काकस में घिरे नेताओं को जमीनी हकीकत का कभी अहसास हो ही नहीं पाता।
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चूक दर चूक
कांग्रेस के नौ बागी विधायक भाजपा के गले की हड्डी बन गए। सुप्रीम कोर्ट से हरीश रावत के पक्ष में फैसला आते ही ये बागी विधायक घर के बचे न घाट के। भाजपा को अपनी साख बचाने के लिए इन्हें अपनाना ही था पर उत्तराखंड में पार्टी के क्षत्रपों को यह अखरा। सांसद रमेश पोखरियाल निशंक ने खूब चिल्लपों की। पर अमित शाह तो कैलाश विजयवर्गीय और शिव प्रकाश की ही सुनते। दिल्ली के भाजपा दफ्तर में विधानसभा की सदस्यता गंवा चुके नौ कांग्रेसी बागियों को पार्टी में शामिल किया तो न निशंक पहुंचे और न तीरथ सिंह रावत। भुवनचंद खंड़Þूड़ी तो खैर पहले से ही अलग-थलग थे। निशंक को ज्यादा एतराज हरक सिंह रावत पर था। अब विजय बहुगुणा, हरक सिंह रावत और सतपाल महाराज की तिकड़ी पार्टी के पुराने और वफादार नेताओं का स्थान हथियाना चाहेगी। जानकार तो उत्तराखंड में हुई किरकिरी का ठीकरा भाजपा आला कमान के सिर फोड़ रहे हैं। जिसने सतपाल महाराज को मुख्यमंत्री पद का मौका नहीं दिया। उलटे भगत सिंह कोश्यारी पर ही लगा दिया दांव। फिर क्यों सतपाल महाराज अपने समर्थक कांग्रेसी विधायकों से बगावत कराते। ले-देकर अपनी पत्नी अमृता रावत को ही बनाया बागी। जबकि योजना तो कांग्रेस के दो तिहाई विधायकों के टूट कर आने की बनी थी।
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पेट में दर्द
राजनीति में अब साफगोई कहीं दिखती ही नहीं। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणाम आए तो फिर साबित हो गई यह बात। भाजपा ने असम की अपनी जीत का जश्न मनाया तो विरोधी लगे नसीहत देने। कांग्रेस ने इन राज्यों में खुद को मिली सीटें भाजपा से ज्यादा होने की दुहाई दी तो लालू यादव ने फरमाया कि चार राज्यों में हार पर सफाई क्यों नहीं दे रही भाजपा। काश लालू समझ पाते कि तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल में तो शुरू से ही कमजोर रही है भाजपा। हां, केरल और पश्चिम बंगाल में अपना वोट बैंक तो उसने हार कर भी बढ़ाया ही है। ऐसे में असम की जीत पर क्यों न इठलाए। कांग्रेस के जज्बे की अलबत्ता जितनी तारीफ की जाए, कम होगी। दो अहम राज्यों को गंवा कर और दो नए राज्यों में सत्ता पाने के अपने सपने के चकनाचूर हो जाने पर भी भाजपा से ज्यादा सीटें पा कर ही खुश है यह पार्टी। कांग्रेस और लालू की देखा-देखी उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी के नेताओं ने भी ली अंगड़ाई। पार्टी के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने आंकड़ेबाजी के बूते साबित करना चाहा कि इठलाने लायक तो सफलता मिली नहीं है भाजपा को। लोकसभा चुनाव की तुलना में तो असम में घट ही गया उसका वोट बैंक। सो उत्तर प्रदेश के चुनाव पर कतई नहीं पड़ेगा असम के चुनाव नतीजे का अगले साल असर।