ज्योति सिडाना
कमजोर वर्ग का शोषण, महिलाओं के प्रति बढ़ता दुर्व्यवहार, किशोर और युवाओं में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति, सामाजिक और आर्थिक असुरक्षा, समाज में जाति, धर्म, क्षेत्र के आधार पर बढ़ता भेदभाव, अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई और विशेष रूप से रिश्तों में पैदा होता अविश्वास ऐसे पहलू हैं जो समाज में क्रोध और हिंसा का कारण बनते जा रहे हैं।
आज की व्यस्त जीवनशैली में तनाव के कारण व्यक्ति मानसिक रूप से बहुत दबाव में रहने लगा है। इसका असर उसके व्यवहार में स्पष्ट रूप से झलक भी रहा है। यही वजह है कि अक्सर छोटी-छोटी बातों पर चिड़चिड़ाहट, निराशा और आक्रामक बर्ताव एक आम पर गंभीर समस्या बन गया है। लेकिन समस्या तब ज्यादा गंभीर रूप धारण कर लेती है जब यह चिड़चिड़ाहाट भयानक गुस्से का रूप ले लेती है और गुस्से में व्यक्ति अपनों तक की हत्या तक कर डालता है। दिल दहला देने वाली ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं।
कुछ दिन पहले जयपुर में एक युवक ने अपनी ताई की हथौड़ा मार कर हत्या कर दी और शव के टुकड़े कर जंगल में फेंक दिए। कहने को वह युवक शिक्षित था और इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद नौकरी कर रहा था। उसने स्वीकार किया कि उसकी ताई उसे अक्सर रोका टोका करती थी और ऐसी टोकाटाकी उसे अच्छी नहीं लगती थी। इसी से नाराज हो कर उसने ताई को मार डाला।
ऐसी ही एक अन्य घटना दिल्ली की है, जहां एक युवक ने पत्नी से झगड़े के बाद शराब के नशे में अपने दो साल के बेटे को दूसरी मंजिल से नीचे फेंक दिया। झारखंड के साहिबगंज में एक पति ने अपनी पत्नी हत्या के बाद उसके शव के पचास से ज्यादा टुकड़े कर दिए। ऐसी घटनाओं को देख-सुन कर मन में कई सवाल उठते हैं।
गुस्से में तोड़-फोड़ और मार-पीट जैसी घटनाएं तो समझ में आती हैं, लेकिन मामूली बातों पर इतना गुस्सा कि किसी अपने की ही हत्या कर दी जाए, यह चिंता में डाल देने वाली बात है। इसीलिए यह सवाल बार-बार झकझोरता है कि आखिर लोगों में इतनी नकारात्मकता, हिंसा, गुस्सा, घृणा आई कहां से और क्यों आ रही है? अब हिंसा या घृणा के भाव जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र या शत्रु तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि निजी संबंधों तक भी इनका विस्तार देखने को मिल रहा है।
दुनिया भर के समाजों में घृणा में हुई वृद्धि के कारणों को समझना जरूरी है। सवाल है कि कैसे और क्यों हम एक ऐसी जगह पहुंच गए हैं जहां घृणा और क्रोध के रूप में राष्ट्रवाद, जातिवाद और नारी द्वेष बढ़ता जा रहा है और दुनिया भर में आंदोलनों का आधार बन रहा है। व्यक्ति के उत्थान के साथ-साथ असंतोष और निराशा में वृद्धि हुई है, क्योंकि आधुनिक दुनिया अभिजात वर्ग और राज्य द्वारा किए गए वादों और जनता की अपेक्षाओं को पूरा करने में विफल रही है।
एक कल्याणकारी राज्य और संवैधानिक मूल्यों की पालना का वादा जब पूरा नहीं होता तो नागरिकों में नाराजगी और असंतोष के भाव पैदा होने लगते हैं। ऐसा होना स्वाभाविक भी है। भारत में आज यही स्थिति है। सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का नागरिक होने के बावजूद लोग स्वयं को एक असुरक्षित दुनिया का हिस्सा मानने लगे हैं। उन्हें अपने चारों ओर असंतोष, निराशा, आक्रोश और आर्थिक अस्थिरता दिखाई दे रही है। और ऐसी स्थिति कोई एक दिन में नहीं बनी है। सोचने की बात यह है कि सबसे बड़े लोकतंत्र में ही लोकतांत्रिक मूल्य हाशिए पर क्यों होते जा रहे हैं।
आखिर ऐसा क्या हुआ है कि सामाजिक सरोकारों के प्रति सक्रिय रहने वाले बुद्धिजीवी समूहों ने मौन की संस्कृति को अपना लिया है। न केवल दूसरों के साथ होने वाली घटनाओं के प्रति अपितु स्वयं या स्वयं के समूहों व समुदायों के साथ होने वाली घटनाओं पर भी अब आवाजें सुनाई नहीं देतीं और न ही कोई प्रतिरोध दर्ज होता दिखता है।
लगातार बढ़ती महंगाई, संसाधनों की अनुपलब्धता, स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव, रोजगार की समाप्ति, शिक्षा का गिरता स्तर, भविष्य की अनिश्चितता, कामकाजी हालात, अल्प वेतन, कार्य के अनिश्चित घंटे, महिलाओं एवं दलितों के लिए असुरक्षित वातावरण, हिंसक घटनाओं में वृद्धि आदि ऐसे महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती, लेकिन फिर भी की जा रही है। आखिर क्यों?
यह एक तथ्य है कि लोकतांत्रिक राज्य नागरिकों के अधिकारों, चुनावी सहभागिता, समानता, स्वतंत्रता के मूल्यों को केंद्र में रख कर जीवन निर्धारित करने की नागरिक की आकांक्षा का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन लोकतंत्र के प्रति संदेह होना इसलिए एक यथार्थ बन चुका है क्योंकि अब राज्य व सरकार शक्ति के मुख्य स्रोत नहीं हैं, बल्कि वास्तविक शक्ति तो पूंजी के स्वामित्व एवं नियंत्रण से सुनिश्चित होने लगी है। और जब तक इसे तोड़ा नहीं जाएगा, किसी भी समाज में लोकतंत्र की अवधारणा का तर्क भ्रम के अलावा कुछ नहीं है।
समाजशास्त्री लिंडसे पोर्टर का मानना है कि शिक्षित और बुद्धिमान लोगों के बच्चे आखिरकार आराम और विशेषाधिकारों के कारण भ्रष्ट हो जाएंगे। इसके बाद वे सिर्फ अपनी संपत्ति के बारे में सोचेंगे, जिससे कुछ लोगों का शासन स्थापित हो जाएगा। असमानता बढ़ेगी। कई बार तो लगता है कि पोर्टर की यह आशंका कहीं मूर्त रूप लेती तो नजर नहीं आ रही। वैज्ञानिक और तकनीकी युग में प्रवेश के बाद लोग अपनी उन्नति से जितना खुश होते दिखने लगे थे, आज उससे उतने ही दुखी और परेशान हो गए हैं।
कमजोर वर्ग का शोषण, महिलाओं के प्रति बढ़ता दुर्व्यवहार, किशोर और युवाओं में बढती आत्महत्या की प्रवृत्ति, सामाजिक और आर्थिक असुरक्षा, समाज में जाति, धर्म, क्षेत्र के आधार पर बढ़ता भेदभाव, अमीर और गरीब के बीच बढती खाई और विशेष रूप से रिश्तों में पैदा होता अविश्वास ऐसे पहलू हैं जो समाज में क्रोध और हिंसा का कारण बनते जा रहे हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान में देश के भीतर लोकतांत्रिक मूल्यों को चुनौती मिली है। ऐसे ढेरों उदाहरण हमारे सामने हैं जिन्होंने संविधान की आत्मा को ही कुचल कर रख दिया है।
जब किसी व्यवस्था में खासतौर से लोकतांत्रिक व्यवस्था में शासक या अभिजात समूह अपने हितों को राज्य के माध्यम से संरक्षण प्रदान करने लगे, तो वहां इस तरह की अव्यवस्थाओं और चुनौतियों का होना सामान्य-सी बात है। जब कथनी और करनी में अंतर आ जाता है तो बड़े से बड़ा लोकतंत्र भी असहाय हो जाता है। कितना बड़ा विरोधाभास है कि विज्ञान द्वारा निर्मित तकनीक को तो अपनाते समय मानव अनेक तर्क देता है और उसकी उपयोगिता को तार्किक आधार पर सिद्ध करता है, लेकिन वैज्ञानिक सोच को अपनाने में उन्हीं तर्कों की उपेक्षा से उसे कोई गुरेज नहीं होता।
संभवत: आज के इस दौर में तर्कों को दरकिनार कर दिया गया है, इसलिए भी समाज परिवार, मित्रता, राज्य, समाज सभी में विघटन की स्थिति उत्पन्न हो गई है।दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि समाज में फैली इस अव्यवस्था और विघटन पर न ही अकादमिक स्तर, न ही राज्य और प्रशासनिक स्तर और न ही किसी बौद्धिक स्तर पर कोई चिंता दिखाई देती है। ऐसे में हर वर्ग के युवाओं को अपने मतभेदों को दरकिनार करते हुए सामने आना होगा, अन्यथा ऐसा न हो कि समाज रहने लायक ही नहीं रह जाए या पशु समाज और मानव समाज के बीच का अंतर ही समाप्त हो जाए।
विकास मानव जीवन में गुणात्मक वृद्धि के लिए किया जाता है, न कि जीवन में विघटन की स्थिति उत्पन्न करने के लिए। स्वयं को भौतिकतावाद और उपभोक्तावाद की तरफ इतना भी नहीं धकेलें कि विकास रूपी विनाश के ढेर पर अकेले खड़े नजर आएं और आपके साथ उसे भोगने वाला या देखने वाला भी कोई न हो। इसके लिए जरूरी है कि रिश्तों में विश्वास, प्रेम और प्रतिबद्धता बनी रहे, तभी राष्ट्र-राज्य के विकास की कल्पना सकारात्मक रूप ले सकेगी।