अरविंद कुमार मिश्रा

सामाजिक सुरक्षा की कोई भी कार्ययोजना श्रमिक, नियोक्ता, सरकार और श्रम संगठनों के एकजुट प्रयासों से ही संभव है। दुनिया भर में श्रमिक संगठन अपनी विचारधारा के आधार पर श्रम सुधार और निर्णयों को प्रभावित करते हैं। भारत में जी-20 के अंतर्गत आयोजित श्रम-20 में भारतीय और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठनों ने जिस प्रकार एकजुटता दिखाई, वह अच्छा संकेत है।

वैश्वीकरण के साथ सामाजिक सुरक्षा का प्रश्न अब किसी एक देश का मुद्दा नहीं रह गया है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित सत्रह सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा अनिवार्य शर्त है। सामाजिक सुरक्षा का स्तर गरीबी, असमानता, जातिगत और जेंडर भेद को समाप्त करने का सबसे अहम जरिया है। इसके जरिए औपचारिक क्षेत्र को संगठित कार्यबल में तब्दील किया जा सकता है।

भारत की अध्यक्षता में आयोजित जी-20 के वार्षिक सम्मेलन में सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा का मुद्दा चर्चा में है। इसके कार्यसमूह में श्रम-20 द्वारा पांच बड़े मुद्दों को उठाया गया है। पहला, श्रमिकों का अंतरराष्ट्रीय प्रवासन, दूसरा, असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा, तीसरा, कौशल प्रशिक्षण और कौशल उन्ययन (नियोक्ता की भूमिका और दायित्व), चौथा, कार्य का बदलता स्वरूप और पांचवां, टिकाऊ तथा सम्मानजनक आजीविकाओं को प्रोत्साहन।

ये पांचों मुद्दे सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा से जुड़े हैं। इसकी जरूरत को अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आइएलओ) द्वारा जारी विश्व सामाजिक सुरक्षा रिपोर्ट 2020-22 के तथ्यों से समझा जा सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक, विश्व में तिरपन फीसद आबादी सामाजिक सुरक्षा से वंचित है। छियालीस प्रतिशत लोग ही रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेंशन जैसी किसी एक सामाजिक सुरक्षा का लाभ हासिल कर पा रहे हैं।

18.6 प्रतिशत बेरोजागर युवकों को मुश्किल से बेरोजगारी भत्ता मिल पाता है। 26.4 प्रतिशत बच्चों को ही सामाजिक सुरक्षा की चादर नसीब है। गंभीर दिव्यांगता के शिकार सिर्फ 33.4 प्रतिशत लोग समाज की मुख्यधारा में शामिल हैं। आज भी छियालीस फीसद महिलाएं मातृत्व अवकाश से वंचित हैं। तैंतीस फीसद आबादी को स्वास्थ्य से जुड़ी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के दायरे में लाया जाना है। बाईस फीसद बुजुर्ग वृद्धावस्था पेंशन न मिलने से जीवन के अंतिम पड़ाव पर चुनौतियों से जूझते हैं।

दुनिया भर का पचासी फीसद कारोबार जी-20 देशों के बीच होता है, जबकि पैंसठ फीसद आबादी यहां रहती है। विश्व के कुल कार्यबल का इकसठ प्रतिशत हिस्सा असंगठित क्षेत्र में आता है। अफ्रीका में 85.8 फीसद रोजगार असंगठित क्षेत्र में हैं। एशिया और प्रशांत क्षेत्र में 68.6 और 68.6 फीसद अरब देशों में तथा अमेरिका में चालीस प्रतिशत और यूरोप में यह अनुपात 25.1 फीसद है।

सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा के स्तर को प्रभावी बनाकर असंगठित क्षेत्र को संगठित क्षेत्र में रूपांतरित करने में मदद मिलेगी। आइएलओ ने 1952 में हुए सम्मेलन के दौरान सामाजिक सुरक्षा के न्यूनतम नौ आधार बताए थे। इनमें स्वास्थ्य देखभाल, बीमारियों में बीमा लाभ, बेरोजगारी भत्ता, वृद्धावस्था पेंशन, कार्यस्थल पर मुआवजा, पारिवारिक सुरक्षा, मातृत्व लाभ, अशक्तता और उत्तरजीविता लाभ शामिल हैं।

2016 में विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने संयुक्त रूप से सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा पर काम करने का आह्वान किया। अगर जी-20 देशों के बीच सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा पर ठोस सहमति बनती है, तो प्रवासन से जुड़ी चुनौतियां का समाधान होगा। घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों ही प्रवासन की चुनौतियां अलग हैं। वर्तमान में अंतरराष्ट्रीय प्रवासी श्रमिकों को भविष्य निधि, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता है।

इन प्रवासी श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा योजना का लाभ देने के लिए तीन व्यवस्थाएं हो सकती हैं। दो देशों के बीच द्विपक्षीय करार हो, ब्रिक्स, बिम्सटेक और अफ्रीकी संघ इसे लागू करें, ठीक वैसे ही जैसे यूरोपीय यूनियन ने किया है। मगर यदि इसे वैश्विक आवरण देना है, तो जी-20 देशों के बीच बहुपक्षीय समझौता ठोस विकल्प होगा।

सामाजिक सुरक्षा की कोई भी कार्ययोजना श्रमिक, नियोक्ता, सरकार और श्रम संगठनों के एकजुट प्रयासों से ही संभव है। दुनिया भर में श्रमिक संगठन अपनी विचारधारा के आधार पर श्रम सुधार और निर्णयों को प्रभावित करते हैं। भारत में जी-20 के अंतर्गत आयोजित श्रम-20 में भारतीय और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठनों ने जिस प्रकार एकजुटता दिखाई, वह अच्छा संकेत है।

जी-20 के पिछले कुछ सम्मेलन श्रम जगत को लेकर प्रतिबद्धताएं जाहिर करने तक ही सीमित रहे हैं। 2020 में रोम घोषणा-पत्र में डिजिटल संसाधनों से श्रम क्षेत्र में सामाजिक सुरक्षा को गति देने का आह्वान किया गया, वहीं 2022 का बाली घोषणा-पत्र सामाजिक सुरक्षा पर केंद्रित लच्छेदार भाषणों तक सीमित रहा।

2015 में तुर्किए जी-20 सम्मेलन के दौरान ‘अंटाल्या यूथ गोल’ पर सहमति बनी। इसके अंतर्गत 2025 तक बेरोजगारी का दंश झेल रहे युवाओं के अनुपात में पंद्रह फीसद कटौती की जानी थी। हालांकि उस सम्मेलन के आठ साल बीत जाने के बाद जी-20 के वार्षिक सम्मेलनों में यह मुद्दा सिर्फ घोषणा-पत्र में उल्लेख किए जाने तक सीमित है।

सामाजिक सुरक्षा योजनाओं पर खर्च बढ़ाकर ही सतत विकास लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं। सबसे पहले इन योजनाओं को वित्त पोषण और संसाधन जुटाने के लिए घरेलू स्तर पर टिकाऊ वित्त की व्यवस्था खड़ी करनी चाहिए। भारत में सामाजिक सुरक्षा पर जीडीपी का लगभग 1.4 प्रतिशत व्यय होता है। इंडोनेशिया में यह 1.3 फीसद, दक्षिण अफ्रीका में 5.5, चीन में 7.7, ब्रिटेन में 15.1 और अमेरिका में 18.9 प्रतिशत है।

इसमें सार्वजनिक सामाजिक सुरक्षा व्यय में वैयक्तिक और परिवारों को मुहैया कराई जाने वाली सेवाओं और स्थानांतरण पर खर्च और सामूहिक सेवाओं पर व्यय शामिल है। सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा के लिए आवश्यक टिकाऊ वित्त व्यवस्था करने की अहम जिम्मेदारी जी-20 में शामिल जी-7 (अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान और ब्रिटेन) की भी है। इन देशों के पास दुनिया के सत्तासी फीसद आर्थिक संसाधन हैं।

भारत के लिए जी-20 का वर्तमान आयोजन वैश्विक दक्षिण की आवाज बनने का बड़ा मौका है। इससे आखिरकार वैश्विक उत्तर और वैश्विक दक्षिण के बीच आर्थिक असमानता की खाई कम होगी। अमेरिका में 64.3 फीसद, एशिया और प्रशांत क्षेत्र में 44, अरब देशों में 40, जबकि अफ्रीकी देशों में सिर्फ 17.4 प्रतिशत लोगों को कोई एक सामाजिक सुरक्षा हासिल है।

इथियोपिया के आदिस अबाबा में जी-20 सम्मेलन के दौरान सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए ‘इंटिग्रेटेड नेशनल फाइनेंस फ्रेमवर्क’ अस्तित्व में आया था। इसे व्यावहारिक रूप से अब तक लागू नहीं किया जा सका है। सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा ऐसी हो, जो आर्थिक रूप से हर व्यक्ति के लिए सुलभ हो, वहीं यह वहनीय हो। इससे क्षेत्रीय असमानता भी दूर होगी। आर्थिक महाशक्तियों में भी सामाजिक सुरक्षा का दायरा बहुत बेहतर नहीं है। यूरोप और मध्य एशिया में सामाजिक सशक्तिकरण पर आधारित योजनाएं सरकार प्रायोजित पहल में सिमटी हैं।

भारत में जनधन, आधार और मोबाइल (जेएएम) के जरिए सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को नई ऊंचाई दी जा रही है। आधार के जरिए 318 केंद्रीय योजनाओं और राज्यों की 720 योजनाएं संबद्ध हैं। यह नकद हस्तांतरण योजना को सफल बनाने में सबसे कारगर जरिया बनी है। 2022-23 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक 135.2 करोड़ आधार नंबर जारी किए जा चुके हैं।

इनमें 75.3 करोड़ नागरिकों तक राशन मुहैया कराने और 27.9 करोड़ उपभोक्ताओं तक एलपीजी सिलेंडर पहुंचाने में आधार पहचान-पत्र के रूप में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। इसी तरह 75.4 करोड़ बैंक खाते आधार से जोड़े जा चुके हैं। दुनिया की सबसे बड़ी रोजगार गारंटी योजना मनरेगा आर्थिक और सामाजिक सशक्तिकरण का बड़ा जरिया बनी है।

इसके शहरी संस्करण पर भी विचार होना चाहिए। भारत में अस्सी फीसद लोग असंगठित क्षेत्र में हैं। आइएलओ के मुताबिक देश की 24.4 प्रतिशत आबादी सामाजिक सुरक्षा के दायरे में है। समग्र रूप से कहें तो सामाजिक संरक्षण पर जितना अधिक खर्च होगा, गरीबी का स्तर उतना ही निम्न होता चला जाएगा।