आर्थिक विकास की अंधी होड़ में न मानवीय संवेदनाएं बच रही हैं, न प्रकृति का संतुलन। प्रकृति अब चेतावनी देने के बजाय सीधा हिसाब चुकता कर रही है। आज देश में विकास की रफ्तार तेज है, लेकिन इसी रफ्तार में इंसानियत और प्रकृति, दोनों पिछड़ते जा रहे हैं। रोज आत्महत्या और हिंसा की खबरें समाज की मानसिक थकान का सबूत हैं, तो बादल फटना और पशुओं की आक्रामकता प्रकृति के असंतोष के संकेत।

सवाल यह है कि क्या हम आज सब कुछ जानकर भी अनजान बन रहे हैं और आंख मूंदकर विकास के नाम पर अपनी जड़ें खुद ही काट रहे हैं! देश को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने की कोशिशें लगातार जारी हैं, लेकिन रोज सामने आने वाली आत्महत्या और हत्या की खबरें यह संकेत दे रही हैं कि नागरिक चेतना और मनोबल का स्तर लगातार गिरता जा रहा है।

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आए दिन होते रिश्तों के कत्ल, बलात्कार, छोटी-छोटी बातों पर हत्या और आत्महत्या- ये सब संकेत हैं कि मनुष्य मानसिक रूप से थकता जा रहा है और मानवीय मूल्यों को पीछे छोड़ चुका है। संवेदनशीलता लगातार घट रही है, सहनशीलता खत्म हो चुकी है। मगर एक-दूसरे से आगे निकलने की दौड़ बढ़ती जा रही है, जो तनाव, अकेलापन, रिश्तों में खटास और अविश्वास के रूप में दिखाई देती है। इसके कारण समाज के ताने-बाने को बचाना तो दूर, परिवार को बचा पाना भी मुश्किल हो गया है।

आज वैश्विक प्रतिस्पर्धा में आय, कारोबार और उत्पादन को ही सफलता का पैमाना मान लिया गया है। इस दौड़ में हम उन नैतिक जिम्मेदारियों और प्राकृतिक संतुलन को नजरअंदाज कर रहे हैं, जो जीवन की असली नींव हैं। हम भूल रहे हैं कि यह जीवन कोई ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता की देन नहीं है, जिसमें कोई चिप लगा कर अपने अनुसार नियंत्रण किया जाए। यह प्रकृति की देन है और जो उसके दिए जीवन के मूल और मोल को नहीं समझेगा, प्रकृति वह जीवन सूद समेत वापस ले लेगी। फिर क्यों आज मनुष्य सब जानते हुए भी अनजान बन रहा है?

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हाल में लावारिस कुत्तों का मुद्दा इस उपेक्षा का एक उदाहरण है। कुत्ते प्रकृति में विभिन्न आवासों-जंगल, घास के मैदान, तटीय क्षेत्र में रहने के लिए बने हैं, सड़कों पर भटकने के लिए नहीं। मगर मानव ने उनके प्राकृतिक घर छीनकर उन्हें ‘आवारा’ बना दिया। परिणामस्वरूप वे आक्रामक होते जा रहे हैं। मामला इतना बढ़ा कि सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा और इस पर विशेष कमेटी बनाई गई। यही स्थिति पर्यावरण के साथ भी है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में हाल ही में बादल फटने की घटनाएं इसकी चेतावनी हैं। पहाड़ों को काटकर और नदियों का अस्तित्व मिटाकर हमने अपने लिए घर तो बना लिए, लेकिन प्रकृति ने उसी नदी को विनाश के रूप में लौटा दिया।

आज पहले के समय से तुलना करें तो परिस्थिति बिल्कुल उलट गई है। उस समय इंसान और प्रकृति के बीच एक गहरा रिश्ता था। दोनों के बीच एक सामंजस्य बना हुआ था। हमारे बुजुर्ग पेड़-पौधों, ऋतुओं, नदियों और पशुओं की पूजा करते थे। वे भले पढ़े-लिखे कम थे, लेकिन उन्हें अच्छी तरह पता था कि जो कुछ हमें मिल रहा है, वह प्रकृति की ही देन है। अगर इसके प्रति भाव बदल गया तो तबाही तय है। गांवों में लोग सादा जीवन जीते थे और सामूहिकता पर जोर देते थे। संवेदनाएं और जिम्मेदारियां भी साझा होती थीं। गली-मोहल्ले के लोग भी रिश्तों से जुड़े होते थे, जिससे भाईचारे का संदेश मिलता था। आज सब उलट है।

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गांव से लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। बढ़ती इच्छाओं के चलते अपनी जरूरतों के लिए प्रकृति को निरंतर नुकसान पहुंचाया जा रहा है। पेड़-पौधे काटे जा रहे हैं, पशुओं से जंगल छीने जा रहे हैं, नदियों का अस्तित्व मिटाया जा रहा है। रिश्तों का रोज खून हो रहा है। एकजुटता, विश्वास और सामूहिकता खत्म होने के कगार पर हैं। इसका खामियाजा हमें त्रासदी के रूप में भुगतना पड़ रहा है. नदियों के खत्म होने से बाढ़, भूकम्प और बादल फटने जैसी घटनाओं में लोगों की जान जा रही है। पशुओं से जंगल छीनकर उन्हें सड़कों पर रहने को मजबूर किया गया है और उनका आक्रोश अब इंसानों पर उतर रहा है।

कई पक्षी और पशु प्रजातियां विलुप्त होने के रास्ते पर हैं। गौरैया, जो कभी हर आंगन में दिखती थी, अब शहरों से गायब है। ऋतुओं का संतुलन बिगड़ चुका है। कभी भीषण गर्मी, तो कभी अनियंत्रित बारिश और कभी असामान्य सर्दी। बढ़ता जलवायु परिवर्तन हमें विनाश की ओर ले जा रहा है। रिश्ते तार-तार हो रहे हैं। अपनों का ही कत्ल आम हो गया है।

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पहले गांव सामूहिकता बोध और परिवार की तरह होते थे, आज सामूहिक बलात्कार की खबरें आम हैं। एक-दूसरे से आगे निकलने की प्रतिस्पर्धा ने केवल इंसानियत को ही कमजोर नहीं किया, बल्कि प्रकृति के साथ खिलवाड़ पर्यावरणीय संकट बनकर सीधे-सीधे हमारी आने वाली पीढ़ियों के जीवन पर असर डाल रहा है।

स्पष्ट है कि चाहे वह पशुओं का घर छीनना हो, प्राकृतिक संसाधनों से छेड़छाड़ करना हो या इंसानियत को ताक पर रखना हो- प्रकृति और जीवन का चक्र हमेशा जवाब देता है। अगर अभी सुधार नहीं किया गया तो आने वाले समय में हम आर्थिक रूप से तो मजबूत हो जाएंगे, लेकिन इंसानियत और नैतिक मूल्यों के नाम पर हमारा दिवालिया होना तय है। सचेतन अनदेखी का हासिल शायद ज्यादा भयावह हो सकता है।