नेपाल में जो ‘जेन जेड’ युवाओं की क्रांति शुरू हुई है, उसमें एक अति-महत्त्वपूर्ण संदेश हमारे राजनेताओं के लिए है, लेकिन क्या उन तक पहुंचेगा यह संदेश? पिछले सप्ताह जो हिंसा और अराजकता हमने देखी, जो देखते-देखते काठमांडो से देहातों में फैली थी, उसका अभी तक संदेश हमारे राजनीतिक पंडितों ने सिर्फ यह समझा है कि नेपाल के शासकों के भ्रष्टाचार के कारण ऐसा हुआ है।

थोड़ा ध्यान देकर आपने अगर काठमांडो की सड़कों पर निकले युवाओं की बातें सुनी होंगी तो ‘नेपो-किड्ज’ शब्द भी सुना होगा। इसका अनुवाद हिंदी में करना मुश्किल है, लेकिन मतलब इसका यही है कि नेपाल के बेरोजगार और निराश युवाओं का आक्रोश इसको लेकर भी है कि उनकी उम्र के राजनेताओं के बच्चे विदेश में ऐसे रह रहे हैं, जैसे की राजशाही के समय राजकुमार और राजकुमारियां रहते थे। सोशल मीडिया से उन्हें मालूम हुई हैं ये सारी बातें, इसलिए कि राजनेताओं के बच्चों ने फेसबुक, मेटा और एक्स पर अपनी तस्वीरें डालकर साबित किया अपने देशवासियों के सामने कि वे कितने अमीर हैं। मैंने कुछ तस्वीरें जो देखी हैं, उनमें दिखती हैं युवतियां महंगे गहने और डिजाइनर कपड़े पहने हुए।

नेपाली युवा रोजगार के लिए भारत आकर घरेलू काम करने को विवश हैं

इन तस्वीरों को देखकर मुझे भी अजीब लगा कि जिस देश में इतनी बेरोजगारी है कि नेपाली युवा दिल्ली और मुंबई आते हैं रोजगार की तलाश में और कई तो ऐसे हैं जो वर्षों यहां नौकरी करते हैं। घरेलू नौकरों का काम करते हों या किसी होटल में, वे भारत में इतना कमा लेते हैं कि अपने बुजुर्ग माता-पिता के लिए पैसा हर महीने भेज सकें। जितना कमा लेते हैं मुंबई और दिल्ली में इतनी कमाई उनकी नेपाल में नहीं हो सकती है। मुंबई में मैं कुछ नेपाली युवाओं को जानती हूं और याद है मुझे कि जब श्रीलंका में दो साल पहले युवाओं ने क्रांति की थी, इन युवाओं ने मुझे कहा था कि ‘ऐसा नेपाल में भी जरूर होने वाला है’। खैर! वापस लौटते हैं उस ‘नेपो-किड्ज’ वाले संदेश पर। बेरोजगारी अपने भारत देश में भी युवाओं के लिए सबसे बड़ी समस्या है।

नेपाल में Nepo Kids से क्रोधित Gen Z ने गिरायी सरकार, भारत में किस दल में हैं सबसे ज्यादा वंशवाद

हाल में इंडिया टुडे के ‘मूड आफ द नेशन’ सर्वेक्षण ने यह साबित किया और इस ही सर्वेक्षण को आप पिछले कई वर्षों से देख रहे होते तो आपको दिखा होगा कि उन वर्षों में भी सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी ही रही है। हमारे देश में भी देहातों और छोटे शहरों में बेरोजगार युवा आजकल सोशल मीडिया पर हैं, जहां से उन्हें मालूम अवश्य होता होगा कि राजनेताओं के बच्चों और उनमें कितना अंतर है।
भारत में शायद ही किसी बड़े राजनेता के बच्चे होंगे, जिनकी पढ़ाई विदेश में न हुई हो।

यकीन नहीं है तो निजी तौर पर सर्वेक्षण कर लेना। जो राजनेता कहते फिरते हैं कि भारत में अंग्रेजी बोलने वालों को शर्मिंदा करने का समय आ गया है, उनके भी बच्चे विदेश में जाते हैं पढ़ाई करने। मजे की बात यह है कि अक्सर इतनी महंगी पढ़ाई हासिल करने के बाद भी लोकतंत्र के ये राजकुमार वतन वापस लौटने के बाद कोई अच्छी नौकरी नहीं ढूंढ़ पाते हैं या ढूंढ़ना नहीं चाहते हैं, इसलिए कि वे जानते हैं कि मां या पिता की मेहरबानी से उन्हें किसी न किसी सुरक्षित चुनाव क्षेत्र से लड़ाया जाएगा कभी न कभी। जीत गए तो बन जाएंगे उनके राजनीतिक वारिस। ढूंढ़ने पर आपको शायद ही मिलेगा राष्ट्रीय स्तर पर कोई विपक्षी राजनीतिक दल जो किसी परिवार की निजी कंपनी न बन गया हो।

नेपाल में आजादी की आवाज क्यों बनी गुस्से की लहर? सोशल मीडिया पर प्रतिबंध से पहले भरोसे में क्यों नहीं लिया?

वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब राष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक में आए थे 2014 में, उनकी एक यादगार बात यह थी: ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’। आम लोगों को उनकी यह बात बहुत अच्छी लगी थी। दशकों से देखते आए थे इस देश के आम लोग किस तरह कांग्रेस पार्टी को परिवार की सीमा में तब्दील किया गया था। चुनाव प्रचार के दौरों पर उस समय मुझे मिले थे कई लोग, जिन्होंने कहा था कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भ्रष्टाचार जरूर कम होगा। कहने का मतलब यह है कि ऐसा नहीं है कि भारत के मतदाता जानते नहीं हैं अच्छी तरह कि हमारी सबसे बड़ी राजनीतिक बीमारी भ्रष्टाचार है, जिसे कायम रखते हैं हमारे देश के ‘नेपो-किड्ज’।

जानते यह भी होंगे आम मतदाता कि मोदी के दौर में उनके मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के घरों में कितने ‘नेपो-किड्ज’ हैं। कुछ ऐसे हैं जो सीधे राजनीति में लाए जाते हैं और कुछ ऐसे हैं जिनको खेल की दुनिया में बड़े-बड़े ओहदों पर बिठाया जाता है, बावजूद इसके कि उनमें क्रिकेट, हाकी जैसे खेलों में पहले कोई रुचि न दिखी हो। कुछ ‘नेपो-किड्ज’ हैं जिनको पिता की मेहरबानी से मिल जाते हैं विदेश में सरकारी संस्थाओं के ऊंचे ओहदों पर जगह।

ऐसा नहीं कह रही हूं कि जो नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश में हुआ है, वैसा युवाओं का इंकलाब हम भारत में भी देखेंगे निकट भविष्य में, लेकिन ऐसा जरूर कह रही हूं कि जिन राजनेताओं ने ‘नेपो-किड्ज’ पालने की गलत प्रथा शुरू की है उन्हें सावधान हो जाना चाहिए। ऐसा भी कहना चाहती हूं कि अराजकता और क्रांति के इस मौसम में भारत को ऐसी आदतों को नहीं समर्थन देना चाहिए, जो देश की छवि को खराब करती हैं।

उल्टा हमको लोकतंत्र की एक ऐसी चमकती मिसाल की तरह बनना चाहिए, जो हमारे पड़ोसी देश देखकर नकल करना चाहें। बेरोजगार युवा हमारे देश में भी हैं, जिनको कभी जीवन में वह अवसर नहीं मिलते हैं, जो राजनेताओं के नेपो-बेबी को पैदा होते ही मिलते हैं। लोकशाही और राजशाही में अंतर यही है कि लोकतांत्रिक देशों में न राजाओं और रानियों की जगह है और न उनके ‘नेपो-किड्ज’ की।