ज्योति सिडाना
समाज या देश का समग्र विकास प्रत्येक नागरिक को प्राप्त समान अवसरों पर निर्भर करता है, चाहे शिक्षा हो, राजनीति, स्वास्थ्य, संसाधन, आर्थिक संपन्नता या कुछ और। असमानता में वृद्धि अनेक सामाजिक समस्याओं में वृद्धि के लिए जिम्मेदार है, जैसे निर्धनता, बेरोजगारी, अपराध, पारिवारिक तनाव आदि। इसलिए इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाए जाने की आवश्यकता है।
फ्रांसीसी अर्थशास्त्री थामस पिकेटी ने अपनी पुस्तक कैपिटल ऐंड आइडियोलाजी में सहभागी समाजवाद की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए कहा कि अर्थव्यवस्था में भाग लेने की शक्ति हर किसी के पास है। वह यह भी तर्क देते हैं कि श्रमिकों को अपनी कंपनियों के संचालन में अधिक सहभागिता करने में सक्षम होना चाहिए, चाहे उनका पूंजी में हिस्सा हो या नहीं। पर हम एक ऐसे विश्व में रहते हैं, जहां नीचे की आधी आबादी को विरासत में कोई संपत्ति नहीं मिलती, जबकि कुछ आबादी को लाखों या अरबों की संपत्ति मिलती है। इतिहास साक्षी है कि आर्थिक समृद्धि के लिए शिक्षा में निवेश और असमानताओं में कमी करना महत्त्वपूर्ण कदम हैं। ऐसे किसी भी देश/ समाज में जहां धन, संसाधन और शक्ति का असमान वितरण हो, वहां से संस्थागत असमानता को मिटाने के लिए आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता होती है। भारत जैसे देश में तो यह और भी जटिल हो जाता है, जहां जाति, धर्म, भाषा, लैंगिक, क्षेत्रीय असमानता पहले से ही व्याप्त है।
दिसंबर में जारी विश्व असमानता रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत एक गरीब और असमानताओं वाला देश है। इस रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया है कि देश की आय बेहद निचले स्तर पर पहुंच गई है। एक तरफ भारत में शीर्ष दस फीसद आबादी के पास राष्ट्रीय आय का सत्तावन फीसद है, निचले पचास प्रतिशत वर्ग के पास केवल तेरह फीसद हिस्सेदारी है और चालीस प्रतिशत आबादी या कहें कि मध्यवर्ग के पास कुल आय का साढ़े उनतीस प्रतिशत है। अकेले एक प्रतिशत अमीरों की आय देश की कुल आय के बाईस प्रतिशत के बराबर है। इतनी अधिक आर्थिक असमानता समाज में अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक समस्याएं उत्पन्न करती है। जब तक विकास का माडल शिक्षा, स्वास्थ्य और संसाधनों के पुनर्वितरण पर केंद्रित नहीं होगा, तब तक गैर-बराबरी को समाप्त या कम करना असंभव है।
रिपोर्ट में यह संकेत भी है कि भारत में महिला श्रमिकों की आय का हिस्सा मात्र अठारह प्रतिशत है। यह एक तथ्य है कि समानता, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में निवेश करके ही देश को समृद्ध बनाया जा सकता है, न कि कुछ व्यक्तियों के हाथ में आर्थिक शक्ति केंद्रित होने देकर। इस रिपोर्ट को तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अर्थशास्त्री थामस पिकेटी तर्क देते हैं कि निजी संपत्ति और बाजार शक्तियों का अधिक से अधिक उपयोग विकास प्रारूप और अर्थव्यवस्था को समृद्ध करने में सहायक हो सकता है। उनका दावा है कि भारत के लिए उद्योग जगत को करों में छूट देना काफी नहीं है, बल्कि कोरोना महामारी के कारण उपजे आर्थिक संकट से निपटने के लिए गरीब परिवारों को आय की गारंटी देनी होगी। साथ ही सरकार को सार्वजनिक अधोसंरचना में भी निवेश करना होगा। जबकि हर नागरिक विकास में योगदान करने की क्षमता रखता है, तो फिर क्यों न उसकी क्षमता का उपयोग किया जाए। अगर हम ऐसा कर पाए तो भारत को दुनिया में सबसे अधिक असमानता वाले देशों की सूची से बाहर निकालने के प्रयास में सफल हो सकते हैं।
सवाल है कि यह गैर-बराबरी प्रकृति प्रदत्त है या मानव निर्मित? और यह गैर-बराबरी क्यों और किसलिए है? अगर गैर-बराबरी विकास के लिए जरूरी है तो कई दशकों से असमानता का सामना कर रहे देशों को तो अब तक विकसित देशों की सूची में शामिल हो जाना चाहिए था! यह एक तथ्य है कि असमानता कभी विकास की पूर्व शर्त नहीं हो सकती। जैसे एक मनुष्य शरीर और मस्तिष्क दोनों के साथ जन्म लेता है, दोनों का साथ-साथ विकसित होना प्रकृति का नियम है। दोनों में से एक भी भाग के कम या अधिक विकसित होने पर उसे असामान्य व्यक्तित्व की श्रेणी में रख दिया जाता है।
यानी शरीर तो विकसित हो गया, पर दिमाग नहीं या दिमाग तो विकसित हो गया पर शरीर वहीं ठहर गया, तो भी समाज उन्हें अविकसित/ असामान्य के रूप में देखता है। इसी तरह समाज या देश का समग्र विकास प्रत्येक नागरिक को प्राप्त समान अवसरों पर निर्भर करता है। चाहे शिक्षा हो, राजनीति, स्वास्थ्य, संसाधन, आर्थिक संपन्नता या कुछ और। अगर ऐसा नहीं होता और केवल कुछ लोगों की संपन्नता या विकास पर ही देश का विकास निर्भर करता, तो विश्व असमानता रिपोर्ट या मानव विकास सूचकांक में हमारा स्थान इतना नीचे नहीं होता। केवल दस फीसद अमीर लोगों को ध्यान में रख कर विकास सूचकांक तय कर दिया जाता। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि असमानता में वृद्धि अनेक सामाजिक समस्याओं में वृद्धि के लिए जिम्मेदार है, जैसे निर्धनता, बेरोजगारी, अपराध, पारिवारिक तनाव आदि। इसलिए इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाए जाने की आवश्यकता है।
समाज वैज्ञानिक पीटर सांडर्स का मत है कि कोई भी समाज कभी पूर्णरूपेण समाजवादी नहीं हो सकता, पर प्रत्येक समाज कुछ ऐसी व्यवस्थाएं विकसित कर सकता है, जिससे सभी समूहों को कुछ लाभ प्राप्त हो। सांडर्स इस दृष्टि से तीन प्रकार की समानताओं की चर्चा करते हैं। पहली औपचारिक या विधिक समानता यानी समाज का प्रत्येक सदस्य समान प्रकार के कानून से निर्देशित हो। दूसरा, अवसरों की समानता यानी प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर प्राप्त हों, वह अन्य लोगों से प्रतियोगिता कर सके, सफल हो सके। तीसरा, परिणामों की समानता यानी अगर प्रत्येक को अपने को सिद्ध करने का समान अवसर प्राप्त हो, तो आगे चल कर इसके परिणाम समाज में समान प्रकार के आने लगेंगे। उनके इस तर्क से सहमत हुआ जा सकता है कि ऐसा करके कुछ हद तक एक सममूलक समाज की स्थापना की जा सकती है।
वे यह तर्क भी देते हैं कि शासक वर्ग का एक बहुत बड़ा हिस्सा पूंजी के निजी स्वामित्व के आधार पर अस्तित्व में आया है। इसके साथ ही सफेदपोश श्रमिकों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। किसी भी समाज में धन की असमानता का एक महत्त्वपूर्ण कारण शासक वर्ग की शक्ति है। और यह वर्ग पांच से लेकर दस प्रतिशत तक किसी भी समाज में पाया जाता है। यह भी सच है कि शासक वर्ग के अनेक सदस्य अपनी संपत्ति को अपने परिजनों या मित्रों को हस्तांतरित कर देते हैं और इस प्रकार यह संपत्ति एक समूह विशेष का एकाधिकार बन जाती है। जबकि अधीनस्थ वर्ग में मजदूरी और वेतन प्राप्त करने वाली जनसंख्या सम्मिलित होती है। एक बड़ा समूह मध्यवर्ग के रूप में भी उभरा, जो अपने वेतन के एक बड़े हिस्से को बाजार में लगा कर लाभ प्राप्त करने की कोशिश करता है। इस तरह संपत्ति और शक्ति की असमानता का यह दुष्चक्र निरंतर बना रहता है। साथ ही लोकतांत्रिक मूल्यों के ह्रास की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। जब लोकतंत्र को चुनौती मिलती है, तो किस तरह का समाज उभरता है, यह आज के परिप्रेक्ष्य को देख कर समझा जा सकता है।
हालांकि आंकड़े मात्रात्मक परिणामों को व्यक्त करते हैं, गुणात्मक विश्लेषण नहीं करते। यानी औसत आधार पर आंकड़े दिए जाते हैं और औसत के आधार पर किसी भी प्रकार के विकास की सही तस्वीर प्राप्त नहीं की जा सकती, क्योंकि आंकड़ों के आधार पर ही नागरिकों के कल्याण के लिए नीतियां बनाई जाती हैं। पर अगर आंकड़े ही भ्रामक हों, तो नीतियों की सफलता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। इसलिए समाज में बढ़ती असमानता को कम करने की दिशा में राज्य, अर्थशास्त्रियों और बौद्धिक वर्ग को कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए, जो वास्तव में एक न्यायसंगत और बराबरी के समाज को मूर्त रूप दे सके।