पिछले सप्ताह बारिश ने फिर से देश की राजधानी को बेहाल किया और तकरीबन पूरे उत्तर भारत को भी। इधर पश्चिम में जिस महानगर को हम देश की व्यावसायिक राजधानी मानते हैं उसको बेहाल किया मराठा किसानों ने जो हजारों की संख्या में पहुंचे थे अपने लिए आरक्षण की मांग लेकर। आप अगर सोच रहे हैं कि इन दोनों बातों में संबंध क्या है, तो सुनिए। वास्ता यह है कि हमारे आला शासकों ने दशकों से उस स्तर पर सुशासन लाने की थोड़ी भी कोशिश नहीं की जहां उसका लाना सबसे जरूरी है। यानी शासन की सबसे निचली सीढ़ी पर जहां बैठते हैं वे लोग जिनकी जिम्मेदारी है नगरपालिकाओं और पंचायतों को चलाना।

बरसात में क्यों डूबते हैं हमारे शहर? गंदा पानी, गायब पैसा और भ्रष्ट अधिकारी

इसलिए हर साल बारिश के मौसम में हमारे महानगर डूब जाते हैं गंदे पानी में और इसका समाधान इसलिए नहीं कभी कोई खोजता, क्योंकि हम-आप बर्दाश्त कर लेते हैं बिना कोई शिकायत किए। हम जानते हैं कि मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों में नगर निकायों के पास नालियों को साफ करने और सड़कों की मरम्मत के लिए करोड़ों रुपए मिलते हैं राज्य और केंद्र सरकारों से, लेकिन यह पैसा जाता कहां है? इसके बारे में हम कभी नहीं पूछते हैं। हम यह भी जानते हैं कि जिन अधिकारियों का काम है प्रशासनिक सुधार लाना, ये लोग व्यस्त रहते हैं अपनी जेबों को भरने में।

एक उदाहरण देती हूं दिल्ली से। राजधानी के आलीशान इलाकों में कई इमारतें हैं जिन में छोटा-मोटा निर्माण किया जाता है बिना प्रशासन की इजाजत से। मिसाल के तौर पर किसी ने अगर अपनी बालकनी के ऊपर छत डाल कर अपने परिवार के लिए घर को थोड़ा बड़ा किया हो या किसी बरामदे को कमरे में बदल दिया हो, तो नगर निगम के अधिकारी करोड़ों रुपए का जुर्माना लगा कर पीछे पड़े रहते हैं। यह जुर्माना सिर्फ उन पर नहीं लगता है, जिन्होंने अवैध निर्माण किया हो, उस रिहाइशी इमारत में हर रहने वाले पर लगता है। जब लोग दे नहीं पाते हैं, तो हर साल जुर्माना बढ़ाते रहते हैं और इसका समाधान एक ही माना जाता है- रिश्वत।

Delhi Flood News: ‘हमारे इनवर्टर तक जवाब दे गए’, बिजली संकट की वजह से घर छोड़ने को मजबूर हुए सिविल लाइंस के लोग

ऐसे हजारों उदाहरण आपको मिलेंगे दिल्ली और मुंबई में और इनकी नकल करते हुए ऐसा होने लगता है ग्राम पंचायत और पंचायत के स्तर पर भी। कौन सड़कों की मरम्मत या नालियों को साफ करेगा अगर इतनी आसानी से पैसा अपने लिए बना सकता है? ऐसा नहीं है कि भ्रष्टाचार आला अधिकारियों में नहीं दिखता है, लेकिन प्रशासन के ऊंचे गलियारों में अधिकारियों पर नजर रखने वाले बहुत सारे लोग होते हैं और मीडिया की भी निगरानी रहती है। नगरपालिकाओं और पंचायतों पर इतना ध्यान नहीं रहता है मीडिया का। कहने को तो पंचायतों पर कलेक्टर साहब की चौकीदारी रहती है लेकिन अक्सर वे भी दूसरे कामों में लगे रहते हैं, तो चौकीदारी कैसे कर सकते हैं?

नतीजा यह है कि प्रशासन में निचले स्तरों पर कम ही ऐसे अधिकारी मिलेंगे जो ईमानदारी से अपना काम कर रहे हों। यह बात याद आती है तब जब पहाड़ों में शहर के शहर बह जाते हैं। इस साल इतना बुरा हाल रहा है पहाड़ी सड़कों का कि राहत पहुंचाने के लिए लोग पगडंडियों पर जाने पर मजबूर हुए। बाद में टीवी चर्चाओं में आकर सेवामुक्त आला अधिकारियों ने स्वीकार किया कि पहाड़ों में अनियोजित निर्माण इतना हुआ है कि अब कुछ नहीं हो सकता है समाधान के तौर पर। मगर कभी नहीं पूछते हैं हम इनसे कि ऐसा जब हो रहा था, तो प्रशासन सोया हुआ था क्या?

पिछले सप्ताह मैं मुंबई में थी। जो हाल किया प्रदर्शनकारियों ने इस महानगर का मैंने अपनी आंखों से देखा। मुंबई के कई इलाके पूरी तरह बंद किए गए थे, क्योंकि प्रदर्शनकारियों ने यहां अपने रहने का इंतजाम कर लिया था। जिनको सड़कों पर सोने के लिए जगह नहीं मिली, पहुंच गए रेलवे स्टेशन जहां प्लेटफार्मों पर ऐसे बिछ गए कि यात्रियों को गाड़ियों से उतरना-चढ़ना मुश्किल हो गया।

महाराष्ट्र सरकार ने सावधान जरूर किया लोगों को कि फलाने रास्ते से न जाएं, लेकिन प्रदर्शनकारियों को नियंत्रण में रखने के लिए कुछ नहीं किया। बावजूद इसके कि कई जगहों पर इन लोगों ने तोड़-फोड़ की और आम नागरिकों को धमकाया-डराया। इस दौरान मराठा किसानों के आला नेता जरांगे-पाटिल साहिब अनशन पर बैठे रहे आजाद मैदान में, जब तक अदालत का हस्तक्षेप न हुआ प्रदर्शन को रोकने के लिए।

तो है कोई समाधान इन समस्याओं का? हां है। पहला और सबसे जरूरी सुधार तो यह होना चाहिए कि महानगरों का शासन एक चुने हुए महापौर को दिया जाए जैसे न्यूयार्क, लंदन और पेरिस में होता है। लेकिन यहां एक रोड़ा यह जरूर है कि मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों को लूटने में ऊपर तक अधिकारी और राजनेता शामिल हैं। जो काम कलेक्टर करते हैं देहातों में, ये ‘बड़े साहेब’ करते हैं शहरों में।

नरेंद्र मोदी ने परिवर्तन लाने का जो वादा किया था 2014 में, वह अभी तक पूरा इसलिए नहीं हुआ है, क्योंकि जिन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं वहां भी सुशासन लाने के लिए ऊपर से कोई दबाव नहीं दिखा है पिछले दशक में। यानी ऐसे ही चलता रहेगा देश, जब तक हमारी तरफ से ऐसा दबाव न पड़े और परिवर्तन लाना हमारे नेताओं के लिए अनिवार्य न हो जाए।