बहुगुणा की बात
उत्तराखंड भाजपा में कांग्रेस गोत्र के कांग्रेसियों को मनाने और संतुष्ट करने का काम पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा बखूबी निभा रहे हैं। यशपाल आर्य ने पिछले दिनों जब उत्तराखंड सरकार के कैबिनेट मंत्रिपद से त्यागपत्र दिया और अपने विधायक बेटे के साथ भाजपा छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए तब भाजपा हाईकमान ने विजय बहुगुणा को कांग्रेस गोत्र के भाजपाइयों को मनाने का काम सौंपा। बहुगुणा गंभीर राजनेता माने जाते हैं। वे राज्य के अन्य नेताओं की तरह आए दिन बयानबाजी देकर सुर्खियों में रहने के बजाए धरातल पर बिना हल्ला किए काम करते रहते हैं।
हरीश रावत सरकार से नाराज कांग्रेसी विधायकों और मंत्रियों को कांग्रेस छोड़कर भाजपा में लाने का काम विजय बहुगुणा ने किया था, जिस कारण 2017 के चुनाव में राज्य से कांग्रेस का करीब-करीब सूपड़ा साफ हो गया और भाजपा ने 57 सीटें लेकर ऐतिहासिक जीत दर्ज की, जिसमें बहुगुणा की भूमिका अहम थी। पिछले महीने राहुल गांधी के दरबार में दिल्ली जाकर जिस तरह से यशपाल आर्य और उनका बेटा कांग्रेस में शामिल हुए उससे भाजपा को झटका लगा।
भाजपा हाईकमान ने बहुगुणा को और अन्य कांग्रेसी गोत्र के भाजपाइयों को संतुष्ट करने की जिम्मेदारी सौंपी। बहुगुणा बिना देर लगाए कांग्रेस गोत्र के भाजपा नेता कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत और विधायक उमेश शर्मा काऊ से मिले। बहुगुणा के दबाव के कारण हरक सिंह रावत, उमेश शर्मा काऊ समेत अन्य कांग्रेस गोत्र के भाजपा विधायकों ने कांग्रेस में जाने का इरादा छोड़ दिया। कांग्रेस गोत्र के भाजपाई नेता विधायक और मंत्री बहुगुणा का बेहद सम्मान करते हैं।
बहुगुणा की धमक भाजपा हाईकमान में है। प्रधानमंत्री और अमित शाह जब उत्तराखंड के एक दिन के दौरे पर आए तो उन्होंने बहुगुणा को तवज्जो दी, जिससे विजय बहुगुणा का राजनीतिक कद और ऊंचा हुआ। बहुगुणा के प्रभाव के कारण बाकी कांग्रेस गोत्र के भाजपा विधायक पार्टी में बरकरार हैं। उन्होंने पार्टी नहीं छोड़ने का फैसला किया है। विजय बहुगुणा दिग्गज नेता हेमवती नंदन बहुगुणा के बेटे हैं। वे राजनीति में आने से पहले मुंबई हाई कोर्ट के जज थे।
सन्नाटे का संदेश
हिमाचल प्रदेश में उपचुनावों में हार को लेकर भाजपा में अभी भी पूरी तरह से सन्नाटा पसरा हुआ है। इसे लेकर कोई जुबान खोलने को तैयार नहीं है। यही नहीं, सरकार में भी सब खामोश हो गए हैं। कहा जा रहा है कि यह तूफान से पहले का सन्नाटा है। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर और उनके मंत्री एक के बाद एक करके बैठक करने में लग गए हैं। कोई उद्घाटनों में ही व्यस्त हो गया है।
सबको डर है कि उपचुनावों में मिली हार के बाद जिस तरह से आलाकमान खामोश है, ऐसे में कहीं न कहीं कुछ जरूर होने वाला है। एक मंत्री ने तो अपनों के बीच कह भी डाला कि जब तक अपने नाम की पट्टिकाएं चस्पाई जा सकती हैं तो चस्पाने में बुराई क्या है। आलाकमान का क्या पता, कल क्या कर बैठेगा। गुजरात की तरह मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री और अध्यक्षों व उपाध्यक्षों को भी कहीं एक ही रात में न बदल दे।
हालांकि, भाजपा में एक खेमा अभी भी मान रहा है कि कोई ज्यादा फेरबदल होने वाला नहीं है। एक ही साल तो बचा है।छोटा प्रदेश है, अगर 2022 में सरकार चली भी जाती है तो क्या फर्क पड़ेगा। वैसे भी प्रदेश में हर पांच साल बाद सरकार तो बदलती ही है। उधर, मुख्यमंत्री व उनकी मंडली की कुंडली खंगालने में आलाकमान भी अंदरखाते पूरी तरह से जुटा हुआ है। अब तक आलाकमान मुख्यमंत्री पर भरोसा करता आ रहा था। लेकिन उपचुनावों में जिस तरह से हार मिली, उसके बाद आलाकमान ने भी अब कुछ अलग सोचना शुरू कर दिया है। इससे पहले कि किसी स्तर पर कहीं कोई भूचाल आ जाए सब अपने-अपने स्तर पर अपने-अपने नाम से कुछ भी कर गुजरने की मुहिम में लगे ही हुए हैं कि पता नहीं कल हो न हो नेताओं की इस मुहिम को देखकर प्रदेश की जनता भी कम मजे नहीं ले रही है।
महारानी का मौन
राजस्थान उपचुनाव के नतीजों के बाद पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और भाजपा के सूबेदार सतीश पूनिया के बीच मतभेद बढ़ गए हैं। वसुंधरा खेमे को हमले का मौका मिल गया। उनके समर्थकों प्रह्लाद गुंजल और भवानी सिंह राजावत ने न केवल हार पर सवाल उठा दिया बल्कि इस खराब प्रदर्शन की जिम्मेदारी लेने के लिए एक तरह से सूबेदार सतीश पूनिया को नसीहत भी दे डाली। उपचुनाव के दौरान वसुंधरा ने प्रचार से पूरी तरह दूरी बनाए रखी। वसुंधरा खेमा मांग कर रहा है कि 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए उन्हें ही मुख्यमंत्री पद का पार्टी का उम्मीदवार घोषित कर मुख्यधारा में लाया जाए। अशोक गहलोत जैसे कद्दावर कांग्रेसी को वसुंधरा ही टक्कर दे सकती हैं।
लिहाजा उनकी उपेक्षा से पार्टी का अहित ही होगा। वसुंधरा 2018 से ही चुप्पी साधे हैं। पर, आलाकमान को यह संदेश जरूर दे रही हैं कि उन्हें हाशिए पर धकेलना आसान नहीं होगा। अशोक गहलोत सरकार अगर अभी तक नहीं गिर पाई है तो इसके पीछे भी वसुंधरा की अनदेखी ही असली वजह मानी जा रही है। रही सियासी नफे-नुकसान की बात तो 2018 के बाद अब तक सात सीटों के उपचुनाव हुए हैं। पर भाजपा को सफलता महज एक ही सीट पर मिल पाईं।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)