चुनाव आयोग ने राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा क्या छीना दीदी तो मानो एकदम झुंझला गई। गाज गिरी गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री और बुजुर्ग नेता एल फ्लेरियो पर। उनसे जबरन राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा ले लिया। तृणमूल कांग्रेस अब पश्चिम बंगाल की ही मान्यता प्राप्त क्षेत्रीय पार्टी रह गई है। जबकि पूर्व में पार्टी की मान्यता राष्ट्रीय स्तर की थी।
उत्तर-पूर्वी राज्यों से बिगड़ा समीकरण
हालांकि, इसके पीछे पार्टी का अपना जनाधार वजह नहीं थी, बल्कि यह कमाल तिकड़म और जोड़तोड़ के कारण हुआ था। दरअसल उत्तर-पूर्व के राज्यों में तृणमूल कांग्रेस ने कांग्रेस में सेंध लगाकर अपना वजूद बढ़ाया था। खासकर त्रिपुरा और मेघालय में हुए दलबदल के कारण। गोवा में पार्टी को खासी उम्मीद थी। तभी तो दीदी के सांसद भतीजे अभिषेक बनर्जी और पार्टी की सांसद महुआ मोइत्रा ने वहां पूरी ताकत झोंकी थी। निशाने पर वहां भी आम आदमी पार्टी की तरह दीदी ने भी कांग्रेस को ही रखा था।
AAP को मिला फायदा, गोवा में खुला खाता, नेशनल पार्टी भी बनी
नतीजतन बहुकोणीय मुकाबलों के कारण भाजपा फिर सत्ता में आ गई। तृणमूल कांग्रेस के हाथ कुछ नहीं लगा। अरविंद केजरीवाल की पार्टी का गुजरात की तरह कम से कम गोवा में भी खाता तो खुल ही गया और अचानक दिल्ली की यह क्षेत्रीय पार्टी देश की मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय पार्टी की हैसियत पाकर कांग्रेस और भाजपा की बराबरी पा गई।
बहरहाल फ्लेरियो के साथ बुरी बीती। वे गोवा में कांग्रेस पार्टी के विधायक थे। तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल से उन्हें राज्य सभा में भेजा तो हर कोई हैरान हुआ था। इसके लिए साल भर पहले ही सांसद बनी अर्पिता घोष से इस्तीफा लेकर उप-चुनाव कराया गया। लेकिन, फ्लेरियो ने गोवा फार्वर्ड पार्टी के विजय सरदेसाई के खिलाफ चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया तो पार्टी नेतृत्व उनसे चिढ़ गया। रही-सही कसर चुनावी नतीजों ने पूरी कर दी। बेचारे फ्लेरियो महज डेढ़ साल ही ले पाए राज्य सभा का मजा।
बगावत का बवंडर
लगता है कि कर्नाटक में पार्टी की अंदरूनी दशा और दिशा का भाजपा आलाकमान ने पहले से ही आकलन कर लिया था। तभी तो गुजरात और हिमाचल प्रदेश की तर्ज पर मौजूदा विधायकों के टिकट थोक के भाव नहीं काटे। जिन डेढ़ दर्जन को टिकट से वंचित किया, उन्होंने ही कोहराम मचा दिया। किसी ने पार्टी से ही इस्तीफा दे दिया तो किसी ने राजनीति से संन्यास लेने की ही घोषणा कर डाली।
कोई कांग्रेस में चला गया तो किसी पर देवगौड़ा की पार्टी जनता दल (एस) डोरे डाल रही है। आलाकमान को यह डर तो सता ही रहा होगा कि बोम्मई सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार एक बड़ा चुनावी मुद्दा बन सकता है। इसे विधायकों के प्रति विरोध के तौर पर बदलने की रणनीति के तहत ही कई कद्दावर नेताओं के टिकट तभी तो काटने पड़े।
येदियुरप्पा की अपनी जगह बेटे विजयेंद्र को टिकट दिलाने की हसरत पार्टी ने अलबत्ता पूरी कर दी। उम्मीदवारों के एलान के बाद जैसी बगावत भाजपा के बंगलूर दफ्तर के बाहर दिखी, वैसी उत्तर भारत के किसी राज्य में 2014 के बाद तो नहीं ही दिखी। दलित नेता एमपी कुमार स्वामी ने अपना टिकट काटने का दोष पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव सीटी रवि पर मढ़ा है।
उन्होंने बगावत कर चुनाव लड़ने का एलान भी कर दिया है। पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टर और पूर्व उप मुख्यमंत्री लक्ष्मण सावदी का टिकट कटने पर साफ हो गया कि कर्नाटक में भाजपा बुरी तरह गुटबाजी की शिकार है। आलाकमान ने अभी तक यह एलान नहीं किया है कि विधानसभा चुनाव बोम्मई को ही मुख्यमंत्री का चेहरा मानते हुए लड़ेगी। सारा दारोमदार प्रधानमंत्री की लोकप्रियता के भरोसे है।
तो तीसरी शक्ति बनेंगे सचिन!
सचिन पायलट को कांग्रेस में अशोक गहलोत के रहते अपना कोई सियासी भविष्य नजर नहीं आता। तभी तो अपनी ही सरकार के खिलाफ अनशन किया। जिसके लिए प्रधानमंत्री को भी अशोक गहलोत पर कटाक्ष का मौका मिला। पायलट के सामने अब अपनी अलग पार्टी बनाने के सिवा कोई विकल्प नजर नहीं आता। भाजपा में जाकर भी कुछ हासिल होने वाला नहीं। वहां तो मुख्यमंत्री पद पर महारानी नजर टिकाए हैं।
वसुंधरा इतनी ताकतवर हैं कि आलाकमान को झुकना पड़ा है। दो साल पहले जब सचिन पायलट ने अपने समर्थक विधायकों को साथ लेकर पार्टी से बगावत की थी तब भी उनकी असफलता के पीछे अशोक गहलोत से ज्यादा भूमिका वसुंधरा की थी। जिन्होंने चेतावनी दे दी थी कि पायलट मुख्यमंत्री बने तो वे पार्टी तोड़ देंगी। पायलट चाहते हैं कि आलाकमान उन्हें बाहर कर दे। जब पहली बार बगावत की थी तो सूबे के उपमुख्यमंत्री भी थे और पार्टी के सूबेदार भी।
बगावत के बाद गहलोत ने ये दोनों हैसियत भी छीन ली थी। अब यही उम्मीद बची है कि अलग पार्टी बनाकर 25-30 विधायक भी जिता लिए तो त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में खुल सकती है किस्मत की लाटरी। (संकलन : मृणाल वल्लरी)