भारत में उत्तराखंड, झारखंड, कर्नाटक जैसे कुछ राज्यों में वन संरक्षण के लिए सामूहिक और व्यक्तिगत रूप से प्रयास किए गए और उनमें सफलता भी मिली। लेकिन जिन वजहों से जंगलों की अंधाधुंध कटाई जारी है, उन्हें खत्म नहीं किया जा सका है। वन संरक्षण को लेकर यही बड़ी मुश्किल है।

ग्लासगो में हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में प्रतिभागी देशों ने वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी से निपटने के लिए 2030 तक जंगलों की अंधाधुंध कटाई रोकने का संकल्प किया है। इसके लिए एक सौ पांच देशों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर भी किए। गौरतलब है कि टिकाऊ विकास और समावेशी ग्रामीण बदलाव को प्रोत्साहन देने पर खुल कर चर्चाएं हुर्इं। लेकिन अब तक जो देखने में आया है, उससे तो सवाल यही खड़ा होता है कि विकसित देशों का ढुलमुल और गैरजिम्मेदाराना रवैया क्या पहले की तरह बरकरार रहेगा या वे पर्यावरण के हित में जंगल और जनसामान्य के बेहतर जीवनयापन पर अपनी सोच में बदलाव करने पर विचार करेंगे?

वनों की कटाई और ग्रामीण समावेशी विकास पर जो चर्चाएं हुर्इं हैं और ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ती समस्या से निपटने के लिए जो समझौते हुए हैं, वे इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि इस समझौते में ब्राजील, इंडोनेशिया और कांगो शामिल हैं जो दुनिया के वन्यजीव संपन्न उष्णकटिबंधीय वनों के घर हैं। गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन के सबसे महत्त्वपूर्ण कारणों में जीवाश्म र्इंधन के इस्तेमाल बाद जंगलों की कटाई जिम्मेदार कारक है। द फारेस्ट स्टीवर्डशिप काउंसिल (एफएससी) के मुताबिक बुनियादी रूप से दुनिया के जंगल किसी राजनीतिक घोषणापत्र से नहीं बचाए जा सकते। अपनी आय और जीविका के लिए जंगलों पर निर्भर लोगों के समक्ष वन सुरक्षा और टिकाऊ वन प्रबंधन को आर्थिक रूप से समाधान के रूप में प्रस्तुत करना होगा।

जंगलों की अंधाधुंध कटाई की रफ्तार कितनी तेज है, इसे संयुक्त राष्ट्र की चिंताओं से भी समझा जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार 1990 के बाद से बयालीस करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र के (एक अरब एकड़) जंगल नष्ट हो गए। इसका मुख्य कारण खाद्यान्नों की बढ़ती मांग के मद्देनजर कृषि का विस्तार बताया गया। गौरतलब है 2014 में संयुक्त राष्ट्र ने 2020 तक वनों की कटाई रोकने का काम घटा कर आधा कर देने और 2030 तक इसे पूरी तरह बंद कर देने के लिए एक समझौते की घोषणा की थी। इसके बाद 2017 में सन 2030 तक वनाच्छादित भूमि को तीन फीसद बढ़ाने का एक और लक्ष्य निर्धारित किया था। लेकिन इस समझौते के बावजूद वनों की अंधाधुंध कटाई को लेकर किसी ने कोई कदम नहीं उठाया।

एक आंकड़े के अनुसार हर दशक के हिसाब से जंगल का औसत क्षेत्र नष्ट हो रहा है। 1990 से 2000 के मध्य जहां अठहत्तर लाख हेक्टेयर क्षेत्र में जंगल नष्ट हुए, वहीं 2000-2010 के दशक में बावन लाख हेक्टेयर जंगल साफ हो गए थे। इसी तरह 2010 से 2020 के बीच सैंतालीस लाख हेक्टेयर क्षेत्र के जंगल नष्ट हुए। वर्ष 2002 से 2020 के बीच सबसे अधिक दो करोड़ बासठ लाख हेक्टेयर क्षेत्र के जंगल तो ब्राजील में उजड़े। इंडोनेशिया में सनतानवे लाख हेक्टेयर जंगल हमेशा के लिए साफ हो गए। छोटे से देश कांगो में तिरपन लाख हेक्टेयर जंगल खत्म कर दिए गए। इसी तरह दक्षिण अमेरिकी देश बोलीविया के तीस लाख हेक्टेयर भूमि में फैले वन विकास की भेंट चढ़ गए।

जंगलों की अंधाधुंध कटाई का कारण महज कृषि क्षेत्र का विस्तार नहीं है, बल्कि खनन संबंधी गतिविधियां भी बड़ा कारण हैं। गौरतलब है कि वनों की कटाई के पीछे एक बड़ा कारण कृषि गतिविधियों का विस्तार है, क्योंकि बढ़ती आबादी के लिए खाद्य जरूरतों की मांग तेजी से बढ़ रही है। सोयाबीन और पाम तेल जैसी वस्तुओं के उत्पादन के लिए वनों की कटाई खतरनाक दर से बढ़ रही है। इसलिए यह सवाल उठना लाजिमी है कि ग्लासगो सम्मेलन में वनों की कटाई को रोकने पर खास तवज्जो तो दी गई है, लेकिन जिन कारणों से वन काटे जा रहे हैं उन कारणों को दूर किए बगैर क्या वनों की कटाई रोक पाना संभव है?

क्या ब्राजील और इंडोनेशिया सहित दूसरे सभी देश जहां जंगलों की अंधाधुंध कटाई होती रही है, उन देशों की सरकारें जंगल और वन्य जीव सुरक्षा के मानक ईमानदारी से तय कर पाएंगी? ग्लासगो में वन कटाई रोकने के लिए जो समझौता हुआ है, उसके लिए पैसा जुटाना एक बड़ा मुद्दा है। अभी महज उन्नीस अरब डालर आए हैं। गौरतलब है कि जलवायु वार्ताओं में पचास वनाच्छादित उष्णकटिबंधीय देशों का प्रतिनिधित्व करने वाले वर्षा वन वाले देशों का गठबंधन (द कोलिएशन आफ रेनफारेस्ट नेशंस) का मानना है कि इस समझौते को बनाए रखने के लिए अगले एक दशक में अतिरिक्त सौ अरब डालर हर साल लगेंगे। यानी अभी और अधिक पैसे की जरूरत है।

दरअसल, वनों संक्षरण को लेकर दुनिया में कोई ऐसा आंदोलन खड़ा नहीं हुआ है जो आमजन और सरकारों को वनों की कटाई रोकने के लिए विवश करता हो। भारत सहित दुनिया के कुछ ही देशों में वन कटाई को रोकने के लिए समय-समय पर आंचलिक आंदोलन चलाए गए। भारत में उत्तराखंड, झारखंड, कर्नाटक जैसे कुछ राज्यों में वन संरक्षण के लिए सामूहिक और व्यक्तिगत रूप से प्रयास किए गए और उनमें सफलता भी मिली। लेकिन जिन वजहों से जंगलों की अंधाधुंध कटाई जारी है, उन्हें खत्म नहीं किया जा सका है। वन संरक्षण को लेकर यही बड़ी मुश्किल है। यह समझना होगा कि विकासशील देशों के लिए जंगल एक महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन हैं।

वनों की कटाई से वनभूमि की कमी ही नहीं हो रही, बल्कि जैविक विविधता भी धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। महत्त्वपूर्ण वनस्पतियों, औषधियों व जीव-जंतुओं के लुप्त होने का खतरा तेजी से बढ़ रहा है। ग्लासगो में वन कटाई को लेकर जो समझौता हुआ है, वैसा ही समझौता 2014 में न्यूयार्क घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने वाले चालीस देशों ने किया था। इसके अनुसार 2020 तक जंगलों की कटाई को पचास फीसद तक रोकना था। लेकिन इस पर अमल ही नहीं किया गया। ग्लासगो सम्मेलन में हुए समझौते पर इंडोनेशिया के राष्ट्रपति के बयान में कहा गया कि कार्बन उत्सर्जन या जंगलों की कटाई के नाम पर जारी विकास रुकना नहीं चाहिए। निश्चित ही ऐसे बयानों से वनों की कटाई पर रोक लगाने में मदद नहीं मिलेगी और इससे घोषणापत्र में प्रदर्शित सामूहिक इच्छाशक्ति के पालन में कमजोरी आएगी।

भारत ने इस घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करके यह बता दिया है कि वह वनों की कटाई रोकने के लिए प्रतिबद्ध तो है ही, साथ ही वन क्षेत्र की सुरक्षा को लेकर भी उसकी ईमानदार सोच है। लेकिन इतने भर से बात नहीं बनने वाली। भारत में जिस तेजी से वनस्पतियां विलुप्त हो रही हैं, उससे लगता नहीं कि केंद्र सरकार कुछ कानूनों के जरिए भी उनकी पुख्ता सुरक्षा सुनिश्चित कर पाएगी। गौरतलब है जंगलों की कटाई और इसी से जुड़ा वन्य जीवों और वनस्पतियों के लुप्त होने का मुद्दा कोई सामान्य बात नहीं है।

यह जैविक विविधता, औषध सुरक्षा, वन्य जीव सुरक्षा, पर्यावरण और संस्कृति की रक्षा-सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा है। इसलिए जंगलों को बचाने ते लिए भारत सहित उन सभी देशों को तत्काल ऐसे ठोस कदम उठाने होंगे जिससे पर्यावरण, जैव विविधता, औषध सुरक्षा और जीव-जंतुओं की सुरक्षा हर हाल में सुनिश्चित हो सके। इससे जहां कार्बन उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन से बढ़ रही खतरनाक समस्याओं का हल खोजने में मदद मिलेगी, वहीं वनों के सहारे जीवनयापन करने वाले लोगों की भी सुरक्षा हो सकेगी। जरूरत इस बात की है कि विश्व स्तर पर जितनी मजबूती के साथ सरकारें वन सुरक्षा के लिए कदम उठाती हैं, उतनी ही जिम्मेदारी से जिम्मेदार नागरिकों को आगे आना होगा। तभी जगल बच पाएंगे।