विलंब से मिला न्याय किसी अन्याय से कमतर नहीं होता। सवा अरब से भी ज्यादा आबादी वाले हमारे देश में न्याय की प्रतीक्षा में पीढ़ियां गुजरती जाती हैं, लेकिन फरियाद पर तारीखें दर्ज होने के अलावा और कुछ नहीं होता। कहीं पक्षकार को कानून की जानकारी नहीं होती, तो कहीं उसकी फटेहाली उसे न्याय पाने से वंचित कर देती है। हाल में केंद्र सरकार ने न्याय सबके लिए जैसे अपने संकल्प को साकार करने की दिशा में एक कारगर कदम उठाया है। इसके तहत देश के हर आमजन को विभिन्न कानूनों की मुकम्मल जानकारी देने और न्याय दिलाने की कवायद शुरू की गई है। कानून मंत्रालय ने टीवी पर जागरूकता फिल्में दिखा कर आमजन को उनके कानूनी अधिकार से वाकिफ कराने और न्याय की ड्योढ़ी पर पहुंचाने का संकल्प जताया है।

दरअसल, केंद्र सरकार की मंशा है कि वंचित वर्ग कानून की बारीकियों को समझे, अपने अधिकारों को जाने और न्याय तक उसकी पहुंच भी सुनिश्चित हो। कानून मंत्रालय के न्याय विभाग का ‘डिजिटल लीगल लिटरेसी’ कार्यक्रम इसी मुहिम का एक हिस्सा है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के उच्च शिक्षा विभाग द्वारा स्वयंप्रभा परियोजना के तहत चलाए जा रहे विभिन्न शैक्षिक चैनलों में से एक चैनल पर तीस मिनट का समय कानून मंत्रालय को आबंटित किया गया है, जहां वह कानूनी जागरूकता संबंधी लघु फिल्में प्रसारित करने के साथ-साथ विशेषज्ञों की परिचर्चा भी आयोजित करेगा।

गौरतलब है कि हमारी न्यायिक व्यवस्था में व्याप्त विभिन्न खामियां गरीब, बेसहारा पीड़ित पक्ष को अंतिम समय तक हलकान किए रहती हैं। तारीख-दर-तारीख, समन-दर-समन और ऐसी तमाम कार्यवाहियां-प्रक्रियाएं साधनहीन-निर्धन वादी को हतोत्साहित करती जाती हैं और न्याय व्यवस्था के प्रति उसका भरोसा टूटता जाता है। हर पेशी पर मुंशी, वकील, पेशकार जैसी ड्योढ़ियां जैसे-जैसे तय होती हैं, वैसे-वैसे जेब खाली होती जाती है और शाम ढले जब वादी थका-हारा घर लौटता है, तो उसके पास अगली तारीख लिखी पर्ची और निराशा के अलावा कुछ नहीं होता।

मुकदमा कायम कराने वाला अपने जीवन में उसका अंतिम फैसला देख ले, तो बड़े भाग्य की बात समझी जाती है। वरना उस मुकदमे को पोते-पड़पोते ही निर्णीत करा पाते हैं अथवा वे भी लड़ते रहते हैं और वह पारिवारिक विरासत बन जाता है। जनवरी, 2017 में दिल्ली की तीस हजारी अदालत ने पारिवारिक संपत्ति विवाद के एक मामले में अपना उल्लेखनीय फैसला सुनाया। 1968 से लंबित इस मामले में अतिरिक्त जिला जज कामिनी लॉ ने व्यवस्था दी कि संबंधित पक्ष तीन भवनों के बारे में आपसी सहमति के आधार पर किसी नतीजे पर पहुंचें अथवा उन्हें बेच कर आपस में पैसों का बंटवारा कर लें। इस मामले में तीन पीढ़ियों के अट्ठावन सदस्य पक्षकार बन चुके थे।

बचपन में बुजुर्गों से अक्सर सुनता था कि भगवान, दुश्मन को भी कचहरी और अस्पताल का मुंह न दिखाएं। असल में मुकदमा हमेशा मुवक्किल यानी वादी-प्रतिवादी ही लड़ता है, जीतता-हारता है, वकील नहीं। वकील तो सिर्फ उसे निचोड़ता रहता है, तारीख-दर-तारीख। वह तारीख लेता रहता है और अक्सर उसमें भी गफलत पैदा करता है। वकील कभी नहीं चाहता कि मुकदमे का अंत हो। वह चाहता है कि मुकदमा चलता रहे तब तक, जब तक उसकी या मुवक्किल की जिंदगी चलती रहे। वादी-प्रतिवादी यानी पक्षकार अगर नौकरीपेशा है, हर तारीख पर नहीं पहुंच सकता, मुकदमा नहीं देख सकता, तो उसे भगवान भी मुकदमा नहीं जिता सकते, न्याय नहीं दिला सकते। यह सिर्फ वकीलों का नहीं, बल्कि पूरी कचहरी का व्यवहार है।

अगर पास में अकूत पैसा है, तो आप कोई भी मुकदमा जीत सकते हैं, किसी भी हारते हुए मुकदमे में पेच पैदा कर सकते हैं। नोटिस तामील हुए बिना किसी की नामौजूदगी, प्राप्ति अथवा लेने से इनकार जैसी टिप्पणी स्वत: दर्ज होकर अदालत में वापस आ सकती है तथा उसके खिलाफ स्थगनादेश अथवा अन्य कोई आदेश बेहिचक जारी हो जा सकता है, पैसे के बलबूते। दलाल वकीलों का वर्चस्व है। ऐसे-ऐसे लोग वकालत के पेशे में हैं, जो मनसा-वाचा-कर्मणा दूर-दूर तक वकील नहीं हैं। पेशकार, लिपिक, अर्दली जैसे कर्मी खुद को कलेक्टर से कम नहीं आंकते। फोटोकॉपी करने वाले, टाइपिस्ट आदि भी पक्षकार को यों देखते हैं, जैसे वह बहुत गरजमंद हो।

कानपुर ग्रामीण निवासिनी एक महिला मारपीट जैसा छोटा मुकदमा लड़ते-लड़ते अपनी दर्जन भर से ज्यादा बकरियां बेच बैठी। न जाने क्या-क्या बेच बैठी होगी, गहना-बर्तन आदि। एक दिन उसने कचहरी आना ही बंद कर दिया। मुवक्किल अगर अनपढ़ है, गरीब है, तो वह वकील साहब के लिए हैंडपंप से पानी लाता है, बाजार से चाय लाता है खुद जाकर। जरूरत पड़ने पर कुर्सियां-बेंच तक साफ करता है। आप अगर वकील को चाय-नाश्ते या भोजन के लिए बाहर ले जाना चाहें, तो वह दो-चार साथी अपने साथ जरूर कर लेता है। फिर अपने हिसाब से खाता-खिलाता है, पैसे तो मुवक्किल देगा ही। वकीलों द्वारा साथियों को साथ ले जाना भी एक गुप्त समझौता है।

2016 के सितंबर माह में छत्तीसगढ़ स्टेट ज्यूडिशियल अकादमी कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने कहा था कि अगर जज ईमानदार नहीं होगा, तो दुकानदार हो जाएगा, रुपए लेकर न्याय बेचेगा। जज अपने काम को नौकरी न समझें, बल्कि इसे ईश्वर प्रदत्त सम्मान मान कर तपस्वी की तरह काम करें। उन्होंने कहा, जज के साथ-साथ उनके स्टाफ को भी ईमानदार होना चाहिए। न्यायमूर्ति ठाकुर की इस टिप्पणी के ठीक एक पखवाड़े के बाद यानी 28-29 सितंबर की रात सीबीआइ ने दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट की वरिष्ठ सिविल जज रचना तिवारी लखनपाल को चार लाख रुपए की रिश्वत लेते हुए गिरफ्तार किया। रचना के घर से 94 लाख रुपए की नकदी बरामद हुई। उन्होंने एक विवादित संपत्ति के मुकदमे में एकपक्षीय फैसला सुनाने के एवज में बीस लाख रुपए की रिश्वत मांगी थी, जिसमें एक लोकल कमिश्नर और स्वयं जज के पति भी संलिप्त थे। तीनों के खिलाफ न सिर्फ भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम की धारा 7 व 8 के तहत मुकदमा दर्ज हुआ, बल्कि दिल्ली हाइकोर्ट ने जज रचना तिवारी को निलंबित भी कर दिया।

देश में मुकदमों की बाढ़ और न्याय मिलने में विलंब को लेकर न्यायमूर्ति ठाकुर की टिप्पणी थी कि अमेरिका में प्रति दस लाख की आबादी पर एक सौ पचास जज हैं, जबकि भारत में सिर्फ बारह। प्रति दस लाख की आबादी पर पचास जज रखने का प्रस्ताव है, जो आज तक अंजाम तक नहीं पहुंचा। आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश की निचली अदालतों में सत्तावन लाख मुकदमे विचाराधीन हैं, जिनमें बयालीस लाख मुकदमे आपराधिक मामलों के हैं और पंद्रह लाख सिविल के। जबकि जजों की संख्या महज साढ़े तीन हजार है। यानी हर जज के जिम्मे डेढ़ हजार से ज्यादा मुकदमे हैं।

इलाहाबाद हाइकोर्ट के न्यायाधीश अरुण टंडन ने प्रशिक्षण एवं अनुसंधान संस्थान (जेटीआरआइ), लखनऊ में आयोजित उत्तर प्रदेश राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण (यूपीएसएलएसए) की कॉन्फ्रेंस में उक्त आंकड़ों पर चिंता व्यक्त करते हुए यहां तक कह डाला कि जमीन, मकान-दुकान से कब्जा हटाने के लिए लोग कोर्ट केस करने के बजाय गुंडों को पैसा देने लगे हैं। इसलिए न्यायपालिका में विश्वास बढ़ाने की जरूरत है, अन्यथा लोकतंत्र भी नहीं बचेगा। देश के सीमावर्ती राज्य जम्मू-कश्मीर में 56 हजार से ज्यादा मामले लंबित हैं, जिनमें तकरीबन 24 हजार सिविल के और 33 हजार आपराधिक मामले हैं। यह तो निचली अदालतों की तस्वीर है। देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में तकरीबन साढ़े अड़तीस लाख मुकदमे अपने निस्तारण की राह देख रहे हैं।