देश में ध्वनि प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिए बड़े शहरों में निगरानी तंत्र स्थापित किए गए हैं। इसके बावजूद करोड़ों लोग अब भी ध्वनि प्रदूषण की गिरफ्त में हैं। इसका कारण पर्यावरण को लेकर शासन-प्रशासन का उदासीन रवैया और राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और पर्यावरण मंत्रालय की ओर से वर्ष 2011 में शुरू की गई ‘नेशनल एंबिएंट नाइज मानिटरिंग नेटवर्क’ (एनएएनएमएन) योजना का उद्देश्य शुरुआत में देश के सात प्रमुख महानगरों में सत्तर यांत्रिक तंत्र स्थापित कर ध्वनि प्रदूषण की वास्तविक समय में निगरानी करना था, ताकि आंकड़ों के आधार पर उचित नीतिगत हस्तक्षेप संभव हो सके। मगर धरातल पर इस योजना का कोई प्रभाव नजर नहीं आ रहा है।

इस योजना की शुरुआत देश के सात शहरों में पैंतीस ‘रियल-टाइम मानिटरिंग स्टेशनों’ के साथ हुई थी। योजना के दूसरे और तीसरे चरण में इसका विस्तार क्रमश: पैंतीस नए केंद्रों के साथ करने की बात कही गई थी, लेकिन वर्ष 2021-23 तक यह तंत्र केवल आठ शहरों तक ही पहुंच पाया। जिनमें दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, लखनऊ और बंगलुरु भी शामिल हैं।

हालांकि, इसमें भी जमीनी हकीकत काफी अलग है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ जैसे शहरों में यह प्रणाली एक निष्क्रिय ‘डैशबोर्ड’ तक सीमित रह गई, जहां न तो ध्वनि प्रदूषण के आंकड़े वास्तविक समय में दर्ज हो रहे हैं, न आम नागरिकों को इसकी जानकारी है। न ही कोई ठोस नीतिगत कार्रवाई सामने आई है। जिन केंद्रों पर यह तंत्र ठीक से काम कर रहा है, वहां आंकड़ों का अध्ययन करने और उसके आधार पर नीति बनाने की पहल भी कम ही नजर आती है। इस योजना के तहत तीन प्रमुख शांत क्षेत्रों में दर्ज ध्वनि स्तर दिन में 65-70 डेसिबल (ए) तक पहुंच गया, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से निर्धारित सीमा 40-50 डेसिबल (ए) है। यानी यह तंत्र अपने मूल उद्देश्य और नीतिगत हस्तक्षेप की नींव तैयार करने में विफल रहा है।

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भारत में ध्वनि प्रदूषण एक अदृश्य संकट के रूप में लगातार गहरा रहा है, जो न केवल मानव स्वास्थ्य, बल्कि जैव विविधता को भी प्रभावित कर रहा है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार, देश के प्रमुख महानगरों में दिन के समय ध्वनि स्तर औसतन 65-75 डेसिबल (ए) तक पहुंच जाता है। जबकि रात में यह स्तर 55-65 डेसिबल (ए) तक बना रहता है, जो नींद, तनाव और हृदय पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। ‘लांसेट’ के एक अध्ययन में पाया गया है कि लगातार उच्च ध्वनि स्तर के बीच रहने से हृदय रोग का जोखिम बीस फीसद तक बढ़ जाता है। तब नींद की गुणवत्ता में तीस फीसद तक गिरावट आती है। शहरी क्षेत्रों में रहने वाले लगभग चालीस करोड़ लोग प्रतिदिन सीमा से अधिक शोर के संपर्क में आते हैं।
ध्वनि प्रदूषण का प्रभाव केवल मानव तक सीमित नहीं है।

भारतीय वन्यजीव संस्थान के एक शोध के मुताबिक, सामान्य मैना जैसे पक्षी शहरी शोर के कारण रात में बार-बार जागते हैं, जिससे उनके प्रजनन व्यवहार और सामाजिक संचार पर असर पड़ता है। उनके स्वरों की विशेषता कम हो जाती है, जिससे उनकी पहचान और जोड़ी बनाने की क्षमता प्रभावित होती है। नीतिगत स्तर पर पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत बना ध्वनि प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण) अधिनियम, 2000 मौजूद है, लेकिन इनका क्रियान्वयन बेहद कमजोर है। ध्वनि प्रदूषण अब केवल एक पर्यावरणीय मुद्दा नहीं, बल्कि एक स्वास्थ्य आपातकाल बनता जा रहा है, जिसे तत्काल नीति, निगरानी और जन-जागरूकता से जोड़ना आवश्यक है।

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पर्यावरण मंत्रालय ने इस योजना को शहरों में ध्वनि प्रदूषण से निपटने के लिए एक निर्णायक कदम बताया था, लेकिन अब यह सवाल उठ रहा है कि केवल ध्वनि प्रदूषण के आंकड़ों के संकलन का क्या फायदा है, अगर वह जन-जागरूकता और नीति निर्माण में तब्दील न हो। जब निगरानी केवल दर्ज करने तक सीमित रह जाए और कार्रवाई अनुपस्थित हो, तो साफ है कि यह तंत्र शोर की गूंज को तो दर्ज करता है, लेकिन समाधान की दिशा में मौन साध लेता है। शहरी ध्वनि प्रदूषण पर सरकारी निगरानी तंत्र अक्सर निष्क्रिय ‘डैशबोर्ड’ तक सीमित रह जाता है, जबकि वास्तविक हस्तक्षेप की जरूरत जमीन पर है। यूरोप में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, ध्वनि प्रदूषण लाखों लोगों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है, जिससे उच्च रक्तचाप, हृदय रोग और नींद संबंधी विकार बढ़ रहे हैं।

हाल में राष्ट्रीय हरित अधिकरण की पुणे पीठ ने ‘साइलेंस जोन’ में लाउडस्पीकर और सार्वजनिक उद्घोष प्रणालियों के उपयोग पर रोक लगाई थी। अधिकरण ने पुलिस और राज्य सरकार को निर्देशित किया कि शैक्षिक संस्थानों, अस्पतालों और न्यायालयों के आसपास के क्षेत्रों में ‘साइलेंस जोन’ की पहचान और नियमों का पालन सुनिश्चित किया जाए। इसी पृष्ठभूमि में नवाचारों का महत्त्व और बढ़ जाता है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा वित्तपोषित और डीपीआइआइटी में पंजीकृत नवउद्यम ‘वाईहाक’ पारंपरिक निगरानी से अलग एक नागरिक-केंद्रित दृष्टिकोण अपनाता है। इसने एक आइओटी हार्डवेयर विकसित किया है, जिसे अभी तक छह शहरों में वाहनों के हार्न सर्किट में स्थापित किया जा चुका है।

यह उपकरण वास्तविक समय में हार्न बजाने की समय-सीमा, स्थान, अवधि, स्वरूप (लघु, दीर्घ, बहु-हार्न) और वाहन की गति जैसे आंकड़ों के साथ-साथ चालक की आयु, शिक्षा, अनुभव और हार्न की डेसिबल क्षमता जैसे आंकड़े भी दर्ज करता है। जून, 2022 से अब तक आइओटी ने सरकार और निजी संस्थाओं के साथ मिल कर नौ परियोजनाएं पूरी की हैं, जिनमें सौ से अधिक वाहनों से बत्तीस लाख से अधिक आंकड़े एकत्र किए गए हैं।

जब सरकारी तंत्र अपारदर्शी बना रहता है, तब नवउद्यम ‘वाईहाक’ वाहनों के शोर को दर्ज करता है, इससे न केवल नीति निर्माण को दिशा मिलती है, बल्कि यह व्यवहार परिवर्तन और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए भी एक ठोस आधार तैयार करता है। भारत के शहरी क्षेत्रों में ध्वनि प्रदूषण दशकों से निर्धारित मानकों से ऊपर बना हुआ है, जो नागरिकों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर गंभीर असर डाल रहा है। यह केवल मानव जीवन तक सीमित नहीं है; शहरी शोर पक्षियों की नींद और प्रजनन व्यवहार को भी प्रभावित कर रहा है, जिससे पारिस्थितिकी संतुलन बाधित हो रहा है।

यह चुनौती सीधे सतत विकास लक्ष्यों, विशेषकर स्वास्थ्य और सुरक्षित शहरों से जुड़ी है। वर्तमान निगरानी तंत्र अक्सर निष्क्रिय या अपारदर्शी बने रहते हैं। अगर कहीं निगरानी तंत्र सक्रिय भी है, तो उसके आंकड़ों का इस्तेमाल नहीं हो रहा है। इसलिए आवश्यक है कि तकनीकी नवाचारों को प्रभावी नीति हस्तक्षेप, शहरी नियोजन सुधार और सामुदायिक जागरूकता के साथ जोड़ा जाए, ताकि शहरी जीवन को प्रदूषण के दबाव से छुटकारा मिल सके और विकास लक्ष्यों को पर्यावरण के अनुकूल ठोस और सही दिशा मिल सके।