हिमाचल की तरह कांग्रेस ने कर्नाटक में भी नेतृत्व के पेच को समय रहते सुलझा लिया। अन्यथा भाई लोग तो 135 विधायकों की ताकत के बावजूद 65 विधायकों वाली भाजपा की ही कर्नाटक में फिर सरकार बनने के फार्मूलों की उधेड़बुन में ही लगे थे। यह सही है कि कर्नाटक में कांग्रेस ने किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुनाव नहीं लड़ा था। कांग्रेस तो खैर विपक्ष में थी पर भाजपा ने तो सत्तारूढ़ होने के बावजूद बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा करके चुनाव नहीं लड़ा। ठीक असम की तरह। जहां उसने चुनाव बाद मुख्यमंत्री बदल भी दिया। भाजपा को बहुमत मिल जाता तो भी यह गारंटी कोई नहीं ले सकता था कि बोम्मई ही मुख्यमंत्री बनते।

रही, कांग्रेस की बात तो विपक्ष में रहने पर अगर पार्टी चुनाव जीती है तो कई बार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ही मुख्यमंत्री बने हैं। शिवकुमार का दावा इस नाते अनुचित और अटपटा नहीं था। रही सिद्धरमैया की बात तो उनके पक्ष में कई पहलू गए हैं। एक तो वे ज्यादा अनुभवी हैं, दूसरे पिछड़े तबके के हैं। ऊपर से दलितों और मुसलमानों में उनकी पकड़ शिवकुमार से ज्यादा मानी जाती है। हां, इतना जरूर है कि वे कांग्रेसी गोत्र के नहीं हैं। देवगौड़ा के जद (एस) से कांग्रेस में आए थे। शिवकुमार पर आयकर, ईडी और सीबीआइ की तलवार अभी लटकी है। लिहाजा उन्हें मुख्यमंत्री बनाने का अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में पार्टी को नुकसान हो सकता था। सिद्धरमैया ने आलाकमान से कह भी दिया बताते हैं कि आगे वे पद की चाह नहीं रखेंगे। इस नाते शिवकुमार अभी लंबी पारी खेलेंगे तो मुख्यमंत्री पद भी देर-सवेर मिल ही जाएगा। सूत्रों की मानें तो शिवकुमार की तुलना में ज्यादा विधायकों का समर्थन भी सिद्धरमैया के पक्ष में होना भी पलड़े के झुकाव की बड़ी वजह बना।

हिमाचल प्रदेश: सुख में सुक्खू

विपक्षी हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बने छह महीने हो गए पर मंत्रिमंडल का विस्तार लटका है। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू और उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री के अलावा पांच और मंत्री हैं सरकार में। सुक्खू ने छह विधायकों को मुख्य संसदीय सचिव भी बनाया था। पर, एक एनजीओ ने इस मुद्दे पर हिमाचल हाई कोर्ट में दस्तक दे दी। हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को नोटिस भी जारी कर दिया। शिकायतकर्ता का कहना है कि संविधान में मुख्य संसदीय सचिव का कोई पद है ही नहीं।

अलबत्ता विधायकों की कुल संख्या के अधिकतम 15 फीसद मंत्री पदों की वैधानिक सीमा जरूर है। मुख्यमंत्री ने इसी सीमा की अनदेखी करने के लिए बना दिए मुख्य संसदीय सचिव। जिन पर हर साल सरकारी खजाने का दस करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च आएगा। सूबे की 68 सदस्यीय विधानसभा को देखते हुए मंत्रि-परिषद अधिकतम दस की हो सकती है। इस नाते सुक्खू अभी तीन मंत्री और बना सकते हैं। पर, मुख्य संसदीय सचिवों का भाग्य ही अधर में लटकने से न तो मंत्रिमंडल का विस्तार हो पा रहा है और न ही दूसरे मलाईदार पदों पर चहेतों की नियुक्तियां। इसके पीछे एक वजह पार्टी की गुटबाजी भी है।

प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह और मुख्यमंत्री सुक्खू के खेमों में बंटी है सूबे में पार्टी। प्रतिभा सिंह गुट के मुकेश अग्निहोत्री उपमुख्यमंत्री हैं तो उनके बेटे विक्रमादित्य मंत्री। दोनों खेमे मंत्री पदों पर अपना वर्चस्व चाहते हैं। आलाकमान भी सोच रहा है कि नियुक्तियां न होने से पार्टी विधायकों और कार्यकर्ताओं में हताशा बेशक बढ़े पर गुटबाजी काबू में रहती है। अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में अगर पार्टी के संगठन को सक्रिय करना है तो खाली पड़े मंत्री पदों और मलाईदार पदों पर नियुक्तियां करने में देरी से नुकसान भी हो सकता है। सूबे में इस समय चार में से तीन लोकसभा सीटों पर भाजपा और एक पर कांग्रेस का कब्जा है। विधानसभा चुनाव के बाद शिमला नगर निगम के चुनाव में भी जीत हासिल होने से मुख्यमंत्री सुक्खू फिलहाल आत्मविश्वास से लबरेज दिख रहे हैं। देखते हैं आगे क्या होता है।

तकरार के बाद सुधार की दरकार

लगता है कि केंद्र की राजग सरकार ने न्यायपालिका के साथ टकराव की अपनी नीति में बदलाव किया है। किरेन रिजिजू को कानून मंत्रालय से हटाने से इस बदलाव का पहला संकेत मिला था। दूसरा संकेत भी कुछ घंटे बीतने के साथ ही सामने आ गया। केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में खाली हुए दो जजों के पदों पर नियुक्ति को गुरुवार को ही मंजूरी दे दी। जबकि सुप्रीम कोर्ट कालेजियम ने दो दिन पहले ही इन नामों की केंद्र से सिफारिश की थी। अतीत में इतनी तेजी से केंद्र सरकार ने कालेजियम की किसी भी सिफारिश को कभी मंजूरी नहीं दी। रिजिजू के कानून मंत्री रहते न्यायपालिका और कार्यपालिका के रिश्तों में तल्खी तो बढ़ी ही, सुप्रीम कोर्ट को कई बार मर्यादित शब्दों में फटकार भी लगानी पड़ी। रिजिजू जो भी बयानबाजी कर रहे थे, उसके पीछे उनके नेतृत्व का समर्थन न रहा हो, आसानी से यह बात गले नहीं उतरती। पर, हिमाचल के बाद कर्नाटक भी भाजपा के हाथ से निकलने और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर सरकार के प्रबंधकों को रिजिजू का विभाग बदलकर रिश्तों की तल्खी में कमी लाना जरूरी लगा होगा।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)