प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस हफ्ते एशियाई देशों का दौरा करेंगे। वह पहले द्विपक्षीय वार्ता के लिए जापान जाएंगे और उसके बाद चीन के तियानजिन में आयोजित हो रहे शंघाई सहयोग संगठन (SCO) सम्मेलन में शामिल होंगे। पीएम मोदी की यह यात्रा दोहरे परिणाम वाली साबित हो सकती है। यह यात्रा भारत के लिए जापान से अपने रिश्ते बेहतर बनाने के लिए नया अवसर लेकर आ सकती है और दूसरी तरफ चीन के साथ अपने सम्बन्धों को सावधानीपूर्वक सामान्य बनाने की दिशा में आगे बढ़ने का मौका दे सकती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह यात्रा ऐसे समय में हो रही है जब भारत और अमेरिका के सम्बन्धों में तनाव है जिसकी वजह से दुनिया भर के कूटनीतिज्ञों की नजर पीएम मोदी की जापान और चीन में लिए जाने वाले कूटनीतिक कदमों पर टिकी हुई है। इसके बावजूद भारत और अमेरिका के रिश्तों के बीच आई मुश्किलों और चीन के साथ बातचीत के भावी परिणाम के बीच घालमेल करना भ्रामक होगा। भारत की चीन से समस्या काफी गहरी है। SCO को लेकर भारत की मुश्किलें खत्म नहीं हुई हैं और रूस के साथ भारत की साझीदारी की एक अहम सीमा है।
भारत के लिए अमेरिका से सम्बन्धों की बीच सबसे बड़ी चुनौती आपसी व्यापार है। इस मामले में रूस और चीन भारत को बहुत कम राहत दे पाएँगे। वर्ष 204 में रूस ने पाँच अरब अमेरिका डॉलर और चीन ने 15 अरब अमेरिकी डॉलर मूल्य के सामान का भारत से आयात किया था। भारत के साथ आयात-निर्यात के व्यापार संतुलन की बात करें तो यह रूस की तरफ 60 अरब डॉलर और चीन की तरफ 100 अरब डॉलर झुका हुआ है। इसके उलट, वर्ष 2024 में अमेरिका ने भारत से 88 अरब डॉलर का आयात किया था। यानी अमेरिका रूस और चीन के कुल आयात के चार गुना से ज्यादा अमेरिका भारत से आयात करता है। अमेरिका और भारत के बीच आयात-निर्यात संतुलन भारत की तरफ 45 अरब डॉलर झुका हुआ है। यानी भारत अमेरिका से जितना आयात करता है उससे 45 अरब डॉलर ज्यादा का निर्यात करता है।
भारत का निर्माण उद्योग खतरनाक रूप से चीन के दबाव में
भारत का निर्माण उद्योग खतरनाक रूप से चीन के दबाव में है। चीन ने भारत को रेयर अर्थ मैग्नेट के निर्यात पर रोक लगा दी है जो हिन्दुस्तान के ऑटोमोबाइल सेक्टर के लिए अहम है। चीन ने हिमालय में जारी परियोजनाओं के लिए सुरंग खोदने वाले उपकरण बेचने पर भी रोक लगा दी है। चीन ने भारत में स्थित ऐपल आईफोन के कारखानों से चीनी इंजीनियरों इत्यादि को वापस बुला लिया है। इन घटनाक्रम ने भारत की पिछले तीन दशकों की उद्योग नीति की कमियों को सबके सामने ला दिया है। भारत की चीन पर निर्भरता न तो ‘मेक इन इंडिया’ से और न ही ‘स्वदेशी खरीदें’ के नए अभियान से शीघ्र खत्म होने वाली है। भारत चीन द्वारा इन व्यापार प्रतिबंधों पर ढील माँगने के लिए मजबूर है। इससे पता चलता है कि निकट भविष्य में भारत की चीन पर निर्भरता समाप्त नहीं होने वाली है।
दूसरी तरफ, भारत के ऊर्जा जरूरतों की सुरक्षा के मामले में रूस पर निर्भरता निर्विवाद नहीं है। एक वक्त था कि अमेरिका की बाइडन सरकार भारत द्वारा रूस से कच्चा तेल खरीदने को बाजार में संतुलन पैदा करने वाली गतिविधि मानती थी। डोनाल्ड ट्रंप सरकार इसे एक पत्ते की तरह इस्तेमाल करना चाहती जिसका इस्तेमाल करके वह भारत क रूस से तेल खरीदने से रोक सके। वर्ष 2022 में जो चीज वरदान लग रही थी वही चीज रूस और पश्चिमी देशों के बीच टकराव की आनुषंगिक क्षति लगने लगी है।
पाकिस्तान पर प्रतिबन्ध लगाने से कतराता रहा SCO
एससीओ की छवि एक एशियाई संगठन की रही हो जो अमेरिकी प्रभुत्व के प्रतिरोध का मंच है। हालाँकि कई आन्तरिक अंतर्विरोधों की वजह से एससीओ की यह आकाँक्षा दबी हुई है। भारत और चीन के नाजुक रिश्तों के साथ ही हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच विवाद भी इस संगठन पर साये की तरह मंडराता रहता है। आतंकवाद निरोध एससीओ के गठन के मूल उद्देश्यों में से एक था मगर चीन के संरक्षण के चलते एससीओ पाकिस्तान पर प्रतिबन्ध लगाने से कतराता रहा है। भारत एससीओ के इस दोहरे चरित्र को लगातार उजागर करता रहा है। भारत चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव का भी अनुमोदन नहीं करता है।
अगर पाकिस्तान तियानजिन में भारत के साथ वार्ता का मुद्दा उठाये तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। चीन के साथ गहराते रिश्ते और अमेरिका से सम्बन्धों में सुधार से पाकिस्तान की ठण्डी पड़ी कूटनीति को ताजा हवा मिल गयी है। पाकिस्तान के करीबी तुर्की और अजरबैजान भी एससीओ के सदस्य हैं इसलिए शाहबाज शरीफ को तियानजिनम में फोटो खिंचाने और राजनीति चमकाने के कई मौके मिलेंगे।
भारत के लिए यह असुविधाजनक होगा कि इसके सारे पड़ोसी (बांग्लादेश और भूटान को छोड़कर) तियानजिन में मौजूद होंगे। अफगानिस्तान पर्यवेक्षक की भूमिका होगा। मालदीव, म्यांमार, नेपाल और श्रीलंका एससीओ के जुड़े हुए हैं। चीन एससीओ में शामिल होने के लिए बांग्लादेश की मदद कर रहा है। SAARC के व्यावहारिक रूप से मरणासन्न (इसका आखिरी सम्मेलन 2014 में हुआ था) हो जाने की वजह से चीन ने चुपचाप भारतीय उपमहाद्वीप के ज्यादातर देशों को एससीओ के दायरे में ले लिया है। इसके साथ चीन ने कई छोटे गठबंधन भी बढ़ावा दे रहा है। पिछले ही हफ्ते चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने काबुल में अफगानिस्तान और पाकिस्तान के साथ त्रिपक्षीय वार्ता की थी। इस साल की शुरुआत में चीन ने बांग्लादेश और पाकिस्तान के साथ त्रिपक्षीय वार्ता की थी। चीन बांग्लादेश और म्यांमार के साथ अनौपचारिक वार्ता भी जारी रखे हुए है।
इन प्रयासों के तहत चीन खुद को दक्षिण एशिया की सबसे प्रभावशाली शक्ति और ‘उदार मददगार’ के रूप में स्थापित करना चाहता है। पाकिस्तान में वांग ने उपमहाद्वीप की विकास की ‘अपार सम्भावनाओं और प्रतिरोध की क्षमता’ की तारीफ की। चीन ने पाकिस्तान को भरोसा दिलाया कि वह उसका ‘भरोसेमंद साझीदार’ बना रहेगा और उसे ‘मजबूत समर्थन’ देता रहेगा। चीन के नेतृत्व में भारतीय उमहाद्वीप के भविष्य की रूपरेखा तैयार करते समय चीन खुद को न केवल आर्थिक इंजन बल्कि राजनीतिक स्थिरता देने वाली ताकत के रूप में देखता है।
अमेरिका भी दक्षिण एशिया में अपनी भूमिका तलाशने का संकेत दे रहा है। डोनाल्ड ट्रंप ने जिस तरह सर्जियो गोर को भारत में अमेरिकी राजदूत और दक्षिण एशिया के लिए ‘विशेष दूत’ नियुक्त किया है उससे लगता है कि अमेरिका इस क्षेत्र में चीन के प्रभाव को चुनौती देना चाहता है। चीन और अमेरिका जब दक्षिण एशिया को लेकर क्षेत्रीय दृष्टि का विकास करने में लग जाएँगे तो भारत पर रणनीतिक प्राथमिकता खो देने का संकट रहेगा।
एससीओ भारत के लिए अवसर उपलब्ध करा सकता है
फिर भी, एससीओ भारत के लिए अवसर उपलब्ध करा सकता है। चीन के साथ सीमा-विवाद को लेकर बातचीत में सकारात्मक विकास एक स्वागतयोग्य कदम होगा जिससे समझदार पड़ोसी वाले रिश्ते विकसित हो सकते हैं। हालाँकि दोनों देशों की बातचीत से किसी नए बड़े परिणाम की उम्मीद करना यथार्थ से दूर होगा।
अगर तियानजिन में भारत के पास चीन से रिश्ते बेहतर करने का अवसर होगा तो जापान में कूटनीतिक सम्बन्धों को और बेहतर बनाने का मौका होगा। जापान में रक्षा, व्यापार और तकनीकी के क्षेत्र में नई साझीदारी की घोषणाएँ हो सकती हैं।
पीएम मोदी की जापानी नेताओं से बातचीत से उत्तरपूर्वी एशिया में चल रही हलचलों की सटीक जानकारी मिलेगी। जब से डोनाल्ड ट्रंप सत्ता में आए हैं अमेरिका के पुराने साझीदारों को अन्दर से हिला दिया है। जापान, दक्षिण कोरिया और ताइवान पर अप पहले से ज्यादा वाणिज्य कर (टैरिफ) लग रहा है। अमेरिका द्वारा सहयोगियों से रक्षा खर्च बढ़ाने की कठोर माँग की जा रही है। डोनाल्ड ट्रंप सम्पत्ति और टेक्नोलॉजी को अमेरिका में संकेंद्रित करने के लिए सहयोगी देशों पर कमरतोड़ दबाव बनाते जा रहे हैं। हालाँकि ये सहयोग रक्षा मामलों में अब भी अमेरिका पर निर्भर हैं मगर वो नए विकल्पों की भी तलाश करने लगे हैं जिससे वह ज्यादा आत्मनिर्भर बन सकें। पिछले कई सालों से एशिया में अमेरिका पर निर्भर के बाद अब भारत अपनी स्वतंत्र भूमिका पर विचार करेगा। भारत जापान और उत्तरपूर्वी एशियाई देशों के संग स्वतंत्र रणनीतिक सम्बन्धों के विस्तार के लिए प्रयास करेगा।
इसमें कोई शक नहीं है कि भारत की महाद्वीपीय महत्वाकाँक्षाएँ इसके भूगोल एवं चीन-पाकिस्तान के साथ अनसुलझे सीमा विवादों की जद में रहेंगी। इसके उलट, एशियाई देशों के बीच द्विपक्षीय समुद्री साझीदारियों के लिए भारत के पास नए अवसर उपलब्ध हैं। तियानजीन से क्षेत्रीय और वैश्विक आर्डर में बदलाव से जुड़े बड़े जुमलों की उम्मीद की जानी चाहिए, जबकि ठोस रणनीतिक साझीदारी का विकास के लिए जापान पर नजर रखनी होगी।