इस समय यह उम्मीद विरोधाभास से भरी हुई लगती है कि सरकार अपने प्रयासों से महंगाई पर नियंत्रण पा लेगी और बाजारों में वस्तुओं का सस्ता दौर आ जाएगा। विरोधाभास इसलिए कि पंजाब, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और उत्तराखंड में बरसात और बाढ़ के कारण जानमाल का व्यापक नुकसान हुआ है और उत्पादित वस्तुएं उचित परिवहन के अभाव में नष्ट हो रही हैं। ऐसे में यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि सरकार की महंगाई नियंत्रण और सस्ते दिन ले आने की परिकल्पना सही साबित होगी। मगर देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार यह कहते हैं कि अमेरिका की ओर से भारत के निर्यात पर भारी शुल्क लगा देने के बावजूद देश में आर्थिक विकास की गति धीमी नहीं होगी या उसी तरह बनी रहेगी।

यह भी कहा जाता है कि इस वर्ष की पहली तिमाही में देश के आर्थिक विकास की गति 7.8 फीसद से आठ फीसद तक रही, तो यह एक उम्मीद और राहत भरी बात है। जिस तरह घरेलू निवेशकों का रुख देश के उत्पादन और निवेश को निरुत्साह न होने देने का है, इसी प्रकार सरकार पूंजीगत निवेश के साथ एक ऐसा नया ढांचा बनाने की कोशिश कर रही है, जिससे आत्मनिर्भर भारत का सपना साकार करने में मदद मिलेगी।

12 और 28 फीसदी की कर श्रेणी को कर दिया गया है खत्म

कल्पना चाहे कितनी भी लुभावनी क्यों न हो, लेकिन यह भी सच है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने वक्तव्यों में भारत के प्रति कभी हां और कभी न की नीति पर चलते हुए पचास फीसद शुल्क को घटाने के लिए फिलहाल तैयार नजर नहीं आते हैं। उनके आर्थिक सलाहकारों के बयान भी यही आ रहे हैं कि भारत ने रूस से कच्चा तेल खरीदकर और उसे परिशोधित करके यूरोप तथा तीसरी दुनिया के देशों को बेचकर इतना लाभ कमाया है कि उस पर दंड स्वरूप यह शुल्क लगना ही चाहिए।

मगर भारत सरकार ने अमेरिकी शुल्क से अपने निर्यात उद्योगों को हतोत्साह होने से बचाने के लिए जीएसटी दरों में सुधार के जरिए कर में राहत दी है। अब कर की दो दरें पांच फीसद और अठारह फीसद है। बारह और अट्ठाईस फीसद की कर श्रेणी को खत्म कर दिया गया है। जीएसटी प्रणाली देश में एक जुलाई 2017 को लागू की गई थी। अब आठ साल बाद भले ही इसमें व्यापक सुधार किया गया है, लेकिन इससे निवेश घटने की आशंका भी बनी रहेगी।

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सरकार को उम्मीद है कि जीएसटी दरों के कम हो जाने का असर लगभग 400 वस्तुओं पर पड़ेगा। जब कर घटेंगे तो निवेश की प्रतिस्पर्धी ताकतें भी मैदान में आ जाएंगी और इस तरह से निर्यात क्षेत्र में निवेश की कमी से जो असर होगा, वह वस्तुओं के सस्ता हो जाने के कारण नए उत्पादन को बढ़ावा देगा। सरकार को ऐसी हालत में नवउद्यमों से भी बहुत उम्मीदें हैं और माना जा रहा है कि अगर भारत की पहचान उसकी घरेलू दस्तकारी या कुटीर और लघु उद्योगों को प्रोत्साहित करने के रूप में सामने आए तो इससे देश में बेरोजगारी की वह जटिल समस्या हल होने लगेगी, जिसे अभी तक अनुकंपा और मुफ्तखोरी की नीति से संतुलित करने का प्रयास किया जा रहा है।

अमेरिकी शुल्क का मुकाबला करने के लिए जीएसटी दरों में सुधार

लेकिन कुछ और संभावनाएं भी हैं, जिनको ऐसे वक्त में हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। एक संभावना तो यही है कि चाहे जीएसटी की दरें कम हो रही हैं, पर क्या इसका असर उन सभी 375 वस्तुओं पर दिखाई देगा, जिनके कर कम हो रहे हैं। या करों की इस कमी को अपने ही उदर में समेटते हुए उत्पादक न तो अपना निवेश या उत्पादन बढ़ाएंगे और न ही रोजगार की नई संभावनाएं पैदा होंगी। ऐसे में अमेरिकी शुल्क का मुकाबला करने के लिए जीएसटी दरों में सुधार का असर एक सीमित स्तर पर ही हो पाएगा।

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विशेषज्ञों ने इस संभावना की तहकीकात की है। उनका कहना है कि 22 सितंबर से जीएसटी की नई दरें लागू हो जाएंगी, लेकिन क्या उसके मुताबिक बाजार में भी सस्ती वस्तुओं का दौर शुरू हो जाएगा। अभी तक देश के बाजारों में ऐसा वातावरण है कि शुरू की रियायतें तो आम जनता को नहीं दी जातीं और कंपनियां उन्हें अपने पूर्व घाटे की भरपाई कहकर ही समेट लेती हैं। इसका बड़ा उदाहरण देश में पेट्रोल और डीजल की कीमतें हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमतें गिरने के बावजूद इसका लाभ देश की जनता को नहीं मिल पाता है। इसकी कीमतों को लगभग दो साल से उसी स्तर पर स्थिर रखा गया है, क्योंकि पेट्रोलियम कंपनियों का यह कहना था कि अभी तो उन्हें पिछले घाटे की ही भरपाई नहीं हुई। इसके अलावा, यह भी देखा गया है कि देश के बाजार अपूर्ण भाव से ग्रस्त हैं। इसका अर्थ यह है कि अधिक लाभ कमाने के लिए वस्तुओं की बनावटी मंदी भी पैदा कर दी जाती है।

हमने पिछले वर्षों में अपने दवा उद्योग को तरक्की दी है

इस तरह की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता है। अगर जीएसटी की दरें कम होने के बावजूद संबंधित वस्तुओं की बाजार कीमतें कम नहीं होती हैं, तो इसके लिए उद्योग संगठनों से बातचीत करनी होगी। हालांकि, पिछला अनुभव यही कहता है कि उद्योग संगठन अपनी नीति की परवाह अधिक करते हैं, चाहे वह कृत्रिम कमी का माहौल पैदा करके ही क्यों न हो। एक और संभावना को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता और वह है विदेशी व्यापार में हमारी मुद्रा के विनिमय मूल्य का निरंतर कम होते जाना। हालांकि सरकार का कहना है कि ऐसा रुख डालर की कीमतों में ही नजर आएगा। मगर, हमारे निर्यात और आयात के आंकड़े बता रहे हैं कि हम अभी तक अपनी अर्थव्यवस्था का तेवर नहीं बदल सके। हमारी अर्थव्यवस्था निर्यात आधारित नहीं है। अब जब अधिक निर्यात की बात हो रही थी, तो उस पर अमेरिकी शुल्क का प्रहार होता नजर आ रहा है। समस्या यह है कि जब हम अपने देश में अलग-अलग क्षेत्रों के उत्पादन और निवेश को बढ़ाने का प्रयास करते हैं, तो पता चलता है कि हम उसके कच्चे माल के लिए अभी भी अन्य देशों पर निर्भर हैं।

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हमें इस बात का गर्व है कि हमने पिछले वर्षों में अपने दवा उद्योग को तरक्की दी है और दवाइयों के निर्यात को बढ़ाया है। मगर जब इनके लिए कच्चे माल की ओर देखते हैं, तो पाते हैं कि इसका बहुभाग आयात करने के लिए हमें चीन जैसे देशों पर निर्भर रहना पड़ता है। पिछले दिनों चीन के साथ संबंधों में कटुता के कारण चीनी सामान के बहिष्कार की बात होती रही, लेकिन जब हम आयात-निर्यात का पैमाना देखते हैं तो पाते हैं कि चीन से वस्तुओं का आयात भारत से सामान के निर्यात के मुकाबले कहीं अधिक है। अब हम जब रूस समेत चीन के साथ हाथ मिलाकर एक नई शुरूआत करने का प्रयास कर रहे हैं, तो क्या यह आवश्यक नहीं होगा कि पहले हम भारत को अपना कच्चे माल खुद तैयार करने में आत्मनिर्भर बनाएं। मगर यह आत्मनिर्भरता कब और कैसे होगी, इसी के आधार पर भारत के लिए नई परिस्थितियों का निर्माण संभव हो सकेगा।