मानव सभ्यता का जन्म प्रकृति की गोद में उस काल में हुआ जब हमारे पूर्वज जंगल, नदी, पहाड़ आदि क्षेत्रों के समीप रहते थे। मूल रूप से वे प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर थे और कंद-मूल-फल सेवन करते हुए प्रकृति के नियमों के पालक भी थे। व्यक्ति अपने को प्रकृति का अनुयायी मानकर उसके हर मौसमी चक्र से अपने को आत्मसात करना अपनी निर्बाध नियति मानता था। प्राकृतिक रौद्र आज की अपेक्षा उस काल में काफी सीमित थे, क्योंकि लोग प्रकृति से संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता से भी जुड़े हुए थे। सभी मौसम अपने दायित्व संचालन में मानवीय आचरण के विभिन्न पहलुओं से तादात्म्य स्थापित किए हुए थे।
अतिवृष्टि और अनावृष्टि की घटनाएं कम हुआ करती थीं, क्योंकि प्रकृति अपने संतान को दुख या विपदा देने की स्थिति से हरसंभव परहेज करती थी। यों कहें कि उस कालखंड में मानव और प्रकृति एक दूसरे के पूरक और सहयोगी माने जाते थे। क्रमश: कृषि के धरती पर आगमन ने मानव प्राणी को एक अलग परिधि से युक्त करते हुए उसकी भूख को कृषि संसाधनों के विविध आयाम से सामंजस्य बनाने में अहम भूमिका निभाई। कृषि के विभिन्न प्रकल्पों के चयन से अनेक किस्म के अनाजों के उत्पादन की विधा रची गई, जिसका मूल आधार प्रकृति प्रदत वर्षा के जल को स्वीकार किया गया।
धीरे-धीरे मानवीय सभ्यता के विकास की गति जब तेज हुई तो हम सबकी आवश्यकताओं में भी स्वाभाविक रूप में वृद्धि के द्वार खुलने लगे। धरती ने व्यक्ति को यह संदेश दिया कि तुम मुझे जो अंश हस्तगत करोगे, उसे मैं कई गुना की मात्रा में वापस कर दूंगी। यह प्रक्रिया आज भी शाश्वत है। एक मुट्ठी बीज रूपी अनाज की वापसी कई किलोग्राम के रूप में हमें धरती से होती है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश को विकास की दौड़ में आगे बढ़ने की चुनौती और आवश्यकता थी। मानवीय और वित्तीय संसाधनों की सीमा में देश ने अनेक योजनाओं को शुरू करके विकास की पटकथा लिखना शुरू कर दिया, लेकिन चूक यह हुई कि प्रगति के लक्ष्य-बिंदु को शीघ्रता में स्पर्श करने की अदम्य प्यास ने हमें प्राकृतिक संसाधनों के असीमित भंडार में सेंध लगाने के दुस्साहस से भी लैस कर दिया। इस स्थिति में हम यह आकलन नहीं कर पाए कि विकास का अंतिम लक्ष्य क्या होगा, इसके योजना स्रोत कहीं हमारी प्राकृतिक संपदाओं में क्षरण तो नहीं ला रहे हैं!
अंतहीन विकास का घनघोर जुनून अभी भी हम पर सवार है कि हमारे कदम रुक नहीं पा रहे हैं। आर्थिक और तकनीकी रफ्तार यह मूल्यांकन करने से परहेज कर रहा है कि जिस दिशा में विकास के ध्वज लहराए जा रहे हैं, वे हमारे भविष्य एवं भावी संतति के लिए कितना उपयोगी हैं। वैज्ञानिक प्रयोग ने यह सिद्ध किया है कि हम जो जल पी रहे हैं, अनाज और अन्य खाद्यान्न सामग्री सेवन कर रहे हैं और जो आक्सीजन ले रहे हैं, उसकी बुनियादी क्षमता में तेजी से क्षरण हो रहा है, क्योंकि इसके मूल अस्तित्व के प्रति हमारी मानवीय और पारंपरिक संवेदनाएं एकपक्षीय तौर पर कठोर हो गई हैं। यही कारण है कि विगत कई माह से प्रकृति ने अपने स्वभाव में रूखेपन से यह चेतावनी जारी की है कि समय रहते हम चेत जाएं, अन्यथा उसके रौद्र में और अधिक भयावहता होगी।
हाल में हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर के पर्वतीय क्षेत्रों में जलचक्र के बदलाव के कारण बादल फटने के बाद हुई हृदयविदारक स्थितियां स्तब्ध करने वाली हैं। कभी ऐसे क्षेत्रों में मानवीय गतिविधियां न्यूनतम हुआ करती थीं, लेकिन विगत वर्षों में तथाकथित असंतुलित विकास कार्यों की कड़ी में हुई वृद्धि के कारण बड़ी संख्या में पेड़ों की कटाई, वनों में अग्नि प्रदाह और पर्यटन के लिए अविवेकपूर्ण निर्माण कार्यों ने स्थानीय पारिस्थितिकी को बुरी तरह अपनी चपेट में ले लिया है।
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पहाड़ी क्षेत्र के नागरिकों की भी आधुनिक सुख-सुविधाएं और बुनियादी जरूरतें पूरी होनी चाहिए, लेकिन इन्हें मुहैया कराने के मूल्य पर इन क्षेत्रों की नाजुक पर्यावरणीय स्थितियों को भी ध्यान रखना आवश्यक है। विडंबना है कि पर्वतीय क्षेत्रों में वहां के नागरिकों की आवश्यकता से अधिक वहां जाने वाले पर्यटकों की सुविधा की प्राथमिकता हो गई है।
नदी और पर्वतीय क्षेत्र को काटकर वहां आलीशान होटल, पनबिजली संयंत्रों, औद्योगिक इकाई आदि के निर्माण ने भारी संकट ला दिया है। वर्ष 2013 में केदारनाथ की घटना में कई हजार यात्री काल के गाल में समा गए थे और धराली की तरह कई गांव बह गए थे। चिंतनीय स्थिति यह है कि पूर्व की आपदा से हम कुछ सीखते नहीं, बल्कि आत्मघाती उदासीनता की चादर ओढ़ कर भाग्य भरोसे हो जाते हैं।
आपदाएं चाहे मानव निर्मित हो या प्राकृतिक, देश की प्रगति को काफी पीछे ले जाती हैं। बाढ़, भूकम्प, अकाल, चक्रवात, भूस्खलन, हिमस्खलन और कोरोना जैसी महामारी जन मानस को असीमित नुकसान पहुंचाते हुए राज्य की आधारभूत संरचनाओं को भी नष्ट कर देती हैं।
प्रकृति ने मनुष्य के लिए मिट्टी, जल, हवा और वन संपदा मुहैया कराया है, लेकिन ये शृंखलाएं आज टूटती नजर आ रही हैं। जरूरत इस बात की है कि अभी भी हम प्रकृति के अस्तित्व को समझने और स्वीकारने की चेष्टा करें। अन्यथा जब प्रकृति नाराज होकर अपना रौद्र रूप धारण करेगी तो हम सबकी मुस्कान अंधेरे और विनाश में जाने को बाध्य होगी। प्रयास हो कि सुबह के भूले शाम को घर वापसी के तर्ज पर असामान्य होती जीवनशैली में सुधार करते हुए हम प्रकृति के विविध स्वरूपों को जीवन की संजीवनी बूटी की शक्ति के रूप में अपनाएं। स्वार्थ के सागर में भौतिक प्यास सदैव अधूरी ही रही है। सवाल बुनियादी है कि आखिर हम विनाश के दर्पण में विकास का प्रतिबिंब क्यों तलाशें!