वैज्ञानिकों के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते प्रभाव की वजह से मानसून बनने की परिस्थितियों पर असर पड़ा है। बरसात का लगातार कम होना इस बात का संकेत है कि अगर इसी तरह वर्षा कम होने का क्रम बना रहा, तो आने वाले कुछ दशकों में बरसात की जगह अकाल ले सकता है। इससे विश्व स्तर पर भुखमरी, तरह-तरह की बीमारियां, जंगलों और हरियाली का विनाश, भूजल स्तर के नीचे जाने, पीने के पानी की किल्लत सहित अनगिनत समस्याओं और संकटों से विश्व को सामना करना पड़ सकता है।

मौसम का चरित्र बदलने से मानव के सामने अनगिनत समस्याएं चुनौती बन कर खड़ी हो गई हैं। मगर जिनके चलते समस्याएं पैदा हो रही हैं, उन कारणों को जानते हुए भी उन्हें खत्म करना कठिन हो गया है। गौरतलब है कि उन कारणों में ग्लोबल वार्मिंग, ग्रीन हाउस गैसों का लगातार बढ़ते जाना और प्राकृतिक संसाधनों का मनमाना दोहन प्रमुख है।

भारत मौसम विज्ञान के आंकड़ों के अनुसार 1901 से लेकर 2020 के दरम्यान भारत के औसत तापमान में 0.71 डिग्री की बढ़ोतरी हो चुकी है। 2016 भारत का अब तक का सबसे ज्यादा गर्म साल रहा है। अब तक के पंद्रह सर्वाधिक गर्म सालों में से बारह साल 2006 के बाद दर्ज किए गए हैं। मौसम के बदलाव ने आम आदमी और वैज्ञानिकों को चिंता में डाल दिया है। खेती-किसानी, बागवानी और औषधियों से जुड़े सभी क्षेत्रों पर ग्लोबल वार्मिंग का जो खतरनाक असर पिछले बीस सालों से देखा जा रहा है, उससे कई तरह की समस्याएं और बीमारियों का खतरा लगातार बढ़ रहा है। गौरतलब है कि पिछले बीस सालों में कृषि उत्पादों में पंद्रह फीसद तक कमी आई है।

वैश्विक पैदावार में चार फीसद की कमी आई है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में धान के उत्पादन वाले लगभग चालीस फीसद क्षेत्र के खेती लायक न रह जाने की आशंका जताई गई है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण धान, गेहूं, जौ और आलू जैसी फसलों में पौष्टिक गुणों में छह फीसद तक कमी आई है। गौरतलब है कि अगर पौष्टिक गुणों की कमी आगे भी बनी रही तो खाद्यान्न मानव सभ्यता के रक्षक नहीं, बल्कि समस्या बने रहेंगे। वैज्ञानिकों के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग के असर से बारिश का स्वरूप असंगत हुआ है। इससे समय से पहले, तो कहीं समय बीत जाने पर बहुत अधिक बरसात होने की वजह से फसल-चक्र पर जबर्दस्त असर देखा जा रहा है। गौरतलब है कि आज से चालीस या पचास साल पहले के मौसम और आज के मौसम में आए बदलावों को जो जानते हैं, उनका मानना है कि पर्यावरण प्रदूषण ने हर क्षेत्र में व्यापक असर डाला है, जिससे ऋतुचक्र और दूसरे तमाम क्षत्रों पर जबर्दस्त असर हुआ है।

कोरोना काल में पिछले एक साल में जलवायु परिवर्तन की कई अचरज भरी घटनाएं देखने-सुनने को मिली हैं। इस साल पिछले एक सौ बारह वर्षों में सबसे कम गर्मी मई-जून में पड़ी। इसी तरह हाल के दशकों में मानसूनी बारिश ही कम नहीं हुई है, बल्कि बारिश का वितरण भी प्रभावित हुआ है। वैज्ञानिकों के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते प्रभाव की वजह से मानसून बनने की परिस्थितियों पर असर पड़ा है। दिल्ली मौसम विभाग के आंकड़ों के अनुसार 1981-90 के दशक में मानसूनी बारिश 881 मिमी थी, जो 1991-2000 के दशक में 877, 2001-01 के दौरान 847 तथा 2001-20 के दशक के बीच 860 मिली दर्ज की गई। बरसात का लगातार कम होना इस बात का संकेत है कि अगर इसी तरह वर्षा कम होने का क्रम बना रहा, तो आने वाले कुछ दशकों में बरसात की जगह अकाल ले सकता है। इससे विश्व स्तर पर भुखमरी, तरह-तरह की बीमारियां, जंगलों और हरियाली का विनाश, भूजल स्तर के नीचे जाने, पीने के पानी की किल्लत सहित अनगिनत समस्याओं और संकटों से विश्व को सामना करना पड़ सकता है।

ग्लोबल वार्मिंग के असर से मध्य भारत में पिछले पैंसठ वर्षों में बारिश में गिरावट आई है। ऋतुचक्र में बदलाव की वजह से असमय बारिश, सूखा, बाढ़ और अकाल जैसी परिस्थितियां निरंतर निर्मित हो रही हैं। इससे विस्थापन एक स्थायी समस्या का रूप ले सकता है। अनुमान के मुताबिक जल संकट, सूखे, कृषि संकट और समुद्र्री जल स्तर में बढ़ोतरी की वजह से 2050 तक दक्षिण-पूर्व एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका में तीन से चौदह करोड़ आबादी पर आंतरिक विस्थापन का खतरा मंडरा सकता है। अगला युद्ध जल के कारण मानने वालों की आशंका सही साबित होती दिखाई पड़ रही है। वैज्ञानिकों ने माना है कि आने वाले वर्षों में जलवायु परिवर्तन के कारण भूमिगत जल के स्तर में लगभग तीन-चैथाई की कमी के कारण ढाई अरब और लोग जल संकट से जूझ रहे होंगे। ऐसी स्थिति में विश्व स्तर पर पानी के बाबत ‘जल-युद्ध’ छिड़ सकता है। गौरतलब है कि पचास फीसद विश्व की आबादी पानी के संकट से आज जूझ रही है।

बहुत कम लोग जानते होंगे कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण महंगाई लगातार बढ़ रही है। महंगाई बढ़ने से विश्व के गरीब और निम्न मध्यवर्ग के लिए दो वक्त की रोटी जुटाना मुश्किल हो गया है। आने वाले वक्त में भोजन, पानी और दवाओं की कमी की समस्या विकराल रूप धारण कर सकती है। अनुमान है कि आने वाले सालों में एक करोड़ से ज्यादा बच्चे कुपोषण और बौनेपन का शिकार होंगे, जिससे गरीब परिवारों के सामने तरह-तरह की नई समस्याएं पैदा होंगी। बढ़ते धरती के तापमान की वजह से जिस तरह से गर्मी, ठंठक और बेमौसम बरसात की समस्याएं बढ़ रही हैं, उससे विश्व की आधी से ज्यादा आबादी में डेंगू, चिकनगुनिया, जीका, पीला बुखार जैसी संक्रामक बीमारियों से निपटने के लिए सरकारों को अतिरिक्त संसाधन और धन व्यय करने की विवशता होगी। वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग का असर गरीब परिवारों के बच्चों के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक हो सकता है। उनकी डायरिया से हाने वाली मौतों का दायरा और आंकड़े बेतहाशा बढ़ेंगे।

ग्रीन हाऊस गैसों से बढ़ते प्रदूषण के चलते कई दूसरी समस्याएं भी पैदा होने लगी हैं। इससे दुनिया में एक तरह से मौसमी आंतक की छाया देखने को मिलने लगी है। अमेरिका जैसे देश में बर्फीले तूफान ने पिछले वर्षों में जो कहर ढाया, उसे वहां के लोग शायद कभी न भुला पाएं। ऐसे ही भारत में पिछले वर्षों में उत्तराखंड, बिहार और तमिलनाडु में आई बाढ़ और बेमौसम बरसात ने लोगों को हलकान किया।

ग्लोबल वार्मिंग का असर महानगरों, शहरों में रहने वाले लोगों की दिनचर्या पर भी पड़ रहा है। लोगों के अंदर सहनशीलता, सुख-सुविधाओं के कारण बहुत कम होती जा रही है। संपन्न परिवारों में बच्चे, बूढ़े और जवान सभी सुख-सुविधाओं में जीने के आदी हो गए हैं। वहीं पर मध्यवर्गीय, निम्न मध्यवर्गीय और निम्न वर्गीय परिवार बारहों महीने मौसम के अनुकूल साधन-सुविधाएं जुटाने में ही लगे रहते हैं। जिसके पास साधन-सुविधाएं जुट गर्इं, वह तो मौसम का सामना कर लेता है, लेकिन जिसके पास नहीं जुट पाती हैं, वह किसी तरह धूप के सहारे ठंठ का सामना करता है। ठंठ ही क्यों, गर्मी और बरसात के महीनों में भी ऐसे लोग किसी तरह खुद को बचाते देखे जा सकते हैं।

ग्लोबल वार्मिंग का असर शहरी गरीब और ग्रामीण क्षत्रों में रहने वालों पर सबसे ज्यादा पड़ रहा है। वहीं पर कृषि, बागवानी पर असर पड़ने की वजह से किसानों की हालात लगातार शोचनीय होती जा रही है, जिससे गांवों से शहर की ओर पलायन बढ़ रहा है और किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। किस तरह ग्लोबल वार्मिंग के असर से जीवन, धरती और प्राकृतिक संसाधनों को बचाया जाए, यह बहुत बड़ी चुनौती है। विकसित और विकासशील देशों की सरकारें अपने सामर्थ्य के मुताबिक लोगों को सुरक्षा देने और सचेत करने का कार्य कर रही हैं, लेकिन प्राकृतिक आपदाओं से पड़ने वाले असर को पूरी तरह समाप्त करना मुमकिन नहीं दिखाई दे रहा है। हां, ग्रीन हाउस ग्रैसों को कम कर और प्राकृतिक संसाधनों के मनमाने दोहन से बढ़ती समस्याओं से लोगों को सचेत कर, आने वाले वक्त को कुछ बेहतर बनाया जा सकता है।