हजार चेहरे हैं मौजूद आदमी गाएब
ये किस खराबे में दुनिया ने ला कर छोड़ दिया है।
-शहजाद अहमद
दसवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने का विश्व रिकार्ड जिन्होंने बनाया, आज उनका एक वीडियो पूरी दुनिया में घूम रहा है। उस वीडियो को एक हादसा मान लिया जा सकता था, अगर सत्ता पक्ष से जुड़ा समुदाय उसे न्यायोचित बता कर हादसों का अकीर्तिमान नहीं खड़ा करता। जिस तरह के व्यवहार को स्कूल, कालेज, दफ्तर में उत्पीड़न माना जाता है, उसे सत्ता-समुदाय इसलिए न्यायोचित ठहरा रहा है, क्योंकि पीड़ित पक्ष के साथ ‘हिजाब’ जुड़ा हुआ है। नफरत की राजनीति स्त्री अस्मिता का भी विभाजन कर रही है। उदाहरण दिया जा रहा है अशोक गहलोत का। अगर कांग्रेस के कथित गलत काम आपके लिए कीर्तिमान हैं तो इस पार्टी के खिलाफ दिन-रात नफरत क्यों उंड़ेली जाती है? बिहार में हाल में हुई नारी अस्मिता की हार का विश्लेषण करता बेबाक बोल।
विधानसभा चुनाव शुरू होने के पहले से इस स्तंभ में बिहार की चर्चा लगातार हो रही है। अतीत के बोझ से दबे विश्लेषक कह रहे थे, बिहार का चुनाव देश को दिशा देगा। चुनाव के दौरान ही जिस तरह वोट पाने के लिए सरकारी खजाना खोल दिया गया, उसी समय अहसास हो गया था, यह चुनाव बहुत ही गलत राजनीतिक दिशा देगा।
चुनावी नतीजों के बाद विश्लेषकों ने दिल के खुश रखने को ख्याल अच्छा है की मिसाल देते हुए चुनाव विश्लेषण का सारा जोर महिला मतदाताओं पर लगा दिया। महिलाओं के खाते में दस हजार रुपए डाल कर, लोकतांत्रिक अनैतिकता को मातृ-शक्ति के नाम कर दिया गया। इसका भावार्थ यही है कि स्त्री मतदाता के लिए लोकतांत्रिक तकाजा कोई मायने नहीं रखता।
इस स्त्री-विमर्श पर सवाल तभी उठे थे जब बिहार विधानसभा के नवगठित मंत्रिमंडल में महज दस फीसद महिलाओं को जगह दी गई थी।
विधानसभा चुनाव के बाद बिहार लगातार ऐसी दिशा में चलता दिख रहा है, जिस पर शायद ही देश चलना चाहे। बिहार की संपूर्ण क्रांति वाली राजनीतिक विरासत आज एक ऐसी भ्रांति में बदल गई है, जहां सदन और सड़क के व्यवहार में कोई ज्यादा फर्क नहीं दिख रहा है।
ताजा मामला है, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा आयुष चिकित्सक का नियुक्ति-पत्र लेने आई महिला का हिजाब हटाने की कोशिश का। इस घटना का वीडियो जितनी बार भी आंखों से गुजरता है, एक दहशत-सी हो जाती है।
हालांकि, नीतीश कुमार का इस तरह का यह कोई अकेला वीडियो नहीं है। एक खास समय के बाद वे स्त्री-मुद्दे पर लगातार अमर्यादित से दिखे हैं। वह वीडियो अब भी इंटरनेट पर मौजूद है, जब विधानसभा में परिवार नियोजन पर बात करने के दौरान वे स्त्री गरिमा का हनन करने लगे।
उस वक्त राजद के साथ गठबंधन की सरकार थी, तो ‘मां के सम्मान में, भाजपा मैदान में’ जैसी स्थिति होनी ही थी। इसके बाद भी स्त्री मुद्दे पर नीतीश कुमार का असहज व्यवहार बार-बार दिखता रहा। विधानसभा वाले मुद्दे पर तब महागठबंधन से जुड़े बौद्धिक इसे खुलापन तक बताने को तैयार हो गए थे कि ऐसे बोले बिना काम कैसे चलेगा।
और आज राजग का पक्ष जिस तरह से इस अनैतिक कर्म का बचाव कर रहा है, वह भी एक इतिहास बना रहा है।
फिलहाल, सार्वजनिक रूप से हम नीतीश कुमार की चिकित्सकीय स्थिति के संदर्भ में कुछ भी नहीं जानते हैं, और न जानने दिया जाएगा। हम बस इतना अनुमान लगा सकते हैं कि बुजुर्ग-अवस्था में खास चिकित्सकीय मामलों में कोई इंसान अपने व्यवहार पर से अपना नियंत्रण खो सकता है।
आज के समय में हमारी चिंता नीतीश कुमार नहीं हैं। हमारी चिंता में वे लोग हैं, जिनके राजनीतिक स्वार्थ के कारण इस हालत में नीतीश कुमार, दसवीं बार मुख्यमंत्री बनने का विश्व रिकॉर्ड बना पाए। वे बिहार की अगुआई के लिए सुयोग्य हैं कि नहीं, यह मायने नहीं रखता था। मायने रखता था सिर्फ उनके जरिए हासिल होने वाला वोट बैंक।
हमारी चिंता उन लोगों की चुप्पी है, जो उनकी बीमारी के बारे में बात करने के लिए तैयार नहीं हैं, और इस बहाने अपनी बीमार मानसिकता का प्रदर्शन कर रहे हैं। शायद वही लोग इस तरह के और वीडियो आने का इंतजार कर रहे हैं।
चिकित्सा के संदर्भ में बात करने के बजाय चुपचाप ऐसे वीडियो आने का इंतजार क्यों हो रहा है, इसका विश्लेषण करने की जरूरत नहीं है।
हमारी चिंता वे लोग हैं जो इस घटना को सिर्फ इसलिए न्यायोचित ठहरा रहे हैं कि पीड़ित स्त्री हिजाब पहनने वाले समुदाय से है। समाजवादी मूल्यों का दावा करने वाली पार्टी के एक नेता ने तो इतना घृणित बयान दे दिया है कि उसे इस स्तंभ में लिखा नहीं जा सकता।
लेकिन वह स्त्री-विरोधी बयान अखबारों की सुर्खियों का हिस्सा है, टीवी पर बहस चल रही है, और उस बयान को बोल कर सत्ता समर्थक अट्टहास कर रहे हैं। वहीं भाजपा के गिरिराज सिंह भी बिहार की जमीन से विश्व रिकॉर्ड बनाने में लगे हैं।
इस रिकॉर्ड के लिए उनके बयानों के प्रतिद्वंद्वी भी उनके बयान ही होंगे कि लोकतांत्रिक मूल्यों के हिसाब से सबसे खराब कौन-सा है।
सोचिए, यह घटना कहां हुई है? यह घटना बिहार में हुई है। जहां अशिक्षा, बेरोजगारी के कारण स्त्री की हैसियत इतनी कमजोर है कि स्त्री को हिंसा से बचाने के लिए शराबबंदी की गई।
दावा किया जाता है कि शराबबंदी की सबसे बड़ी समर्थक वे स्त्रियां हैं जो शराब के कारण हिंसा की शिकार होती हैं। जो सत्ता समर्थक स्त्री सुरक्षा के नाम पर शराबबंदी का समर्थन कर रहे थे, वे आज इस घटना का भी समर्थन कर रहे हैं।
ऐसी घटनाओं के समर्थन से आगे जिस तरह की अराजक स्थिति उत्पन्न हो सकती है, क्या हम उसका अंदाजा लगा सकते हैं?
कल को सड़क पर कोई भी किसी स्त्री के साथ ऐसा व्यवहार कर सकता है, और उसके बाद सड़क पर ही इंसाफ भी होगा कि स्त्री घूंघट वाली थी या बुर्के वाली। न्याय मर्दों की संख्या के हिसाब से तय होगा कि वे किस तरह की विचारधारा का समर्थन करते हैं।
आज, घर से बाहर काम की जगह पर या दफ्तर में किसी स्त्री के साथ इस तरह का दुर्व्यवहार होता है तो यह यौन उत्पीड़न के दायरे में आ सकता है। कार्यस्थल की अंदरूनी कार्रवाई से असंतुष्ट स्त्री अदालत जा सकती है।
आज के सत्ता समर्थक कल कार्यस्थलों में इस तरह का न्याय मांगने की कोशिश करने वाली हर स्त्री के इंसाफ मांगने पर कह सकते हैं कि या तो नौकरी छोड़ो या नर्क में जाओ।
नीतीश कुमार के संदर्भ में खास अवधि को छोड़ दें तो वे राजनीति में बहुत हद तक नैतिकता की मिसाल थे। इस घटना के बाद भी अगर व्यवस्था द्वारा माफी मांग ली गई होती तो बात कुछ और थी।
लेकिन माफी मांगने के बजाय पूरे मामले पर नफरत की राजनीति का वर्चस्व हो गया। एक स्त्री की गरिमा का हनन कर सत्ता पक्ष व उसके समर्थकों ने अपनी गरिमा जिस तरह से गिराई है, उसके दूरगामी परिणाम संसद से सड़क तक दिखेंगे।
वैसे, स्त्री समुदाय को अपनी उम्मीद सत्ता पक्ष के ही एक और व्यक्ति की तरफ मोड़ लेनी चाहिए। वे हैं योगी आदित्यनाथ। योगी आदित्यनाथ के बुलडोजर को तो हर दोहरे इंजन वाली सरकार अपने राज्य का प्रतीक निशान बना रही है।
बिहार में भी चुनाव नतीजों के बाद ‘बुलडोजर बाबा’ की धूम मच चुकी है। बुर्का विवाद में जिस तरह सत्ताधारी दल के नेता व समर्थक सड़क-छाप ‘रोमियो’ की भाषा बोल रहे हैं, अब उधर से ही कुछ सुधार की उम्मीद है।
शायद योगी का ‘एंटी-रोमियो’ दस्ता ही इनमें सुधार ला पाए।
जब सदन के प्रतिनिधि सड़क जैसा व्यवहार करने लगेंगे और पूरा सत्ता समुदाय या तो उसे न्यायोचित ठहराए या चुप्पी साध ले, तो इस सन्नाटे के खिलाफ चीखने का वक्त आ गया है।
आर्थिक संदर्भ में बिहार को बीमारू राज्य का दर्जा दिया गया था, जिसे अभी तक वह अपने राजनीतिक अभिमान से छिपाता था।
विरासत का मिला तो सब खर्च कर चुका है बिहार। आगे उसके पास कौन-सी राजनीतिक जमा-पूंजी रह जाएगी— ‘नर्क में जाओ’ जैसा अहंकार?
