परीक्षा के मानकों और जटिलताओं के मसले पर पिछले लंबे समय से बहस होती रही है। इसमें यह सवाल भी उठता रहा है कि क्या हमारी मौजूदा परीक्षा प्रणाली किसी विद्यार्थी के भीतर की संभावनाओं और क्षमता का आकलन कर पाने में पूरी तरह सक्षम होती है। परीक्षा क्यों ली जाती है? इसका मापदंड क्या सिर्फ पढ़े हुए विषय का आकलन भर है? अगर हम भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति में परीक्षा से जुड़े तथ्यों को ध्यान से पढ़ें तो पता चलता है कि परीक्षा सिर्फ विषय ज्ञान का मूल्यांकन करना मात्र नहीं होती।

परीक्षा शिक्षा पाने के क्रम में व्यक्तित्व के विकास के आकलन का एक माध्यम भी है। तब शिक्षक परीक्षा के दौरान सिर्फ विषयों की जानकारी आधारित आकलन नहीं करते थे। वे इस बात का भी मूल्यांकन करते थे कि उनके शिष्य का विवेक किस स्तर का है और किसी भी परिस्थिति में बौद्धिक, व्यावहारिक एवं नैतिक रूप से विश्लेषण करने की उनकी क्षमता कितनी है। परीक्षा के माध्यम से वे शिष्य को हर कसौटी पर जांचते-परखते थे और यह भी देखते थे कि उनकी चेतना में किन गुणों का कितना विकास हो पाया है।

ज्ञानेंद्रियों का विकास और विवेक ही शिक्षा

मूल रूप से शिक्षा चेतना के निर्माण का कार्य करती है। तभी आज भी हम अक्सर जगह-जगह लिखा पाते हैं- ‘सा विद्या या विमुक्तये’, अर्थात् वह विद्या, जो मुक्त होने का रास्ता दिखाए। कोई भी विद्या तभी यह मार्ग दिखा पाएगी, जब वह चेतना में परिवर्तन का काम करे। और चेतना उर्ध्वगामी तब बनती है, यानी चेतना का विकास तब होता है, जब कल्पनाशीलता, विश्लेषण करने की क्षमता, ज्ञानेंद्रियों का विकास, विवेक और संवेदनशीलता का विकास छात्र के भीतर हो। शायद इसलिए हमें प्राचीन इतिहास में होने वाली परीक्षाओं का संबंध जीवन के व्यावहारिक ज्ञान में मिलता है। अब चाहे वह विज्ञान, गणित या फिर सामाजिक ज्ञान हो, या पारंपरिक हुनर का ज्ञान हो। वास्तव में यह एक तरह से खुली किताब वाली ही परीक्षा थी, जहां जीवन को एक किताब के रूप में खोल कर उत्तर देने की अनुमति थी। तब ज्ञान बंद किताब तक सीमित नहीं था, बल्कि किताबों का ज्ञान जीवन की ओर उन्मुख था।

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साधारण अर्थों में खुली किताब वाली परीक्षा का मतलब है- वैसी परीक्षा जहां छात्र किताबें खोल कर उत्तर लिखने को स्वतंत्र हों, उसे नकल नहीं माना जाएगा। एक संदर्भ के साथ इस पर बात की जा सकती है। दिल्ली के एक विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर की प्रथम परीक्षा में एक प्राध्यापक ने ‘ओपन बुक एग्जाम’ रखा, यानी खुली किताब वाली परीक्षा। उसमें एक विषय के पहले सत्र की पहली परीक्षा में छात्रों को प्रश्न देते हुए कहा गया कि आप स्वतंत्र हैं, किसी भी किताब को खोल कर प्रश्नों के उत्तर दे सकते हैं।

प्रश्न मुश्किल से छह रहे होंगे और उनमें से छात्रों को सिर्फ दो या तीन प्रश्न हल करने थे। छात्रों ने प्रश्न देखा और किताबें खोलने लगे। प्राध्यापक मुस्कुरा रहे थे, छात्रों को किताबों में झांकते हुए देख कर। छोटे शहरों से आए छात्र-छात्राओं के लिए खुली किताब वाली परीक्षा देने का यह प्रथम अवसर था। इससे पहले खुली किताब वाली परीक्षा मतलब नकल, यही जाना और सुना गया था। परीक्षा में सवाल ऐसे थे कि उनका उत्तर सिर्फ किताबों से देख कर नहीं उतारा जा सकता था। उसके लिए विवेक, कल्पनाशीलता और विश्लेषण करने की क्षमता की आवश्यकता थी।

आज की परीक्षाओं में विश्लेषण का शायद ही स्थान

आज जिस तरह की परीक्षाएं होती हैं, उनमें विश्लेषण का शायद ही कोई स्थान होता है, वह सिर्फ तथ्य आधारित होती हैं। पिछले दिनों सीबीएसई ने एक महत्त्वपूर्ण फैसला किया, जिसमें शैक्षणिक सत्र 2026-27 से नौवीं कक्षा का ‘ओपन बुक एग्जाम’ यानी खुली किताब वाली परीक्षा होगी। शिक्षा प्रणाली में सुधार की दिशा में यह एक बड़ा कदम हो सकता है। मगर यह तभी संभव होगा, जब उस विधि से पढ़ाने की पर्याप्त तैयारी होगी और इसके लिए शिक्षकों को भी प्रशिक्षित किया जाएगा। साथ ही विद्यार्थियों को अपनी कल्पनाशीलता और विवेक का इस्तेमाल करने की स्वतंत्रता होगी। पढ़ने और पढ़ाने का ऐसा तरीका हो, जहां विद्यार्थी के विश्लेषण, आलोचनात्मक दृष्टि एवं सोच की शक्ति को दबाया न जाए, बल्कि विकसित किया जाए। प्रश्न के रटे-रटाये उत्तर नहीं देने पर अनुत्तीर्ण हो जाने का डर विद्यार्थी को न सताए।

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दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अगर शिक्षक ‘ओपन बुक एग्जाम’ की कला को जानता ही न हो, या उसके मर्म को समझता ही न हो, तो इस परीक्षा की जो विशेषता है, वह मर जाएगी और उसका उल्टा असर होगा। खुली किताब वाली परीक्षा में ऐसे प्रश्न दिए जाते हैं, जिसका उत्तर किसी किताब या नोट बुक से सीधे नहीं उतारा जा सकता। इसके लिए विद्यार्थियों को पढ़े विषय की जानकारी का इस्तेमाल अपने विवेक से करते हुए उसे ज्ञान में तब्दील कर उत्तर लिखना होता है। कोई भी शिक्षा जब विवेक, बुद्धि और कल्पना के साथ व्यवहार में लाई जाती है, तो वह ज्ञान में परिवर्तित हो जाती है। खुली किताब वाली परीक्षा इसका एक माध्यम हो सकती है। वास्तव में शिक्षा में जब संवाद का स्थान बने, तभी खुली किताब वाली परीक्षा का कोई मतलब बनता है।

किताबी ज्ञान के साथ-साथ विद्यार्थियों के बौद्धिक विकास को केंद्र में रखना होगा

एक शिक्षक जब संवाद स्थापित करने में सफल होता है, तो सीधे-सीधे रटी-रटाई पद्धति पर प्रश्न पूछना कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी के योगदान का वर्णन करें, इसके बजाय यह पूछा जाना महत्त्वपूर्ण है कि आज के समय में अगर महात्मा गांधी होते तो वे किस तरह के बदलाव का प्रयास करते। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए एक विद्यार्थी न सिर्फ महात्मा गांधी के काम का विश्लेषण करने में सक्षम होता, बल्कि वह देश की वर्तमान स्थिति को भी समझने का प्रयास करता और उसके भीतर वर्तमान में महात्मा गांधी की प्रासंगिकता के महत्त्व की समझ भी विकसित होती। साथ उसके भीतर एक नागरिक होने की जिम्मेदारी का बोध भी आता। जहां तक खुली किताब वाली परीक्षा का संदर्भ है, तो अगर इस प्रश्न का उत्तर देना हो कि ‘भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी के योगदान का वर्णन करें’, तो खुली किताब से विद्यार्थी हूबहू उत्तर उतार सकता है और वह नकल ही कहलाएगी।

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ऐसे में हमें यह तय करना होगा कि हम बच्चों में नकल या कापी करने की योग्यता का विकास करना चाहते हैं या फिर विश्लेषण, अवलोकन, कल्पनाशीलता, आलोचनात्मक विश्लेषण की क्षमता और विवेक का विकास चाहते हैं। इसमें दोराय नहीं कि नौवीं कक्षा में खुली किताब वाली परीक्षा की पहल शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम साबित हो सकता है, लेकिन इसके लिए हर स्तर पर व्यापक तैयारी की जरूरत है। पठन-पाठन से लेकर शिक्षकों और विद्यार्थियों को इसके लिए नए तरीके से तैयार करना होगा। किताबी ज्ञान के साथ-साथ विद्यार्थियों के बौद्धिक विकास को केंद्र में रखना होगा। शिक्षकों को भी इसके लिए प्रशिक्षित करने की जरूरत है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह विद्यार्थियों को नकलची बनाने या किताब की प्रतिलिपि निकालने वाली मशीन की तरह बनाने जैसा ही होगा।