भारत का भविष्य उसकी कक्षाओं में गढ़ा जा रहा है’। सार्वभौमिक प्रतीत होती इस पंक्ति के साथ कोठारी आयोग ने अपनी विस्तृत रपट 1964 में लिखी और शायद ही सोचा होगा कि इसके छह दशक बाद भी यह भविष्य उन कक्षाओं में रचा जा रहा होगा, जहां मार्गदर्शन के लिए अध्यापक की बाट देखी जा रही है। आज बढ़ती संख्या वाली कक्षाएं अपनी और राष्ट्र की तकदीर लिखने को तैयार बैठी हैं, लेकिन उनमें वह अभिप्रेरणा नहीं है, जो शिक्षक की उपस्थिति से आती है। शिक्षक, जिसे भविष्य गढ़ने का शिल्पी कहा गया, इन कक्षाओं में कम होते जा रहे हैं। परिणाम यह है कि लाखों बच्चे बिना किसी मार्गदर्शन के अपनी किस्मत और देश का भविष्य अंधेरे में गढ़ने को विवश हैं।

हाल ही में आई एक खबर में यह दावा किया गया कि भारत में एक करोड़ शिक्षक चौबीस करोड़ बच्चों को स्कूलों में पढ़ा रहे हैं। यह अनुपात शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिहाज से आदर्श है, लेकिन जमीनी हकीकत उतनी अच्छी नहीं दिखती। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, राजस्थान, कर्नाटक, गुजरात और आंध्र प्रदेश- ये दस राज्य देश की कुल आबादी का लगभग सत्तर फीसद हिस्सा हैं।

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उत्तर प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति पर राज्य की आधिकारिक वेबसाइट पर दर्ज आंकड़े दर्शाते हैं कि पूरे प्रदेश में 1,32,855 सरकारी स्कूलों को 6,03,441 शिक्षक संभाल रहे हैं। औसतन देखें तो हर स्कूल में 4.5 शिक्षक नियुक्त हैं। यहीं से असमानता की असली तस्वीर सामने आती है। इन्हीं आंकड़ों में यह भी दर्ज है कि 8,866 स्कूल ऐसे हैं, जहां सिर्फ एक शिक्षक तैनात है और इन स्कूलों में 6,11,950 बच्चे पढ़ते हैं।

यानी एक शिक्षक को औसतन उनहत्तर बच्चों को ‘पढ़ाने’ की जिम्मेदारी उठानी पड़ रही है। उत्तर प्रदेश की तरह ही अन्य नौ सबसे अधिक आबादी वाले राज्यों की स्थिति भी चिंताजनक है। आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि कुल 10,17,660 सरकारी स्कूलों में से 1,10,971 स्कूल ऐसे हैं, जहां पूरे विद्यालय की बागडोर केवल एक ही शिक्षक के हाथ में है।

‘शिक्षक राष्ट्र निर्माता होते हैं’। यह कहावत आज की हकीकत में कितनी बेमानी लगती है, जब देश के सरकारी स्कूलों में लाखों शिक्षकों की कमी है। सरकारी अनुमानों के मुताबिक, देश में लगभग दस लाख शिक्षकों की तत्काल आवश्यकता है, जिनमें से चार लाख शिक्षकों की जरूरत तो केवल प्राथमिक स्तर पर ही है।

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हालांकि, संख्या के हिसाब से यह कोई असंभव कार्य नहीं है। ठोस कदम उठाए जाएं, तो एक वर्ष के भीतर ही इन रिक्तियों को भरा जा सकता है। मगर यह न केवल शिक्षण के पेशे के प्रति उदासीनता को दर्शाता है, बल्कि देश के करोड़ों बच्चों के भविष्य के प्रति उपेक्षा भी करता है। भले ही भारत सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) का हस्ताक्षरकर्ता है, पर पिछले एक दशक से शिक्षक भर्ती और शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम लगातार अनेक समस्याओं से जूझ रहे हैं।

हर बार कुछ वर्ष में ही शिक्षक और शिक्षा पाठ्यक्रम बिना किसी स्पष्ट दृष्टि के लगातार बनाए और बदले जाते रहे हैं। नीति-निर्माताओं की अटपटी योजनाओं के चलते आज भी इस पर स्पष्टता नहीं है कि एक व्यक्ति को बेहतर शिक्षक बनने के लिए किस तरह की शिक्षा और प्रशिक्षण की आवश्यकता है। शिक्षा क्षेत्र में सेवा की स्थिति और वेतनमान की समस्या आज गंभीर होती जा रही है और इसके निदान के संकेत नहीं मिल रहे। भर्ती प्रक्रिया की अनवरत देरी और ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे की कमी शिक्षण पेशे को अरुचिकर बनाती जा रही है।

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नतीजतन, प्रतिभाशाली और योग्य युवा इस क्षेत्र में आने से कतराते हैं। सवाल है कि जब भविष्य गढ़ने वाले स्वयं ही असुरक्षा और आर्थिक असमानता से जूझ रहे हों, तो शिक्षा की गुणवत्ता और बच्चों का भविष्य किस आधार पर सुरक्षित माना जाए?

शिक्षा व्यवस्था में सुधार के नाम पर लिए गए नीतिगत निर्णय स्थिति को और जटिल बना रहे हैं। राष्ट्रीय शिक्षक पेशेवर मानकों (एनपीएसटी) और हर वर्ष पचास घंटे की अनिवार्य सतत व्यावसायिक विकास (सीपीडी) जैसी पहल शिक्षण को सशक्त बनाने के बजाय बोझिल बना रही हैं। ये कदम अतिरिक्त नौकरशाही बोझ बनकर उभर रहे हैं, जो उनकी स्वायत्तता को कमजोर करते हुए मनोबल गिरा रहे हैं।

नीतिगत विफलताओं का बोझ सीधे शिक्षकों के कंधों पर डालने से पहले यह जरूरी है कि नीतियों पर फिर से सोच-विचार किया जाए। कागजों में शिक्षकों की तुलना गोविंद से करने की भावपूर्ण भाषा का सहारा लेने के बजाय उन्हें वास्तविक सम्मान, गरिमा और पेशेवर स्वायत्तता मिले। जब तक शिक्षा प्रणाली में ऐसे मौलिक बदलाव नहीं होंगे, तब तक शिक्षक महज आज्ञाकारी वेतनभोगी कर्मचारी बनकर रहेंगे और अपने नियंताओं की वैचारिक प्राथमिकताओं और आदेशों का पालन करने के लिए बाध्य होंगे।

इक्कीसवीं सदी में शिक्षक होना अपने आप में एक चुनौतीपूर्ण और जिम्मेदार कर्तव्य बन चुका है। डिजिटल तकनीकों के माध्यम से सूचनाओं तक पहुंच को आसान बनाया जा सकता हैं, लेकिन उसे जीवंत, प्रेरणादायी और परिवर्तनकारी बनाने के लिए शिक्षक का होना आवश्यक है।

शिक्षक केवल ज्ञान का स्रोत नहीं, बल्कि वह प्रेरणास्रोत, मार्गदर्शक और व्यक्तित्व निर्माता होता है जो विद्यार्थियों को सोचने, सवाल करने और खुद को जानने के लिए प्रेरित करता है। अगर आज हम इस मानवीय क्षमता में निवेश नहीं करेंगे, तो एक ऐसी व्यवस्था बनेगी, जहां भारत का भविष्य उसकी कक्षाओं में बिना किसी मार्गदर्शन के एक भ्रम की दुनिया में गढ़ा जा रहा होगा।