इक्कीसवीं सदी अपनी रजत जयंती मना रही है। इस सदी के युवाओं की पहली खेप उस उम्र में आ चुकी है जब उसकी प्राथमिकता रोजगार की मांग होती है। डिजिटल युग की प्रतिनिधि कथित ‘जेन जी’ को जब बाजार महज एक उपभोक्ता की तरह देख रहा था और उसे सिर्फ मौज-मस्ती करने की सलाह दे रहा था तभी उसने सत्ता से गंभीर सवाल पूछने शुरू कर दिए। दुनिया भर की ‘जेन जी’ अपने देश की सत्ता को यह बता रही है कि रोजी-रोटी गूगल से डाउनलोड नहीं हो सकती हैं। सत्ता में भाई-भतीजावाद ने भ्रष्टाचार को चरम पर पहुंचा दिया है और दुनिया के ज्यादातर देशों में पैसा कुछ खास तबके तक सीमित हो गया है। ‘जेन जी’ देख रही है कि सत्ताधारियों से जुड़ी संततियों के पास पैसे का पहाड़ है तो उनके पास अदद रोजगार तक नहीं है। एशियाई देशों से लेकर यूरोप व अमेरिका में जनता भ्रष्टाचार से त्रस्त है और सड़कों पर उतर रही है। नेपाल में सत्ताधारी वर्ग में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के खिलाफ इक्कीसवीं सदी की संतति ने जो संनाद किया है उसे समझने की कोशिश करता बेबाक बोल।
पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश और अब नेपाल। पिछले कुछ समय में इन पड़ोसी देशों में सत्ता और जनता के बीच ऐसा टकराव देखा गया जिसमें हिंसा की हदें पार हुईं। आम जनता ने ऐसी बगावत की कि कहीं प्रधानमंत्री को देश छोड़ कर भागना पड़ गया तो कहीं राष्ट्रपति को। संसद में तोड़फोड़ हुई, राजप्रासाद जलाए गए। सत्ता से जुड़े नेताओं के साथ खौफनाक हिंसा हुई।
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पड़ोसी देशों में लगातार ऐसे खौफनाक हाल के बाद हर बार भारत में भी सवाल पूछा गया कि कहीं हमारे देश में भी ऐसा हुआ तो? प्राक्कल्पना पर आधारित इस सवाल का जवाब है, गांधी। भारत की आजादी के आंदोलन की बुनियाद अहिंसा पर रखी गई। बिना खड्ग, बिना ढाल के ब्रितानी हुकूमत से मिली आजादी वैश्विक इतिहास में भारत का अपना कमाल है। इस कमाल की कमान संभाली थी महात्मा गांधी ने। किसी भी इमारत की मजबूती इस बात से तय होती है कि उसकी बुनियाद कैसी है। भारत की बुनियाद में गांधी हैं, अहिंसा है। भारत की संस्कृति ने अहिंसा को अपना परम धर्म बनाया।
महज एक दशक पहले भारत में बड़ा राजनीतिक बदलाव हुआ। पूरी तरह विचारधारात्मक बदलाव। आम भाषा में जिसे तख्तापलट कहते हैं, वह भी भारत में एक अहिंसक आंदोलन से शुरू हुआ। देश की राजधानी दिल्ली के जंतर मंतर और रामलीला मैदान में गांधी की तस्वीर की दुहाई देकर ही भ्रष्टाचार के खिलाफ सत्ता परिवर्तन की मांग की गई। दिल्ली से शुरू हुआ आंदोलन स्वत: स्फूर्त पूरे देश में फैल गया। इस आंदोलन के सदके, देश की जनता ने देश के राजनीतिक मंच के पूरे किरदार बदल दिए। जिस पार्टी को लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता से हटाया गया आज वह गांधी के नाम पर ही पूरे लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता में वापसी की कोशिश कर रही है।
नाम चाहे अण्णा आंदोलन दिया गया, आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ, भाजपा केंद्रीय शक्ति बनी। इतना बड़ा बदलाव अगर लोकतांत्रिक तरीके से हुआ तो इसकी एकमात्र वजह आजाद भारत की नींव में गांधी की अहिंसा का होना ही है। साथ ही अहम यह है कि राजनीतिक परिवर्तन के लिए राजनीति की राह चुनी गई। आंदोलन के जरिए पहले नया नेतृत्व खड़ा किया गया तब राजनीतिक बदलाव की बात की गई। भारत में शुरू हुआ यह आंदोलन 2014 के लोकसभा चुनाव के साथ शांतिपूर्वक संपन्न हो गया।
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पहले बांग्लादेश में छात्रों का आंदोलन और अब नेपाल के युवाओं का। संदेश तो हर जगह के शाह-जादों के लिए है कि अमीर-गरीब के बीच की खाई इतनी मत बढ़ाइए कि देश के ढांचे का ही भूस्खलन हो जाए। भारतीय उपमहाद्वीप और इससे जुड़े क्षेत्रों में नवउदारवादी नीतियों को तीन दशक से ज्यादा हो गए हैं। अब हर जगह उसका असर साफ-साफ दिखाई दे रहा है। नेपाल के आंदोलन को ‘जेन जी’ का आंदोलन कहा गया।‘जेन जी’ शब्द ही नवउदारवादी संस्कृति का दिया हुआ है।
हर समय में एक युवा पीढ़ी होती है जो समसामयिक तकनीक को लेकर आगे बढ़ती है। डिजिटल के बाजार ने नब्बे के दशक के मध्य से लेकर 2010 की शुरुआत तक के जन्मे लोगों को ‘जेन जी’ का नाम दिया जो इंटरनेट और सोशल मीडिया मंचों के साथ बड़े हुए। बाजार और मीडिया से जुड़े क्षेत्रों ने ‘जेन जी’ शब्द को व्यापक आधार दिया।
नवउदारवादी मंचों के जरिए रोजी-रोटी जैसे बुनियादी मुद्दे की बहस को बीसवीं सदी में ही छोड़ कर इंटरनेट और फोन को ही खुशहाली का आधार मानने की कोशिश की गई। इस ढांचे में कल-कारखाने कम हो रहे थे और बाजार बढ़ रहा था।
इसी नवउदारवादी दौर में राजीतिक संदर्भ में देखें तो एकाधिकार की प्रवृत्ति लगातार बढ़ती गई। भ्रष्टाचार का एकाधिकार के साथ गहरा रिश्ता है।
संसाधनों को कुछ खास तबके के भाई-भतीजावादमें सीमित कर दीजिए तो भ्रष्टाचार में ज्यादा भटकाव नहीं होता है और केंद्रीकृत तरीके से एक तबका बहुत धनवान बन जाता है। नेपाल में हुए इस आंदोलन के मूल में यही भ्रष्टाचार है। पाकिस्तान में भी यही देखा गया था। वहां भी भ्रष्टाचार के कारण गरीब और अमीर के बीच की खाई बहुत बढ़ गई थी। श्रीलंका और बांग्लादेश में भी एक बहुत बड़ा तबका ऐसा था जिसकी आर्थिक हालत खस्ता हो गई थी।
यह तो सर्वमान्य तथ्य है कि कथित ‘जेन जी’ की यह पीढ़ी सूचित है। उसके पास वे सूचनाएं भी होती हैं जो मुख्यधारा का मीडिया सामने नहीं आने देता। सूचना का पूरी तरह विकेंद्रीकरण हो चुका है। सत्ताधारियों की संततियों की लगातार बढ़ती संपत्ति कई देशों में बहस का विषय बन चुकी है। संसाधनों से वंचित तबका सत्ताधारियों से पूछ रहा है कि तुम्हारी संतति के पास इतनी संपत्ति क्यों?
अर्थव्यवस्था जब एकाधिकार में संकुचित हो जाती है तो सबसे बड़ी किल्लत रोजगार की होती है। नेपाल अप्रवासी कामगारों के देश के रूप में तब्दील हो चुका है। लगभग 2.97 करोड़ की जनसंख्या वाले देश की 15 फीसद जनसंख्या विदेशों में काम कर रही है। इनमें ज्यादातर लोगों को विदेशों में भी मजदूरी या अन्य सेवा सहायकों जैसे असंगठित क्षेत्र में ही रोजगार मिलता है। इसलिए वहां उनकी सामाजिक व राजनीतिक हैसियत कमतर ही होती है।
नेपाल की नई पीढ़ी रोजगार के साथ अपनी अस्मिता के भी इस संकट से जूझ रही है। युवा पीढ़ी ने महसूस किया कि उनकी समस्याओं की जड़ में भ्रष्टाचार है जो सत्ता द्वारा पोषित व संरक्षित है।
नेपाल में सोशल मीडिया मंचों का प्रतिबंधित होना युवाओं को सड़क पर उतार देने का महज एक तात्कालिक कारण ही था। वहां के युवाओं का आंदोलन सिर्फ सत्ताधारी दलों के खिलाफ नहीं हुआ। भ्रष्टाचार ने जब नेपाल की राजनीति से लेकर अर्थव्यवस्था को पूरी तरह खोखला कर दिया तो वहां के युवाओं ने पूरे राजनीतिक ढांचे को ही खारिज कर दिया है। अभी वहां ‘अ’ का राजनीतिक विकल्प ‘ब’ नहीं है। विकल्प युवाओं की ओर से ही पेश किया गया।
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सबसे बड़ा सवाल है कि अब आगे क्या होगा। जहां पूरा राजनीतिक ढांचा ही ध्वस्त कर दिया गया है वहां आंदोलन को नेतृत्व कौन देगा? सबसे अहम तथ्य यह है कि जिन देशों में जनता विद्रोह कर रही है वहां की चुनावी संस्थाओं पर भी सवाल उठ चुके हैं। जनता का आरोप है कि सत्ताधारी दल चुनावी प्रक्रिया को अपने पक्ष में कर लेते हैं। जब जनता को चुनावी प्रक्रिया पर ही भरोसा नहीं रहेगा तो फिर बदलाव का राजनीतिक ढांचा कैसे तैयार होगा। नेपाल में युवाओं ने आंदोलन कर दिया है, पर इससे वहां की जनता की मुश्किलों का किसी भी तरह से हल निकलते नहीं दिख रहा है।
नेपाल के हालात से अन्य देशों के लिए सबक जरूर निकल रहा है। किसी पीढ़ी के साथ ‘ए’ लगा दीजिए या ‘जेड’, रोजगार तो हर किसी को चाहिए। अभी तक बाजार के लगाए चश्मे से हम ‘जेन जी’ को एक उपभोक्ता के रूप में ही देख रहे हैं। पिछले दिनों भारत में ‘सैयारा’ फिल्म को लेकर पूरी ‘जेन जी’ पीढ़ी मजाक भरे रील की जद में आ गई। क्या यह पीढ़ी रोती भी है? जी, यह पीढ़ी रोती है, गाती है, हंसती है, लड़ती है यानी वह सब कुछ करती है जो इसके पहले की युवा पीढ़ियां करती रही हैं। हां, इस ‘जेन जी’ और पहले के युवाओं में एक समानता और भी है। ‘जेन जी’ को भी भूख लगती है। इन्हें भी ऐसे रोजगार की दरकार होती है जो रोटी दे सके।
रोजी-रोटी गूगल से डाउनलोड नहीं हो सकती हैं। हर देश की सरकार से युवा पीढ़ी रोजी-रोटी के सवाल करती ही है। एशिया से लेकर यूरोपीय और अमेरिकी देशों तक में सत्ता से ऐसे सवाल बढ़ रहे हैं और जवाब कहीं मिल नहीं रहे हैं। जवाब के नाम पर अगर कहीं सत्ता परिवर्तन हुआ भी हो तो वहां किसी तरह का ढांचागत परिवर्तन नहीं हो पाया। बदलाव के लिए बगावत के बावजूद जनता को किसी भी तरह की राहत नहीं मिल रही है। इक्कीसवीं सदी की पहली युवा पीढ़ी ने अभी तो सवालों की शुरुआत भर की है।