वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में बिजली और ताप आधारित उपक्रमों की हिस्सेदारी 24.6 फीसद है, जबकि परिवहन क्षेत्र की हिस्सेदारी महज दस फीसद। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के मामले में भारत दुनिया में पांचवे स्थान पर आता है। चिंता की बात यह है कि भारत में इन जहरीली गैसों का उत्सर्जन दुगनी गति से बढ़ रहा है। आने वाले पांच वर्षों में यह रफ्तार पांच गुना तक बढ़ सकती है।
देश में बिजली किल्लत के अलावा बिजली उत्पादन से होने वाले प्रदूषण जैसी समस्याएं भी कम नहीं हैं। देश में कुल बिजली उत्पादन में साठ फीसद बिजली कोयले से बनती है, जबकि छब्बीस फीसद बिजली पानी से और महज चौदह फीसद बिजली अन्य तरीकों से, जिसमें यूरेनियम या थोरियम से पैदा होने वाली बिजली महज दो फीसद है। यानी देश में कोयले से चलने वाले बिजली घर ही ज्यादा हैं और ये बिजली घर भारी मात्रा में अपशिष्ट पैदा करते हैं। इसमें ज्यादा खतरनाक कोयला जलने से निकलने वाली राख है। चिंता की बात यह है कि सरकार की नजर में इस राख का कोई भी अन्य उपयोग नहीं है। इसलिए सालों-साल से बिजली घरों के आसपास करोड़ों टन कोयले के फैले अपशिष्ट पर्यावरण को ही नहीं, भूमि और जल को भी भयंकर रूप से प्रदूषित कर रहे हैं।
हैरानी की बात यह है कि कोयले से चलने वाले बिजली घरों से निकलने वाले अपशिष्टों को ठिकाने लगाने की न तो केंद्र सरकार के पास कोई योजना है, न राज्य सरकारों के पास। बिजली मंत्रालय का मानना है कि यह ऐसा व्यर्थ का पदार्थ है जिसका किसी भी रूप में कोई उपयोग नहीं हो सकता है। ताज्जुब की बात यह है कि आज दुनिया के वैज्ञानिकों ने धरती पर हर चीज का उपयोग किसी न किसी रूप में करने की विधि खोज ली है, लेकिन कोयले से चलने वाले बिजलीघरों से निकलने वाले अपशिष्टों के उपयोग का आज तक कोई बेहतर उपयोग नहीं खोजा जा सका है।
ऐसा नहीं है कि इसका कोई उपयोग नहीं है। इसका उपयोग है, पर सरकार इस तरफ गौर ही नहीं किया जा रहा। इस वजह से इसके बेहतर उपयोग के बारे में कोई अनुसंधान भी होता नहीं दिखा है। दुनिया के विकसित कहे जाने वाले देशों ने कार्बन को दफनाने तक की समस्या का निदान खोज लिया है, जो कभी असंभव माना जाता था। ग्रीन हाउस गैसों की समस्या से निजात पाने की विधि खोज ली गई है, लेकिन भारत में करोड़ों टन कोयले के अपशिष्ट के उपयोग का कोई भी तरीका नहीं खोजा जा सका है।
बिजली घरों से निकली काली राख से हजारों एकड़ भूमि बंजर होती जा रही है। आसपास की खेती लायक जमीन भी इसके असर से बंजर होती जा रही है। तेज हवा या आंधी आने पर यह काली राख हवा में मिल कर श्वास के जरिए लोगों में पहुंचती है और सांस, त्वचा, आंख सहित दूसरे गंभीर रोगों का कारण बनती है। जमीन और हवा के अलावा इस अपशिष्ट से बिजली घर के आसपास जल स्रोत यानी नहरें, तालाब और कुंओं का पानी भी जहरीला हो जाता है। जाहिर है, कोयला चलित बिजली घरों से निकलने वाली राख वायु प्रदूषण का बड़ा कारण है और इसकी चिंता अब वैश्विक स्तर पर होने वाले जलवायु सम्मेलनों में साफ दिखाई दे रही है।
उदाहरण के लिए दिल्ली और इसके आसपास कोयले से चलने वाले बिजली घरों से निकली काली राख को बड़े क्षेत्रफल में फैले हुए देख कर कोई यह नहीं कह सकता कि यह पर्यावरण की समस्या का एक बड़ा कारण नहीं होगा। दिल्ली और फरीदाबाद में पर्यावरण प्रदूषण से हालात लगातार गंभीर हो रहे हैं। हवा में घुले जहर के कारण लाखों लोग गंभीर रोगों से पीड़ित हैं। देश और विदेश के बड़े-बड़े वैज्ञानिक ‘प्रदूषण मुक्त दिल्ली’ बनाने के प्रयत्न में जुटे हैं, लेकिन समाधान के अभाव में समस्या दिनोंदिन विकराल रूप धारण करती जा रही है।
ग्रीन हाउस गैसों की समस्या पर भारत से कहीं ज्यादा विदेशों में अनुसंधान किए जा रहे हैं। जबकि भारत की राजधानी दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में दूसरे स्थान पर है। वर्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट, वाशिंगटन के मुताबिक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में तिहत्तर फीसद योगदान ऊर्जा का होता है। वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में बिजली और ताप आधारित उपक्रमों की हिस्सेदारी 24.6 फीसद है, जबकि परिवहन क्षेत्र की हिस्सेदारी महज दस फीसद। ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के मामले में भारत दुनिया में पांचवे स्थान पर आता है। चिंता की बात यह है कि भारत में इन जहरीली गैसों का उत्सर्जन दुगनी गति से बढ़ रहा है। आने वाले पांच वर्षों में यह रफ्तार पांच गुना तक बढ़ सकती है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि ताप बिजली घरों से निकलने वाले अपशिष्टों के खतरे पर भी गंभीरता से ध्यान दिया जाए और इसके उपयोग के लिए कोई मुकम्मल रास्ता तलाशा जाए।
भारत में परमाणु बिजली घरों से अभी जितना उत्पादन हो रहा है, वह कुल उत्पादन का महज दो फीसद है। परमाणु बिजली घरों को लेकर देश में अभी भी व्यापक सहमति देखने को नहीं मिलती। सरकार को ले-देकर कोयले या पानी से बिजली पैदा करने का विकल्प झंझट रहित लगता है। लेकिन समस्या यह है कि कोयला और पानी से जरूरत भर की पर्याप्त बिजली नहीं मिल पा रही है। इसलिए संभावना यही है कि कोयले से चलने वाले और बिजली घर स्थापित किए जाएंगे। ऐसे में इन बिजली घरों से निकलने वाले अपशिष्टों की समस्या उन क्षत्रों में भी बढ़ेगी, जहां अभी तक नहीं थी। ऐसे में आने वाले समय में कोयले से चलने वाले बिजली घर बड़ी समस्या के रूप में हमारे सामने आ सकते हैं।
सवाल है कि इन अपशिष्टों के निपटान का उपाय क्या हो? सरकार या गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) की नजर में यह समस्या भले न हो, लेकिन है यह एक बड़ी समस्या। भले ही आज इस पर गौर न किया जा रहा हो, लेकिन आने वाले वक्त में सरकार और पर्यावरणविदों को इस तरफ ध्यान देना ही होगा। और इससे पैदा होने वाली समस्या के निजात के लिए कोई ठोस समाधान खोजना ही होगा।
देश में कोयले से चलने वाले जितने भी बिजली घर हैं, उनसे वर्ष भर में कम से कम सौ करोड़ टन राख निकलती है। बिजली घरों के पास इसके निपटान के लिए न तो कोई सरकारी नियम व आदेश है, न बिजली घर के प्रबंधक इसके निपटान के लिए कोई विकल्प ही खोजते हैं। अखबारों में सार्वजनिक रूप से मुफ्त में इसे उठा ले जाने का विज्ञापन भले ही निकलता रहता है। जहां तक इसके उपयोग की बात है तो आमतौर पर कोयले की इस राख का थोड़ा उपयोग सीमेंट बनाने वाली कंपनिया करती हैं। कभी-कभार सड़क निर्माण के लिए इसका उपयोग कर लिया दाता है। पर यह उपयोग इतनी ज्यादा मात्रा में नहीं होता कि राख के निपटान की समस्या हल हो जाए।
इसलिए सवाल उठता है कि इसका उपयोग सही ढंग से कहां हो सकता है? सरकार भले ही इसे बेकार मान कर इस तरफ गौर न करे, लेकिन इसका उपयोग कोलतार की सड़क बनाने में बेहतर ढंग से किया जा सकता है। इतना ही नहीं, दूरदराज के गांवों में जहां पहुंचने के कोई साधन नहीं है, वहां इसका बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके अलावा, गड्ढों को पाटने में भी इसका बेहतर उपयोग किया जा सकता है। इससे जहां प्रदूषण की समस्या हल होगी, वहीं पर हजारों एकड़ भूमि, जो इस अपशिष्ट के कारण किसी काम में नहीं आ रही है काम में आने लगेगी। लेकिन इसके लिए सरकारी स्तर पर व्यापक पहल किए जाने की जरूरत है, जिसका कि अभाव दिखता है।