आधे-अधूरे मंत्री
मंत्रिमंडल के विस्तार में उत्तर प्रदेश को सात और पद दिया जाना सतही विश्लेषण के हिसाब से तो बड़ी नुमाइंदगी है। प्रधानमंत्री खुद इसी सूबे की नुमाइंदगी करते हैं। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के अलावा स्मृति ईरानी, मुख्तार अब्बास नकवी और महेंद्र नाथ पांडे सभी कैबिनेट स्तर के मंत्री हैं। भाजपा तो हरदीप पुरी को भी इसी सूबे के कोटे में शामिल करती है क्योंकि वे राज्यसभा में यहीं से हैं। पंजाब और दिल्ली से राज्यसभा भेजने लायक हैसियत तो पार्टी की थी भी नहीं। जनरल वीके सिंह, साध्वी निरंजन ज्योति और संजीव बालियान पहले से राज्यमंत्री हैं। जो हटाए गए उनमें उत्तर प्रदेश के इकलौते संतोष गंगवार हैं।

पिछड़े तबके के एक मंत्री को हटाया तो उनकी जगह तीन और मंत्री बना दिए। पंचायत चुनाव के दौरान पिछले दिनों पार्टी को अहसास हुआ था कि पिछड़े और दलित अब अपनी व्यापक भागीदारी के लिए व्याकुल हैं। सूबे के सात नए बनाए मंत्रियों में तीन कहने को दलित ठहरे। पर प्रदेश स्तर पर दलित नेता के नाते पहचान एक भी नहीं बना पाया। तभी तो सपा, बसपा और छोटे दलों ने अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के नतीजों पर इस भागीदारी का कोई सकारात्मक असर नहीं पड़ने की प्रतिक्रिया जताई है। सबसे मुखर आलोचना तो अति पिछड़े तबके के ओमप्रकाश राजभर की रही। फरमाया कि सूबे से केंद्र में दलित और पिछड़े तबके का न पहले कैबिनेट स्तर का कोई मंत्री था और न अब बनाया गया है।

सातों नए मंत्री राज्यमंत्री ठहरे। संतोष गंगवार तो फिर भी स्वतंत्र प्रभार वाले राज्यमंत्री थे। वास्तविकता किससे छिपी है कि राज्यमंत्रियों को उनके कैबिनेट मंत्री कोई अधिकार देते ही नहीं। फिर वे कैसे सरकार के कामकाज को गतिशीलता देंगे और कैसे सूबे के लोगों के हितों की चिंता को परवान चढ़ा पाएंगे। राजभर ने तो बंजारा, बिंद, पाल, प्रजापति, कश्यप, केवट, नाई, लोनिया, जोगी व विश्वकर्मा जैसी जातियों के नाम भी गिना दिए, जिन्हें भाजपा ने कोई तवज्जो नहीं दी है। ऐसे में राजभर तो अब भी इसी निष्कर्ष पर कायम हैं कि विधानसभा चुनाव में भाजपा को अपनी उपेक्षा के लिए सबक सिखाएंगे अति पिछड़े।

बने कौन, हटे कौन
उत्तराखंड में नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदयेश की मौत के एक महीने बाद भी कांग्रेस नेता प्रतिपक्ष का नाम तय नहीं कर पाई है। हरीश रावत खेमा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह को नेता प्रतिपक्ष बनाना चाहता है। हरीश रावत खुद अपने किसी समर्थक को प्रदेश अध्यक्ष बनाना चाहते हैं ताकि विधानसभा चुनाव में अपने समर्थकों को अधिक से अधिक टिकट दिलवा कर मुख्यमंत्री का दावा पेश किया जा सके। जबकि प्रीतम सिंह प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी को किसी भी हाल में छोड़ना नहीं चाहते और वे नेता प्रतिपक्ष भी अपनी मर्जी का बनाना चाहते हैं। इंदिरा हृदयेश की मौत के बाद कांग्रेस के विधानसभा में दस विधायक रह गए हैं। पांच विधायक हरीश रावत गुट के पूर्व विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल को बनाने के पक्ष में हैं। हरीश रावत भी कुंजवाल की पैरवी कर रहे हैं जबकि प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह एक जमाने में हरीश रावत के खास रहे करण माहरा को नेता प्रतिपक्ष बनाने के पक्ष में हैं।

माहरा विधानसभा में कांग्रेस के उपनेता हैं इसलिए उनका हक ज्यादा बैठता है। वहीं हरीश रावत को हाईकमान संतुष्ट करने के लिए 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए चुनाव संचालन समिति का अध्यक्ष बनाना चाहता है। रावत ने यह शर्त रख दी है कि नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह को बनाया जाए और प्रीतम सिंह की जगह पार्टी अध्यक्ष पद पर उनके पसंदीदा व्यक्ति को लाया जाए जिसका प्रीतम सिंह, करण माहरा, तिलक राज बेहड़, किशोर उपाध्याय जबरदस्त विरोध कर रहे हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने हरीश रावत को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर चुनाव में उतारा था। रावत दो विधानसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़े और दोनों में बुरी तरह हारे। इसलिए कांग्रेस उन्हें मुख्यमंत्री पद का चेहरा नहीं बनाना चाहती। राहुल गांधी की पसंद प्रीतम सिंह हैं।

विरोधी से भी भद्र
हिमाचल प्रदेश में वीरभद्र सिंह के निधन के बाद कांग्रेस नेताओं को उनकी अहमियत का अहसास हो रहा है। वीरभद्र सिंह वह नेता रहे हंै जो दूसरे दलों के नेताओं की राजनीतिक जमीन भी सींचते रहे। जयराम ठाकुर पहली बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो वीरभद्र सिंह ने विपक्ष में होते हुए भी उनकी मदद की। जयराम भी उन्हें भरपूर सम्मान देते थे। माकपा नेता राकेश सिंघा एक अरसे से जनता के बीच संघर्ष करते रहे हैं। 2017 के विधानसभा चुनावों में वह ठियोग से खड़े हो गए। वहां कांग्रेस का प्रत्याशी नया व कमजोर था। वह समर्थन भी करते तो भी हार मिलती।

वीरभद्र सिंह ने सिंघा की मदद की और सिंघा जीत गए। वीरभद्र सिंह ऐसे नेता थे जो जनता की नब्ज को पहचानते थे व उनकी भावनाओं का सम्मान भी करते थे। प्रदेश कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष कुलदीप राठौर ने पार्टी की बागडोर थामी। राठौर को आनंद शर्मा ने इस कुर्सी पर बिठाया था। लेकिन आनंद शर्मा का कांग्रेस आलाकमान से छत्तीस का आंकड़ा हो गया। ऐसे में राठौर के खिलाफ पार्टी में विद्रोह के स्वर उठने लगे तो वीरभद्र सिंह ने उन्हें समर्थन दे दिया। विरोधियों के प्रति भी ऐसे भद्र नेता को सभी सम्मान से याद कर रहे। (संकलन : मृणाल वल्लरी)