जगह, वाशिंगटन डीसी और पत्रकारों से मुखातिब थीं निर्मला सीतारमण। इतने अहम मंच से पत्रकारों ने भारतीय वित्त मंत्री से डालर के मुकाबिल रुपए के लगातार कमजोर होने के बाबत सवाल पूछे थे। जब अमेरिका तक रुपए का गिरना मुद्दा बन चुका था, तब भारतीय वित्त मंत्री का जवाब था-मैं इसे ऐसे नहीं देखती हूं कि रुपया गिर रहा है, बल्कि ऐसे देखती हूं कि डालर मजबूत हो रहा है…। किसी देश की सत्ता का चरित्र इस बात से तय होता है कि वह स्वीकार की स्थिति में रहती है, या नकार की स्थिति में। विदेशी मंच पर निर्मला सीतारमण के काफी समय पहले दिए इस जवाब से लेकर आज तक के हालात सिद्ध करते हैं कि मौजूदा सरकार यथास्थिति को लेकर नकार की स्थिति में रहती है। विदेश नीति में यह नकारवाद स्थायी भाव बन गया है। बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार को लेकर भारत का प्रतिरोध इतना कमजोर है कि एक हफ्ते के अंदर दो हिंदुओं की भीड़ के द्वारा हत्या कर दी गई। क्या हम अब हर उस स्थिति को नामुमकिन बना रहे हैं, जो अब तक हमारे लिए मुमकिन था? विदेश नीति पर सवाल पूछता बेबाक बोल।
‘हिंदी नहीं सीखी? क्यों नहीं सीखी? अगर एक महीने में हिंदी नहीं सीखी तो पार्क छीन लो इनसे।’ भारत की विदेश नीति किस हाल में है, उसे समझने की कोशिश सरकार की छोटी इकाई से करते हैं। ये विश्व गुरु सरीखे भाव वाले वाक्य हैं भाजपा पार्षद रेणु चौधरी के। देश की राजधानी दिल्ली में महिला पार्षद इस तरह की धमकी एक अफ्रीकी नागरिक को दे रही हैं। उनकी धमकी में जिस तरह के दिशानिर्देश हैं, क्या भारतीय संविधान उन्हें इसकी इजाजत देता है?
दक्षिण अफ्रीकी व्यक्ति शायद अंग्रेजी बोल रहा होगा। अब जरा स्थिति को उलट कर देखिए। कल को पार्षद साहिबा को दक्षिण अफ्रीका के किसी शहर में जाना पड़े और उनसे कहा जाए कि वहां की स्थानीय भाषा में बात नहीं करने पर आप पर कार्रवाई होगी, तो उनकी क्या हालत होगी। अगर उन्हें दक्षिण अफ्रीका के विभिन्न क्षेत्रों की अलग-अलग भाषा सीखने के लिए मजबूर होना पड़े तो शायद वे देश से बाहर पांव निकालने की सोचने से भी तौबा कर लेंगी। हालांकि रेणु चौधरी ने इसके लिए माफी मांग ली है, लेकिन चिंता की बात है कि जनप्रतिनिधि ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं? नफरत के वीडियो का जिस तरह संक्रामक प्रसार होता है, वहां बाद का माफीनामा दब जाता है।
विदेश नीति जैसी बड़ी बात हम छोटे उदाहरणों से कर रहे हैं। आदर याचना से नहीं कर्म से प्राप्त होता है। कोई अमीर आदमी सड़क चलते किसी आदमी से जाकर कहे, सुनो मुझे आदर दो, तो निश्चित रूप से सामने वाले की आंखों में ऐसी मांग करने वाले के लिए हास्य या घृणा के भाव पैदा होंगे। इसी तरह न तो किसी भाषा और न किसी देश के प्रति जबरन आदर पैदा करवाया जा सकता है। भाषा हो या देश, जिसमें जितनी समरसता होगी वह उतना ही आदरणीय होगा।
बांग्लादेश में एक और हिंदू युवक की पीट-पीटकर हत्या, कुछ दिन पहले दीपू दास को बनाया था भीड़ ने शिकार
विदेश नीति पर भी आम राजनीति वाला या तो अहंकार या घृणा वाला परिदृश्य हावी हो चुका है। पिछले दिनों दुनिया के शक्तिशाली राष्ट्राध्यक्षों में से एक व्लादिमीर पुतिन से देश के बड़े जनसंचार माध्यम की दो ‘एंकर’ साक्षात्कार लेने पहुंचीं। एक राष्ट्राध्यक्ष और दो शीर्ष ‘एंकर’। अंदाजा लगाया जा सकता है कि विदेश नीति पर कितने शीर्ष स्तर के सवाल हो सकते थे। लेकिन जब ‘ह्यूज, ह्यूज, ह्यूज’ करते हुए रूसी राष्ट्राध्यक्ष से भारतीय प्रधानमंत्री की अन्य राष्ट्राध्यक्षों से तुलना का सवाल पूछा तो रूसी राष्ट्रपति ने इसे अशोभनीय करार दिया। सरकार समर्थक एक आम कार्यकर्ता से लेकर, पार्षद व एंकरों तक की यही समझ बनी है कि खुद को महान साबित करने के लिए विदेशियों, दूसरे देशों की बेइज्जती तक पर उतर जाइए।
अब बात करते हैं, बड़ी इकाई के संदर्भ में। एक ऐसा देश जिसका जन्मदाता भारत है, आज वहां हमारी क्या स्थिति है? अभी तक कथित विश्व गुरु बनने के अहंकार में चूर तबका अल्पसंख्यक शब्द का मतलब एक खास कौम से लेता है, और उसके विषय में झूम-झूम कर नफरत फैलाता है। नफरत के इस नशे पर थोड़ा विराम तब लगा था जब सत्ता पक्ष को अपनी उभरती हुई नेता नुपूर शर्मा पर कार्रवाई करनी पड़ी थी। नुपूर शर्मा को अपने उभरने का एक यही जरिया समझ में आया था, जो उल्टा पड़ा।
आज बांग्लादेश में अल्पसंख्यक कोई और तबका है। वहां चल रही मौजूदा नफरत की राजनीति में एक हफ्ते के अंदर दो हिंदुओं दीपू चंद्र दास और अमृत मंडल को पीट-पीट कर मार दिया गया। अभी भी सत्ता पक्ष को राहुल गांधी के बोलने की चिंता है। उसे यह चिंता क्यों नहीं है कि सत्ता-समर्थकों की समझ बन रही है कि विदेशी या विदेशी संस्कृति को अपमानित करने से सत्ता-पक्ष में उनका सम्मान बढ़ेगा। पिछले दिनों क्रिसमस को लेकर जो अशोभनीय दृश्य देखे गए उसका अंजाम क्या होगा?
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चीन की बात करने से तो परहेज ही करना चाहिए, क्योंकि जब सत्ता पक्ष ही चीन को नहीं समझ पा रहा है, तो उसका समर्थक वर्ग कैसे समझ लेगा? सत्ता समर्थक वर्ग तो चीन-अमेरिका को दो भारतीय रिश्तेदारों की तरह देखता है, कभी इसकी निंदा, कभी उसकी तारीफ। भारत अमेरिका के शुल्क संग्राम से लेकर एच1बी वीजा की मुश्किलों में घिरा तो एंकरों व सत्ता समर्थकों को लगा, अब चीन की तारीफ शुरू करो कि वह अमेरिका से कितना महान है (वैसे विश्व गुरु तो हम ही हैं)।
दुनिया के नब्बे फीसद क्लिष्ट तकनीकी अनुसंधानों की अगुआई कर रहे चीन के विदेशी रणनीतिकारों को शायद यह देखने की फुर्सत नहीं होगी कि अमेरिका से बदला लेने के लिए भारतीयों ने चीनी लड़ियों और सजावटी सामानों का बहिष्कार बंद कर दिया है। उन चीनी सामानों का बहिष्कार करना बंद कर दिया है, जो भारत सरकार की मंजूरी से वैध तरीके से भारतीय बाजारों में मिल रहे हैं। पिछले दिनों चीन ने पहली बार जब दुनिया भर के शक्तिशाली राष्ट्राध्यक्षों की मौजूदगी में अपनी सामरिक शक्ति का सार्वजनिक प्रदर्शन किया था, तो सत्ता समर्थक चीनी लड़ियों के बहिष्कार की बात ही भूल गए थे। रही बात अमेरिका की तो वह समझ चुका है कि चीन के सिर पर वैश्विक शक्ति का खिताब सजाना भर बचा है।
जब हम वैश्विक बंधुत्व की बात करते थे, तब बांग्लादेश, म्यांमार, मालदीव जैसे देश भारत को खुश करने की कोशिश करते थे। विश्व गुरु का दावा करते ही ये देश हमारी मुखालफत में जितना कुछ कर सकते हैं, कर रहे हैं। नेपाल, जिससे भारत का सबसे करीबी नाता रहा है, वह भी हमारी मुखालफत पर उतर आया है।
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चीन के बारे में बात करते वक्त हम सतर्कता बरत रहे हैं कि गलवान का ‘ग’ भी गलती से नहीं बोलेंगे। अगर कुछ बोला भी जाएगा तो नेहरू को कोसा जाएगा। याद करें ‘आपरेशन सिंदूर’ के बाद संसद में हुई बहस को। नेहरू के नाम वाले विश्वविद्यालय से शिक्षित विदेश मंत्री एस जयशंकर पूरी चर्चा के दौरान यही साबित करते रहे कि मौजूदा सत्ता पक्ष की अभी तक की नाकामियों की वजह भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ही हैं।
सत्ता पक्ष ने अपनी खामियों की निशानदेही करने के बजाय नेहरू काल का अंत्यपरीक्षण किया। सत्ता पक्ष के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी कह गए थे कि हम दोस्त बदल सकते हैं, पड़ोसी नहीं। इस बुनियादी सिद्धांत को भूलते हुए सत्ता-पक्ष अपने हर पड़ोसी को नाराज कर बैठा है। शक्तिशाली पड़ोसी चीन से किस तरह की रिश्तेदारी रखी जाए, यह सत्ता समर्थक अपनी नफरती समझ से तय कर रहे हैं।
बांग्लादेश में लगभग दो दशक के निर्वासन के बाद बीएनपी नेता, तारिक रहमान लौट आए हैं, और युनूस को उन्हें वहां सुरक्षित गलियारा देना पड़ा है। रहमान ने आते ही समावेशी बांग्लादेश की बात की है। तारिक के उभार को देखते हुए भारत सरकार को संभल जाना चाहिए कि बांग्लादेश में हालात बदले तो हमारे हित सुरक्षित रहें।
एक सामान्य इंसान भी अपने जीवन में कई बार स्वीकार से लेकर नकार की स्थिति में होता है, लेकिन जीवन को एक दिशा देने के लिए स्वीकार की स्थिति में आना ही उसका प्रारब्ध है। चाहे किसान आंदोलन हो, या हाल में पंजाब विश्वविद्यालय के सीनेट चुनाव, सत्ता ने भी मजबूरन स्थिति को स्वीकारा है। एक बहुत गलत संदर्भ में महात्मा गांधी का नाम मजबूरी के साथ जोड़ दिया गया है। महात्मा गांधी तो उस मजबूती का नाम हैं जो कहते थे कि हर इंसान को अपनी कमजोरी पर काम करना चाहिए। लेकिन आप तब भी अपनी कमजोरी को नकार रहे हैं, जबकि हालत नाजुक है। रुपया, डालर के मुकाबिल शतक बना दे, क्या उससे पहले कोई स्वीकार होगा?
मानव मन की दुविधा आदि काल से है कि वह अनिष्ट या असंभव को स्वीकार करे या नकार दे। ज्यादातर लोग उसे तब तक नकारते हैं, जब तक वो प्रारब्ध बन कर उनसे टकरा न जाए। कुछ लोग मुमकिन को भी नामुमकिन बना सकते हैं। यह नकार का स्थायी भाव मुमकिन को नामुमकिन ही बनाते जाएगा।
