जगमोहन सिंह राजपूत

चेन्नई और मुंबई का नियतकालीन जल-प्लावन और दिल्ली की जहरीली हवा सरकारों के समक्ष ऐसी चुनौती है, जिसका समाधान कर पाने की लगन न तो राजनेताओं के पास है और न ही क्रियान्वयन के उत्तरदायी नौकरशाहों ने अपेक्षित क्षमता अभी तक दिखाई है। लेकिन समाधान तो निकालना ही पड़ेगा, उत्तरदायित्व स्पष्ट रूप से निर्धारित करने होंगे और अपनी जिम्मेवारी अन्य पर टालने को अस्वीकार्य अक्षमता मानना होगा।

सांस लेने का कोई विकल्प किसी के पास उपलब्ध नहीं है। मीडिया में लगभग प्रतिदिन दोहराया जाता है कि दिल्ली की हवा खतरनाक स्तर तक प्रदूषित है, जहरीली है। यह कुछ इस प्रकार से प्रस्तुत होता है कि जैसे अन्य शहरों में ऐसी कोई समस्या हो ही नहीं। विश्व के सबसे अधिक प्रदूषित पहले दस शहरों में दिल्ली सबसे ऊपर है, कोलकता चौथे और मुंबई छठे स्थान पर है। अभी कुछ दिन पहले ही गाजियाबाद की हवा दिल्ली से अधिक जहरीली आंकी गई थी। कई वर्षों से दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में प्रदूषण को लेकर आरोप-प्रत्यारोप दोहराए जाते हैं, आपातकालीन बैठकें होने लगती हैं, मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंच जाता है। यह सब ठीक वैसे लगता है जैसे किसी नाटक का साल भर बाद पुन: मंचन हो रहा हो, जिसमें सभी अपनी-अपनी पुरानी भूमिका पूरी निष्ठा से दोहरा रहे हों!

सर्वोच्च न्यायालय डांट-फटकार के अतिरिक्त ऐसा कुछ नहीं कर पा रहा, जिससे सरकारें और नौकरशाह अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व को गंभीरता से स्वीकार करें और उनका निष्पादन करें। कई साल से सुना जा रहा है कि पराली का सदुपयोग करने के लिए मशीनें किसानों के पास पहुंचने वाली हैं, मगर अभी तक नहीं पहुंची हैं। दिल्ली सरकार ने एक ऐसे कष्ट-निवारक घोल का जम कर प्रचार किया, जिसे पराली पर छिड़कने मात्र से वह खाद में परिवर्तित हो जाती है। न मशीनों का प्रभाव दिखाई दिया, न ही वह बहुप्रचारित घोल- बायो डिकंपोजर।

सर्वोच्च न्यायालय तक को यह कहना पड़ा है कि नौकरशाही चाहती है कि अदालत निर्णय करे, और वही उसे क्रियान्वित करे! माननीय न्यायाधीशों की पीठ ने यह भी कहा कि टेलीविजन की बहसें अधिक प्रदूषण फैला रही हैं, हर किसी का अपना एजेंडा होता है। और इसी कारण विभिन्न सरकारें और पर्यावरण संरक्षण के विभिन्न पक्षों से जुड़ी संस्थाएं आपस में एक जीवंत कार्यकारी संवाद स्थापित नहीं कर पाती हैं। वर्तमान स्थिति यह है कि दिल्ली के वायु प्रदूषण के लिए कोई जिम्मेवार नहीं है।

यह निर्विवाद तथ्य है कि मनुष्य की नैसर्गिक प्रवृत्ति अपनी भावी पीढ़ी को अपने से अच्छा भविष्य देने की होती है। कितने वर्षों से नन्हे बच्चे जहरीली हवा में सांस लेने को विवश हैं। अपेक्षा तो यही है कि हर सरकार, संस्था और समाज के सक्षम व्यक्ति आगे बढ़ कर अपनी पूर्ण क्षमता से प्रदूषण रोकने में अपनी भूमिका का निर्वाह ईमानदारी से करें। प्रजातंत्र में विकास और प्रगति की परियोजनाएं सफल क्रियान्वयन की संभावना पर ही रची जाती हैं, और हर स्तर पर सहयोग और संवाद से ही उनके सफल क्रियान्वयन की अपेक्षा की जाती है। इस समय स्थिति यह है कि नीति निर्धारण से लेकर क्रियान्वयन करने वाले भी बिना किसी अपवाद के स्वयं भी अन्य की भांति जहरीली हवा में सांस ले रहे हैं। यह सफल तभी होगा जब समेकित प्रयासों में भागीदारी करने वाले सभी लोग अपना नैतिक उत्तरदायित्व निर्वाह करने की क्षमता से युक्त हों।

इससे बड़ी आवश्यकता यह होगी कि इसमें उत्तरदायित्व निर्वहन को चुनावों से जोड़ कर न देखा जाए, जो आज के वातावरण में अत्यंत कठिन है, किन यह असंभव नहीं है, क्योंकि इन प्रयासों में शिथिलता कोई कैसे कर सकता है, जब वह स्वयं और उसका परिवार भी इससे पीड़ित है। इस समय उस सिविल सोसाइटी- सभ्य समाज- की आवश्यकता है, जो बिना किसी वैचारिक/ राजनीतिक प्रतिबद्धता के सामाजिक उत्तरदायित्व और नैतिक आचरण को बड़े पैमाने पर प्रेरित कर सके। दुर्भाग्य से ऐसा कोई वर्ग उपस्थित नहीं है। अगर प्रबुद्ध वर्ग इस प्रकार के विकल्प पर विमर्श नहीं करेगा, तो निश्चिंत रहें, अगले वर्ष फिर से पूरी प्रक्रिया का पुनर्मंचन होगा।

जहरीली हवा में दिल्लीवासियों तथा अनेक अन्य शहरों के रहवासियों को साल-दर-साल रहने को मजबूर होना व्यवस्था की शिथिल कार्य संस्कृति, सामजिक उत्तरदायित्व अवहेलना और मानवीय मूल्यों को आत्मसात न कर पाने को ही मानना होगा। इक्कीसवीं सदी में परिवर्तन की तेजी से सभी नागरिक तथा जनहित में सक्रिय सरकारें भली भांति परिचित हैं। जिनके पास दूरदृष्टि है, वही अपनी गतिशीलता बनाए रख पाते हैं और समय के साथ चल सकते हैं। यह भी स्पष्ट है कि सच्चे प्रजातंत्र में राष्ट्रहित के ऐसे अनेक कार्य होंगे, जिन पर राजनीति को अलग रख कर केवल जनहित को प्राथमिकता देनी होगी। जहरीली हवा के प्रकरण में यह सभी को पिछले साल से ही ज्ञात था कि 2021 के अक्तूबर-नवम्बर में विकट स्थिति पुन: एक बार बनेगी, मगर सितंबर-अक्तूबर तक भी कोई सक्रियता दिखाई नहीं दी।

हर पक्ष के पास गिनाने को अनेक उपलब्धियां थीं, जो वास्तव में केवल कागजों पर थीं। एक स्मोग टावर को श्रेष्ठ उपलब्धि मान कर प्रचारित किया गया, मगर कोई आगे आकर यह नहीं बता सका कि उससे क्या फायदा हुआ? और अगर हुआ, तो आगे उस तकनीक का कितना उपयोग होगा? पराली के स्वीकृत उपयोग के लिए मशीनों पर अस्सी प्रतिशत सबसिडी केंद्र सरकार देती है तथा बीस प्रतिशत पंचायत से अपेक्षित है। राज्य सरकारें अगर ईमानदारी से चाहतीं, तो उचित संख्या में किसानों पर अतिरिक्त खर्च का बोझ न डालते हुए अपेक्षित संख्या में ये मशीनें उपलब्ध करा सकती थीं।

लेकिन निष्क्रियता, उदासीनत और ‘चलता है’ की संस्कृति में यह नहीं हो सका। ऐसे कोई आसार दिखाई नहीं देते हैं कि अगले साल तक इस समस्या का समाधान हो जाएगा। चेन्नई और मुंबई का नियतकालीन जल-प्लावन और दिल्ली की जहरीली हवा सरकारों के समक्ष ऐसी चुनौती है, जिसका समाधान कर पाने की लगन न तो राजनेताओं के पास है और न ही क्रियान्वयन के उत्तरदायी नौकरशाहों ने अपेक्षित क्षमता अभी तक दिखाई है। लेकिन समाधान तो निकालना ही पड़ेगा, उत्तरदायित्व स्पष्ट रूप से निर्धारित करने होंगे और अपनी जिम्मेवारी अन्य पर टालने को अस्वीकार्य अक्षमता मानना होगा।

वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन वैश्विक समस्याएं बन चुके हैं। विश्व भर में सरकारों और स्वयंसेवी संस्थाओं ने इन दोनों क्षेत्रों में समग्र रूप से अनेक कार्य किए, कदम उठाए, उपलब्धियां अनेक हैं, लेकिन संमस्याओं के परिमाण अब भी चिंता बढ़ा रहे हैं। आज से पचास साल पहले पर्यावरण को लेकर 5-16 जून, 1972 में स्टाकहोम में पहला अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन हुआ था। जलवायु परिवर्तन पर पहला विश्व सम्मलेन 12-23 फरवरी, 1979 को जिनेवा में आयोजित हुआ था। भारत इनमें महत्त्वपूर्ण भागीदार रहा है। देश के पास अपेक्षित बौद्धिक संपदा, विशेषज्ञता और संसाधन उपलब्ध हैं। दुर्भाग्य से तिबद्धता, पारदर्शिता और उत्तरदायित्व के प्रति पूर्ण समर्पण की कार्य संस्कृति की कमी है। इसके लिए सेवाकालीन प्रशिक्षण का सहारा लेना होगा।

दीर्घकालीन दृष्टि विकसित करने के लिए शिक्षा का सहारा लेना होगा, क्योंकि व्यक्ति निर्माण और चरित्र निर्माण का आधार वहीं पर पनपता और स्वरूप लेता है।13 जुलाई, 2004 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक निर्णय दिया था कि कक्षा एक से बारह तक पर्यावरण शिक्षा को अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाए। इसके लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर एनसीइआरटी ने पाठ्यक्रम की रूपरेखा मार्च, 2004 को न्यायालय को प्रस्तुत की थी। यह सभी राज्यों को भेजी गई तथा प्रत्येक राज्य सरकार ने उसे स्वीकृति प्रदान की, लेकिन मई, 2004 में केंद्र में सरकार बदलने के बाद इसे लागू नहीं किया गया। अगर किया गया होता तो आज युवाओं की एक ऐसी पीढ़ी शासन-प्रशासन चला रही होती, जो पर्यावरण प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के सभी पक्षों की समझ के साथ कार्य कर रही होती। नई शिक्षा नीति-2020 के आधार पर जो नया पाठ्यक्रम बनने वाला है, उसके निर्माण के समय इस तथ्य पर ध्यान देना उपयोगी रहेगा।