अदालतों को अब स्वप्रेरणा से इस भाषायी रंगभेद की दासता से मुक्त होने की जरूरत है। शीर्ष अदालत अगर यह पहल करती है, तो देखते-देखते भारतीय भाषाएं प्रशासन के क्रियाकलापों का सशक्त माध्यम बन जाएंगी। इस पहल से आमजन की न्याय-प्रक्रिया में समझ और संप्रेषणीयता तो बढ़ेगी ही, शासन-प्रशासन मानवता के कल्याण का वाहक भी बनने की दिशा में अग्रसर होगा।

प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के दिल्ली में आयोजित सम्मेलन में कहा कि, ‘किसी भी देश में न्याय का आधार सुराज होता है। इसलिए न्याय जनता की भाषा से जुड़ा होना चाहिए। जब तक न्याय के आधार को आमजन नहीं समझता, उसके लिए न्याय और राजकीय आदेश में फर्क नहीं होता। एक बड़ी आबादी को न्यायिक प्रक्रिया से लेकर फैसलों तक को समझना मुश्किल होता है, क्योंकि वे अंग्रेजी में होते हैं।

अगर न्याय स्थानीय भाषाओं में मिलेगा, तो नागरिक का न्याय प्रणाली में भरोसा बढ़ेगा। इसके लिए कानूनी भाषा को सरल बनाने और फैसले स्थानीय भाषा में देने की जरूरत है।’ प्रधान न्यायाधीश एनवी रमण ने भी न्याय प्रणाली के भारतीयकरण और उच्च न्यायालयों में स्थानीय भाषाओं में कार्यवाही को आवश्यक बताया। शायद यह पहली बार हुआ है, जब न्यायपालिका ने न्यायालयों में स्थानीय भाषाओं के प्रयोग पर विधायिका से सहमति जताई है।

महात्मा गांधी ने भी अदालतों में अंग्रेजी के प्रयोग पर आपत्ति जताते हुए कहा था कि अंग्रेजी से बेहतर होगा कि हिंदी का प्रयोग बोलचाल और देश की आधिकारिक भाषा के तौर पर तो किया ही जाए, न्यायालयों में भी इसका प्रयोग होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होगा तो लोगों को न्यायिक प्रक्रिया पूरी तरह समझ नहीं आएगी। इसलिए राष्ट्रीय और क्षेत्रीय भाषाओं का अदालतों में प्रयोग होना आवश्यक है।

उनका कहना था कि जब तक हम हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिला देते और अन्य स्थानीय भाषाओं को उनका अपेक्षित महत्त्व नहीं दिला देते, तब तक स्वराज्य की सारी बातें अर्थहीन रहेंगी। गांधीजी ने अदालतों में क्षेत्रीय भाषाओं की यह पैरवी 1918 में इंदौर में संपन्न हुए हिंदी साहित्य सम्मेलन के आयोजन में कही थी। प्रधानमंत्री ने उसी बात पर जोर दिया है।

दरअसल, जिस कानून की भाषा अशिक्षित आमजन की समझ में नहीं आती, उसके पालन की अपेक्षा उससे करना व्यर्थ है। इसीलिए प्रधानमंत्री ने कानून बनाते समय ही मूल कानून के साथ सरल भाषा में उसकी व्याख्या जोड़ने की बात कही है। इस प्रयोग पर अमल होता है, तो कानून न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं की समझ के दायरे से बाहर निकल कर आम नागरिक की समझ में भी आने लगेगा।

स्थानीय भाषा में अदालतों को काम करने में कोई असुविधा नहीं होगी, क्योंकि आज भी देश की सभी जिला और तहसील स्तरीय अदालतें स्थानीय भाषाओं में लगभग पूरा काम करती हैं। केवल चिकित्सा और न्यायिक जाचें अंग्रेजी में होती हैं। इनके भी निष्कर्ष क्षेत्रीय भाषाओं में दिए जा सकते हैं।

हालांकि अब भी उच्च और उच्चतम न्यायालय केवल अंग्रेजी में काम करते हैं। इसके पीछे उनका तर्क है कि उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को देश के किसी भी राज्य में स्थानांतरित होकर जाना पड़ता है। इनमें वे भी राज्य होते हैं, जिनकी भाषा न्यायाधीश की भाषा से भिन्न होती है। पर यह तर्क उचित नहीं है।

क्योंकि संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा पास करके जो लोग जिलाधीश और जिला दंडाधिकारी बन कर देश भर में जाते हैं, वे न केवल स्थानीय भाषा में दिए आवेदनों पर कार्रवाई करते हैं, बल्कि राजस्व न्यायालयों का कार्य भी करते हैं। राजस्व से संबंधित दस्तावेज स्थानीय भाषाओं में होते हैं और वकील उन्हीं भाषाओं में पैरवी करते हैं। अंतत: राजस्व न्यायालयों के फैसले भी स्थानीय भाषा में ही आइएएस देते हैं। स्थानीय भाषा में फैसले आने से कोई भाषागत विसंगति भी देखने में नहीं आती।

यह अच्छी बात है कि अब न्यायपालिका और विधायिका में स्थानीय भाषाओं में न्यायालयों का काम करने पर सहमति बन रही है। इससे अंग्रेजी की कथित रूप से बना दी गई अनिवार्यता के चलते जो प्रतिभाएं खिलने से पहले ही मुरझा जाती हैं, वे भी प्रोत्साहित होकर फलेंगी। शिक्षा में आरक्षण का लाभ लेकर वंचित समुदाओं के जो विद्यार्थी प्रवेश पा रहे हैं, उन्हें अंग्रेजी माहौल के चलते आत्मघाती कदम उठाने तक को विवश होना पड़ रहा है।

साफ है, यह प्रभुत्व व्यापक रूप लेकर हिंदी और भाषाई माध्यमों से पढ़ कर आने वाले युवाओं में घातक हीनता का बोध पैदा कर रहा है। इसलिए अब समय आ गया है कि अंग्रेजी बनाम हिंदी की बहस को भारतीय भाषाओं की निरीहता के रूप में देखा जाए? अगर ऐसा होता है तो इसके न्यायिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और शैक्षिक पहलुओं पर गंभीरता से विचार कर भाषाई समस्या का तार्किक और व्यावहारिक सामाधान निकालना संभव होगा।

इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्तमान भूमंडलीकृत उदारवादी और आधुनिक तकनीक आधारित वैश्विक फलक पर अंग्रेजी का अपना महत्त्व है। मगर इससे यह आवश्यक नहीं हो जाता कि न्याय, शासन-प्रशासन और उद्योग-व्यापार के रोजमर्रा के काम उस भाषा में हों, जिसे देश की अट्ठानबे प्रतिशत जनसंख्या जानती ही नहीं। जिस बहस और फैसले को वादी-प्रतिवादी समझ ही न सकें, उसे न्याय कहें या अन्याय! मुठ्ठीभर लोग जिस न्याय प्रक्रिया और उसके परिणाम से निकले निष्कर्ष को समझते हों, यह लोकतंत्र की भावना के विरुद्ध सीधे-सीधे साजिश है।

देश की सभी निचली अदालतों में संपूर्ण कामकाज हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में होता है, पर उच्च और उच्चतम न्यायालयों में यही काम केवल अंग्रेजी में होता है। यहां तक कि जो न्यायाधीश हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएं जानते हैं, वे भी अपीलीय मामलों की सुनवाई में दस्तावेजों का अंग्रेजी अनुवाद कराते हैं।

यह देश और संविधान की विडंबना ही है कि अनुच्छेद-19, 343, 346, 347, 350 और 351 में कहीं भी अंग्रेजी की बाध्यता नहीं है। अनुच्छेद-19 में भारत के सभी नागरिकों को ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ दी गई है। यह अभिव्यक्ति संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किसी भी भारतीय भाषा में हो सकती है। मगर संविधान द्वारा प्राप्त यह बुनियादी अधिकार उच्च और सर्वोच्च न्यायालय की देहरी पर जाकर ठिठक जाता है। यहां अपीलें और यचिकाएं अंग्रेजी में ही विचार के लिए स्वीकार की जाती हैं।

किसी भी मुकदमे के दो बिंदु अहम होते हैं। एक, प्रथम सूचना प्रतिवेदन और दूसरा याची, अभियुक्त और साक्षी के बयान। प्राथमिकी स्थानीय भाषा में लिखी जाती है और फरियादी, आरोपी और गवाह भी अपने बयान अपनी-अपनी भाषा में देते हैं। कभी-कभी इनके बयानों के अनुवाद अर्थ का अनर्थ भी कर देते हैं। ऐसे में संविधान का प्रजातांत्रिक न्यायवादी आग्रह उच्च न्यायालयों की देहरी पर ही खारिज कर दिया जाता है।

दुनिया में जितने भी देश महाशक्ति के दर्जे में आते हैं, उनकी अदालतों में मातृभाषा चलती है। यूरोपीय देशों में जैसे-जैसे शिक्षा और संपन्नता बढ़ी, वैसे-वैसे राष्ट्रीय स्वाभिमान प्रखर होता चला गया। फ्रांस ने 1539 में लैटिन को अपनी अदालतों से बेदखल किया। जर्मनी ने अठारहवीं सदी में लैटिन से पिंड छुड़ा लिया। इंग्लैंड की अदालतों में एक समय जर्मनी और फ्रांसीसी भाषाओं का ही बोलबाला था।

यहां अंग्रेजी बोलने पर हजारों पाउंड का जुर्माना लगा दिया जाता था, लेकिन 1362 में जर्मन और फ्रांसीसी को पूरी तरह बहिष्कृत कर अंग्रेजी को इंग्लैंड की अदालतों में आधिकारिक भाषा बना दिया गया। रूस, चीन, जापान, वियतनाम और क्यूबा में भी मातृभाषाओं का प्रयोग होता है। इन देशों से भारत और भारतीय अदालतें कोई सबक या प्रेरणा लिए बिना अंग्रेजी को अब तक ढोती चली आ रही हैं।

गोया, अदालतों को अब स्वप्रेरणा से इस भाषायी रंगभेद की दासता से मुक्त होने की जरूरत है। शीर्ष अदालत अगर यह पहल करती है, तो देखते-देखते भारतीय भाषाएं प्रशासन के क्रियाकलापों का सशक्त माध्यम बन जाएंगी। इस पहल से आमजन की न्याय-प्रक्रिया में समझ और संप्रेषणीयता तो बढ़ेगी ही, शासन-प्रशासन मानवता के कल्याण का वाहक भी बनने की दिशा में अग्रसर होगा।