अतुल कनक

पुराने तालाब, कुएं, बावड़ी, जोहड़, टांके या झील अपने अंतस में बरसात के पानी को तो सहेजते ही थे, उनमें संचित जल धीरे-धीरे धरती के अंदर जाकर भूगर्भीय जल के स्तर को बचाए रखने में भी मदद करता था। लेकिन दुर्भाग्य से विकास की आधुनिक अवधारणा ने इस सच को अनदेखा कर दिया और इन तालाबों की जमीनों को पाट दिया।

गर्मी के मौसम के साथ ही देश के अलग-अलग हिस्सों से जल संकट की खबरें सामने आने लगती हैं। इस बार भी ऐसा ही हो रहा है। राजस्थान के कोटा शहर का उदाहरण ही लें। यह शहर चंबल नदी के किनारे बसा है। लेकिन इस शहर की अनेक बस्तियों में पानी की किल्लत हो गई है। स्थिति यह है कि कई बस्तियों में तो नलों से बूंद-बूंद टपकने वाले पानी के सहारे अपनी जरूरत पूरी करने के लिए लोगों को रात-रात भर जागना पड़ता है।

पिछले दिनों आई एक रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान के हाड़ौती अंचल में भूजल पाताल तक पहुंच गया है। पश्चिमी राजस्थान में मरुस्थल है और वहां पानी का संकट नई बात नहीं है। लेकिन हाड़ौती अंचल राजस्थान के जिस दक्षिण-पूर्वी हिस्से में है, उसे सरसब्ज इलाके के तौर पर जाना जाता है। चंबल, कालीसिंध, पार्वती, परवन, आहू, ताकली, उजाड़ जैसी नदियों के अलावा इस अंचल में एक दर्जन छोटी या सहायक नदियां बहती हैं। बरसात के दिनों में जब इन नदियों में उफान आता है, तब इनमें होने वाली पानी की आवक का पता चलता है।

इसके बावजूद यदि इलाके में भूजल का स्तर पाताल में पहुंच गया है और लोगों को पानी की पर्याप्त आपूर्ति नहीं हो पा रही है, तो इसका अर्थ केवल यही है कि हम पानी के प्रबंधन में कहीं पिछड़ गए हैं। हाड़ौती तो एकमात्र उदाहरण भर है, देश के ज्यादातर हिस्सों में जलसंकट की कमोबेश यही कहानी है।

महाभारत में एक जगह कहा गया है-‘अति परिचयाद् अवज्ञा भवति।’ सहजता से उपलब्ध हो जाने वाली वस्तुओं के वास्तविक मूल्य का अनुमान हम आसानी से नहीं लगा सकते, भले ही वे जीवन के लिए कितनी ही उपयोगी क्यों न हों। पानी के साथ भी ऐसा ही हुआ है। पृथ्वी की सतह का दो तिहाई हिस्सा पानी से भरा है। इसलिए कई लोगों को लगता है कि जब चारों तरफ इतना पानी है, तो फिर चिंता की क्या बात? शायद कुछ लोगों का यही सोच है। लेकिन ऐसे लोग इस तथ्य को भूल जाते हैं कि पृथ्वी की सतह पर मौजूद कुल पानी में से दो प्रतिशत से भी कम मनुष्य के उपयोग लायक है।

आज भी पीने के पानी के लिए दुनिया का बड़ा हिस्सा बरसात या नदियों के प्रवाह पर ही निर्भर है। विज्ञान ने हमें भले ही उन्नति के नए सोपान सौंपे हैं, लेकिन आज तक दुनिया की किसी प्रयोगशाला में मनुष्य की जरूरतों को पूरा करने लायक पानी नहीं बनाया जा सका है। इजराइल जैसे देशों ने समुद्री पानी को पीने के योग्य बनाने का दावा किया है, लेकिन उनकी तकनीक या तो इतनी महंगी है या इतनी अप्रचलित है कि दुनिया में यह चलन लोकप्रिय नहीं हो पाया।

ऐसे में जरूरी यह था कि हम उन संसाधनों को बचाएं जो हमें साल भर तक पीने का पानी मुहैया कराते हैं। नदियों के अलावा झीलों, तालाबों, कुओं, बावड़ियों, टांकों, जोहड़ों जैसे जल संसाधनों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। हमारे पूर्वज जानते थे कि पानी जीवन की सबसे बड़ी जरूरत है और इसके संरक्षण के जरा-सी भी लापरवाही पीढ़ियों के अस्तित्व को संकट की ओर धकेल सकती है। इसीलिए प्राचीन भारतीय मान्यताओं में किसी जल स्रोत के निर्माण को बहुत पुण्यदायक माना गया।

राजाओं, सेठों और सामर्थ्यवान लोगों ने अपने जीवन के किसी महत्त्वपूर्ण अवसर की स्मृति को अक्षुण्ण रखने के लिए भव्य जल संसाधनों का निर्माण करवाया। भारत की सबसे भव्य बावड़ियों में एक ‘रानी जी की वाव’ गुजरात के अन्हिलवाड़ा पाटन में स्थित है। राजा भीमदेव प्रथम की स्मृति में इस बावड़ी का निर्माण उनकी रानी उदयामति ने करवाया था। यह बावड़ी अब विश्व विरासत में शामिल है। मध्यप्रदेश की राजधानी में स्थित भोपाल के प्रसिद्ध बड़े तालाब का निर्माण परमार राजा भोज ने ग्यारहवीं सदी में एक चर्म रोग से छुटकारा पाने के उपक्रम में करवाया था।

युद्ध के दौरान अपनी प्रजा और सेना को शत्रु से बचाए रखने के लिए प्राचीन शासक किलों और दुर्गों में विशेष जलाशय बनवाते थे। चित्तौड़ के विश्व प्रसिद्ध गढ़ में चौरासी जलाशय थे। राजस्थान की जयसमंद और राजसमंद जैसी विशाल झीलें अपने अपने दौर में अकाल के दौरान लोगों को रोजगार देने की योजना के तहत बनवाई गई थीं। इन झीलों में जमा पानी ने बाद में लंबे समय तक इलाके को अकाल से लड़ने का हौसला दिया। मरुस्थलीय इलाकों में रहने वाले लोगों से बेहतर पानी की कीमत कौन समझ सकता है? पश्चिमी राजस्थान में न केवल पाताल की छाती तोड़ कर पानी निकाल लाने वाले कुँओं का निर्माण करवाया गया, बल्कि इन कुओं की शुचिता की रक्षा के लिए विशेष प्रबंध भी किए गए।

जैसलमेर में एक तालाब है- गढ़सीसर तालाब। बरसात शुरू होने के पहले सारा शहर इस तालाब की सफाई के लिए जमा होता था। स्वयं राजा श्रमदान हेतु लोगों के साथ उपस्थित होते थे। इस तालाब के जल को गंदा करना अपराध माना जाता था। आज भी देश के कुछ गांवों में ऐसे जलाशय हैं जिनके जल को गंदा करना सहज क्षम्य नहीं होता।

प्राचीन भारतीय मान्यताएं भी जलाशयों को गंदा करना शुभ नहीं मानतीं। लेकिन समय ने हमारी प्राथमिकताओं को बदल दिया। जब शहरों की आबादी बढ़ी तो पुराने तालाबों को पाट कर बाजार और बस्तियां बसा दी गर्इं। हमारे यहां कई उत्सवों पर कुएं की पूजा करना एक महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान माना जाता था। इस परंपरा का मूल यह था कि हम कुएं की कल्याणकारी भूमिका को स्वीकारें, जो अपने अंतस में हमारी जरूरतों का पानी सहेजे रहता है। लेकिन नलों के माध्यम से पानी घरों तक पहुंचा, तो लोगों ने कुओं को उपेक्षित छोड़ दिया। यही कारण है कि आज देश के अधिकांश प्राचीन कुएं और बावड़ी गंदगी से अटे पड़े हैं।

पुराने तालाब, कुएं, बावड़ी, जोहड़, टांके या झील अपने अंतस में बरसात के पानी को तो सहेजते ही थे, उनमें संचित जल शनै: शनै: धरती के अंदर जाकर भूगर्भीय जल के स्तर को बचाए रखने में भी मदद करता था। लेकिन दुर्भाग्य से विकास की आधुनिक अवधारणा ने इस सच को अनदेखा कर दिया। विकास की आधुनिक अवधारणा ने इन तालाबों की जमीनों को पाट दिया।

कहीं बस्तियां बस गर्इं, कहीं बाजार बना दिए गए, तो कहीं रेलवे स्टेशन और न जाने क्या-क्या। भूजल को समृद्ध करने के साधन तो खत्म हुए ही, 1970 के दशक के अंत में जनता को पानी मुहैया कराने के लिए जगह-जगह नलकूप भी खोद दिए गए, जिनसे मनमाने तरीके से जमीन के अंदर का पानी बाहर उलीचा जाने लगा। परिणाम यह हुआ कि भूजल का स्तर पताल में जा पहुंचा।

देश के कुछ हिस्सों से ऐसी खबरें सामने आई हैं, जिनमें बताया गया है कि एक छोटा-सा घड़ा पानी भरने के लिए भी स्त्रियों और बच्चों को अपनी जान जोखिम में डाल कर गहरे कुएं में उतरने को मजबूर होना पड़ता है और इस कुएं तक पहुंचने के लिए भी उन्हें अपने घर से बहुत दूर चिलचिलाती धूप में जाना पड़ता है। पानी को लेकर होने वाले संघर्ष ऐसे ही कारणों से उग्र और हिंसक होते हैं।

ऐसे में आवश्यक है कि हम पानी के सदुपयोग के और वर्षा जल को संग्रहित करने के महत्व को समझें। दुनिया भर में पानी को बचाने की चेतना जगाने के लिए संवेदनशील लोग सक्रिय हैं क्योंकि पानी के अभाव में मनुष्य की तरक्की के सारे दावे अर्थहीन हो जाएंगे। शायद इसीलिए रहीम ने कहा था-‘रहीमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून/ पानी गये न ऊबरे, मोती-मानुष- चून।’