बिहार विधान सभा चुनाव के बादल मंडराने लगे हैं। राजनीतिक दलों की शाख पर चुनावी गठबंधन की कोपलें फूटने लगी हैं। एक तरफ भाजपा-जदयू हैं तो दूसरी राजद-कांग्रेस। इनके अलावा जितने छोटे दल हैं, वे किसी भी पल किसी तरफ जा सकते हैं। जो दल अभी एक तरफ नजर आ रहे हैं वे भी चुनाव आते-आते दूसरी तरफ जा सकते हैं। ऐसे दल-बदल मौसम में भी असदुद्दीन ओवैसी और उनकी पार्टी मीम (AIMIM) को कोई गठबंधन लिफ्ट देता नहीं दिख रहा है।

प्रखर वक्ता और सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने आज भी दुहराया कि उनकी पार्टी बिहार में केवल छह सीटें माँग रही है। औवैसी जी की पार्टी 2020 के बिहार विधान सभा चुनाव में पाँच सीटों (अमौर, बैसी, बहादुरगंज, कोचाधामन और जोकीहाट) पर जीती थी। ये अलग बात है कि उनमें से चार विधायक बाद में लालू यादव की राजद में चले गये थे और बिहार मीम के अध्यक्ष अख्तरुल ईमान राज्य में अपनी पार्टी के अकेले विधायक रह गये।

ओवैसी जी की पार्टी बार-बार राजद के सामने झोली फैलाकर गठबंधन माँग रही है और तेजस्वी यादव के कान पर जूँ नहीं रेंग रही है। इस अजूबा स्थिति पर चौक चौराहे पर चर्चा होने लगी है। राजद-कांग्रेस के रवैये से साफ है कि वे ओवैसी जी की पार्टी को इंडिया गठबंधन टीम में शामिल नहीं करना चाहते। मीम यह धमकी भी दे चुकी है कि गठबंधन में शामिल नहीं किये जाने पर वह बिहार में 100 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। कहना न होगा, मीम यह जताना चाहती है कि वह बिहार की 100 सीटों पर इंडिया गठबंधन का खेल खराब कर सकती है! मगर तेजस्वी यादव टस से मस होते नजर नहीं आ रहे।

आखिर क्या वजह है कि तेजस्वी यादव मीम द्वारा मात्र छह सीटों की माँग और 100 सीटों पर लड़ने की ‘धमकी’ को भी गम्भीरता से नहीं ले रहे हैं!

बिहार का सीमांचल कहे जाने वाले चार जिलों (अररिया, पूर्णिया, किशनगंज और कटिहार) में मुस्लिन आबादी का घनत्व सबसे ज्यादा है। मीम ने भी पाँच सीटें इसी इलाके में जीती थीं। पिछले चुनाव में बिहार में एडीए और इंडिया गठबंधन के बीच एक दर्जन से भी कम विधायकों का अंतर था। ऐसे में हर सीट का महत्व बढ़ जाता है मगर ओवैसी जी के पार्टी एक दर्जन सीट भी जीत ले तो गठबन्धन राजनीति में उसका वह वजन नहीं होगा जो अन्य छोटे दलों (लोजपा, निषाद पार्टी, वीआईपी पार्टी, हम इत्यादि) को मिलता है। इन दलों की शक्ति का स्रोत केवल संख्या में नहीं है बल्कि किसी भी समय पलटी मार लेने की सुविधा में भी है। ओवैसी जी के पास यह सुविधा नहीं है। उन्हें किसी भी हाल में भाजपा के खिलाफ ही जाना होगा नहीं तो उनका कोर वोटर उनसे नाराज हो जाएगा। यही कारण है कि राजद उनके गठबंधन के प्रस्ताव को बिल्कुल भाव नहीं दे रही है।

पिछले बिहार चुनाव में पीएम मोदी के ‘हनुमान’ ने कितनी सीटों पर किया था नीतीश का नुकसान?

लोकतांत्रिक व्यवस्था में छोटे दलों की शक्ति उनके पाला बदलने की सम्भावना में ही निहित है। इस अवधारणा का सबसे बड़ा उदाहरण जदयू के रूप में बिहार में मौजूद है। नीतीश कुमार के पास भी ओवैसी जी की तरह एक निश्चित वोटबैंक। मगर नीतीश कुमार की शक्ति इस बात में है कि वह कभी भी दलबदल कर सकते हैं। यही शक्ति चिराग पासवान के पास भी है। कई राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि 2020 के विधान सभा चुनाव में जदयू को 30 से ज्यादा सीटों पर चिराग पासवान की लोजपा ने ‘वोट कटवा’ बनकर हरवा दिया! ओवैसी जी के पास यह विकल्प भी नहीं है क्योंकि कई राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि मुस्लिम समुदाय उसी दल को वोट देते है जो भाजपा को हरा सके। अगर मीम से राजद गठबन्धन नहीं करती है तो इस बात की ज्यादा सम्भावना है कि मुस्लिम वोटर भाजपा को हराने के लिए राजद-कांग्रेस को वोट देगा।

अगर यह मान लें कि ओवैसी बन्धु आक्रामक प्रचार करके बिहार सूबे के ज्यादातर मुसलमानों को अपने पीछे एकजुट करने में सफल हो सकते हैं तो भी इससे उनका उद्धार नहीं होगा क्योंकि ऐसी स्थिति में प्रतिक्रिया स्वरूप हिन्दू समुदाय के एकजुट होकर एकतरफा वोट देने की सम्भावना बहुत बढ़ जाएगी। अगर ऐसा होगा तो इसका सीधा लाभ भाजपा को मिल सकता है। ओवैसी जी की पार्टी ने अतीत में जहाँ भी ऐसा प्रयास किया वहाँ गैर-भाजपा दलों ने उन्हें बीजेपी की बी-टीम बताना शुरू कर दिया। विपक्षी आरोप लगाते हैं कि ओवैसी मुस्लिम वोटों के विभाजन के लिए ही उम्मीदवार खड़े करते हैं ताकि भाजपा को मदद मिले। औवैसी इससे बार-बार इनकार कर चुके हैं। लोक सभा चुनाव में भी इंडिया गठबंधन ने उन्हें अपना हिस्सा नहीं बनाया और बिहार चुनाव में भी तेजस्वी यादव ओवैसी के अनुरोध को तवज्जो नहीं दे रहे हैं क्योंकि उन्हें पता है कि बिहार के मुसलमानों के पास भाजपा को हराने का दूसरा विकल्प फिलहाल नहीं है।

ओवैसी को महागठबंधन में जगह न देने का एक कारण और भी है जिसकी खुलकर चर्चा नहीं होती है मगर अन्दरखाने यह सुगबुगाहट अक्सर होती है। कहते हैं कि लालू यादव नहीं चाहते कि बिहार में उनके और तेजस्वी के अलावा कोई तीसरा यादव या मुस्लिम नेता उभरे जो उनकी बराबरी कर सके या उन्हें चुनौती दे सके। ये दोनों समुदाय उनके कोर-वोटर माने जाते हैं। इन समुदायों में कोई अन्य नेता इन समुदायों का प्रिय बन गया तो इसका सीधा असर तेजस्वी यादव के राजनीतिक भविष्य पर पड़ेगा। जब लालू यादव ने नीतीश कुमार के संग मिलकर सरकार बनायी तब भी सीएम नीतीश के बगल में उन्होंने अपने दोनों बेटों (तेज प्रताप और तेजस्वी) को खड़ा कराकर शपथ दिलवायी न कि अब्दुल बारी सिद्दीकी को जो उस समय लालू यादव के बाद पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेताओं में एक थे। लालू यादव चाहते तो अब्दुल बारी सिद्दीकी को किसी एक बेटे की जगह नीतीश के साथ शपथ दिला सकते थे मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसी तरह पप्पू यादव को लेकर भी लालू यादव हमेशा अति-सावधान रहे हैं कि उनका कद इतना बड़ा न हो जाए कि वह लालू यादव के आसपास भी दिखायी दें।

कोई एक कारण सही हो या सारे ही कारण सटीक हों, कुल मिलाकर बिहार विधान सभा चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की स्थिति ‘उगलो तो अन्धा निगलो तो कोढ़ी’ वाली हो गयी है। इस कैच-22 स्थिति से निकलने के लिए ओवैसी जी ने मीम और भीम (आम्बेडकरवादी) के गठजोड़ को विकल्प के तौर पर आजमाना चाहा मगर उसमें भी उन्हें अब तक खास सफलता नहीं मिली है। अगर यह प्रयोग सफल हो जाए तो मीम और भीम के गठजोड़ में भी मुसलमान को किंग बनने के बजाय किंग-मेकर की भूमिका स्वीकार करनी होगी! इस राजनीतिक बेबसी का कोई हल फिलहाल ओवैसी जी के पास नहीं दिख रहा है!

आज इतना ही। शेष,फिर कभी।