मैं पोप पाल (छठे) की सराहना करता हूं, जिन्होंने वर्ष 1965 में कहा था- ‘अब और युद्ध नहीं, फिर कभी युद्ध नहीं’। युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं करते। ये केवल आक्रोश पैदा करते हैं और शत्रुता को गहरा करते हैं। दुनिया के 51 देशों ने वर्ष 1945 में उच्च उद्देश्यों के साथ संयुक्त राष्ट्र की स्थापना की थी: सभी देश शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व में रहें, समृद्ध हों और अपने नागरिकों के जीवन को बेहतर बनाएं। मगर निष्कर्ष यह निकला है कि संयुक्त राष्ट्र विफल रहा है। इसके रहते पिछले अस्सी वर्षों में कई युद्ध हुए हैं। इस समय दुनिया में दो युद्ध चल रहे हैं।

रूस-यूक्रेन

यूक्रेन युद्ध 24 फरवरी, 2022 को रूस की ओर से यूक्रेन पर आक्रमण के साथ शुरू हुआ था। सोवियत संघ के सुनहरे दिनों में यूक्रेन उसका एक गणराज्य था। यूक्रेन में रूसी मूल के और रूसी भाषी लोग रहते थे। वर्ष 1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ, तो यूक्रेन एक संप्रभु राष्ट्र बन गया। वर्ष 2014 और 2022 के बीच, रूस ने क्रीमिया, दोनेत्स्क और लुहांस्क पर जबरन कब्जा कर लिया। ये कब्जे अब स्थायी प्रतीत होते हैं। यूक्रेन पर आक्रमण के लिए रूस ने तर्क दिया था कि उसने नाटो का सदस्य बनने के लिए आवेदन किया था और नाटो देश अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करने तथा रूस को घेरने के लिए यूक्रेन का इस्तेमाल कर रहे थे।

यूक्रेन एक संप्रभु देश है। चाहे वह नाटो का सदस्य बने या नहीं, उसे अपने अस्तित्व का अधिकार है और दुनिया को उसकी स्वतंत्रता एवं सुरक्षा की गारंटी देनी चाहिए।

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युद्ध यूक्रेन के अस्तित्व के लिए खतरा है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार निगरानी मिशन के मुताबिक, यूक्रेन में 10 सितंबर, 2025 तक कम से कम 14,116 लोग मारे गए और 36,481 लोग घायल हुए। यूक्रेन में बहुत तबाही हुई है: अस्पताल, स्कूल, आवास और उद्योग आदि तहस-नहस कर दिए गए हैं। लाखों नागरिक देश छोड़कर भाग गए हैं (56 लाख) या अपने ही देश में विस्थापित हो गए हैं (37 लाख)। दोनों ओर के सैनिकों की कुल हताहत संख्या दस लाख से ज्यादा है, जिसमें उत्तर कोरियाई सैनिक भी शामिल हैं।

इस युद्ध में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप से परहेज कर रहे पश्चिमी देशों की ओर से अरबों डालर के हथियार और सैन्य उपकरण उपलब्ध कराए जाने के बावजूद, ऐसा लगता है कि यूक्रेन एक हारा हुआ युद्ध लड़ रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन पर युद्ध रोकने के लिए दबाव डाल सकते हैं, लेकिन वे ऐसा करने को तैयार नहीं हैं। इस युद्ध में यूक्रेन का नैतिकता और वैधता के मामले में पक्ष सही है, लेकिन अमेरिका के ढुलमुल रवैये और संयुक्त राष्ट्र की नाकामी से वह असहाय स्थिति में है। इतिहास यूक्रेन युद्ध को दो राष्ट्रों के बीच लड़े गए सबसे निरर्थक, अनैतिक और असमान युद्धों में से एक के रूप में दर्ज करेगा।

इजराइल-हमास

दूसरा युद्ध हमास की ओर से शुरू किया गया था, जो एक उग्रवादी समूह है और फिलिस्तीन के एक हिस्से गाजा पर शासन करता है। इस क्षेत्र ने कई युद्ध देखे हैं। इस इतिहास के बावजूद, सात अक्तूबर, 2023 को हमास की ओर से इजराइल पर किया गया हमला पूरी तरह से बिना उकसावे वाला और निंदनीय था। इस हमले में 1200 इजराइली (ज्यादातर नागरिक) मारे गए। हमास ने इजराइल के 251 लोगों को बंधक भी बनाया; कुछ अभी भी उसके कब्जे में हैं। इजराइल एक सशक्त देश है। उसने गाजा से सभी लोगों को बेदखल करने और पूरे फिलिस्तीन पर कब्जा करने के इरादे से लगातार कई दिशाओं में हमला किया है। इजराइल, फिलिस्तीन के दूसरे हिस्से वेस्ट बैंक के अधिकांश भाग पर पहले से ही नियंत्रण रखता है।

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इजराइल द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का कट्टर विरोधी है। गाजा में 67,000 लोग मारे गए हैं, जिनमें ज्यादातर महिलाएं और बच्चे हैं, और वहां बुनियादी ढांचा लगभग पूरी तरह से नष्ट हो गया है। लोग भोजन, पानी और दवाओं के बिना मर रहे हैं। हमास के हमले का बदला लेने के लिए इजराइल का जवाबी हमला स्वाभाविक था, लेकिन अब यह जरूरत से ज्यादा और लंबा हो गया है। इसका उद्देश्य अवैध और अस्वीकार्य है। फिलिस्तीनियों को अपने देश का अधिकार है।

निरर्थक युद्ध

अभी यह ज्ञात नहीं है कि हमास अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की 20-सूत्रीय ‘शांति योजना’ को पूरी तरह स्वीकार करेगा या नहीं, जो इजराइल की मांगों का काफी हद तक समर्थन करती प्रतीत होती है। अगर हमास पीड़ित फिलिस्तीनियों को तुरंत राहत देने के पक्ष में है, तो उसके पास शायद कोई विकल्प नहीं होगा। ‘शांति योजना’ को स्वीकार करने का मतलब होगा कि फिलिस्तीन के भविष्य को बाहरी नियंत्रण में सौंपना, और यह भी स्पष्ट नहीं है कि 157 देशों द्वारा मान्यता प्राप्त फिलिस्तीन कभी एक संप्रभु राष्ट्र बनेगा भी या नहीं। हमास और फिलिस्तीनी जनता के बीच अंतर करना होगा। यह हमास के दुस्साहस का शर्मनाक अंत होगा; यह फिलिस्तीनी नागरिकों के अधिकारों का निरंतर दमन भी होगा।

भारत ने यूक्रेन युद्ध को लेकर कुल मिलाकर एक सैद्धांतिक रुख अपनाया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शांतिदूत की भूमिका निभाने की कोशिश की है, लेकिन उनके पास वह प्रभाव नहीं है, जो भारत को 1950 और 1960 के दशक में नैतिक अधिकार और समझा-बुझाकर राजी करने की शक्ति के रूप में प्राप्त था। इजराइल-हमास युद्ध को लेकर भारत की नीति बुरी तरह लड़खड़ाती नजर आई। सरकार ने भारत के उस दीर्घकालिक रुख को बदल दिया कि इजराइल और फिलिस्तीन दोनों को ‘द्वि-राष्ट्र’ सिद्धांत के तहत अस्तित्व में रहने का अधिकार है। हालांकि, हाल ही में सरकार को अपनी गलती का एहसास हुआ है और उसने अपने कदम पीछे खींच लिए हैं।

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इस आलेख का उद्देश्य केवल उन विनाशकारी युद्धों की ओर ध्यान आकर्षित करना ही नहीं है, जो स्पष्ट रूप से ‘मजबूत’ देश अपने कमजोर विरोधियों के खिलाफ लड़ रहे हैं, बल्कि युद्ध की निरर्थकता को भी उजागर करना है। हर देश में युद्ध-उन्मादी होते हैं और वे मानते हैं कि युद्ध कई विवादों का समाधान है। यह युद्ध-उन्मादी दर्शन आंतरिक मतभेदों के समाधान में भी परिलक्षित होता है। घरेलू क्षेत्र में, ‘युद्ध’ की जगह ‘हिंसा’ और ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ के घृणित सिद्धांत ने ले ली है।

दुनिया को जवाहरलाल नेहरू, डैग हैमरशाल्ड, मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेल्सन मंडेला जैसे नैतिक अधिकार वाले नेताओं की जरूरत है। दुनिया को ऐसे राष्ट्रों की आवश्यकता है, जो एकजुट होकर संघर्षरत देशों पर प्रभाव डाल सकें और महाशक्तियों को नियंत्रित कर सकें। दुनिया को वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र से अलग नई संस्थाओं की जरूरत है। फिलहाल, सिर्फ अंधेरा है और भोर का उजाला कहीं नजर नहीं आ रहा है।