चुनावी घूस। टीवी पर एक बहस में जब मैंने ये शब्द सुने किसी अनजान महिला राजनीतिक विशेषज्ञ से, तो सोचने पर मजबूर हुई कि हम मीडिया वाले क्यों इन शब्दों का ज्यादा उपयोग नहीं करते हैं। चुनावों से पहले परंपरा रही है कि राजनेता झूठे वादे करते हैं हर लोकतांत्रिक देश में, लेकिन जहां लोकतांत्रिक संस्थाएं मजबूत हैं, वहां झूठे वादों को काबू में रखने के तरीके होते हैं कानूनी भी और संवैधानिक भी।
हमारे इस प्राचीन देश में, जिसको हमारे प्रधानमंत्री ‘मदर आफ डेमोक्रेसी’ कहते हैं (वह देश जिसकी कोख से लोकतंत्र पैदा हुआ), यहां क्यों नहीं हम झूठे वादों को नियंत्रण में रख पाते हैं, यह सोचने वाली बात है।
मैंने पत्रकार के नाते पहला लोकसभा चुनाव 1977 में देखा था। उस वक्त मैं एक बेहद मामूली संवाददाता थी। महीने में एक बार अखबार में अपना नाम किसी ‘बाइलाइन’ में देखती थी, तो घर जाकर अपने सारे रिश्तेदारों को दिखाती थी। मामूली जरूर थी, लेकिन उत्साह था बहुत ज्यादा और देशभक्ति की मशाल भी जलती थी दिल में। इसलिए जब मैंने चुनावी घूस को पहली बार देखा, तो शर्मिंदा हुई और गुस्सा भी आया। मैं पैदा हुई थी आजादी के तीन साल बाद, जब देशभक्ति दिखती थी जगह-जगह। फिल्मी गानों में, अफसरों की ईमानदारी में, लेखकों की किताबों में और कवियों की कविताओं में।
उस चुनाव में मैंने जब अपनी आंखों से देखा कांग्रेस कार्यकर्ताओं को गरीबों की कच्ची बस्तियों में शराब की बोतलें, पैसे, साड़ियां और कंबल बांटते हुए मतदान के दो दिन पहले, तो बहुत बुरा लगा था मुझे। चुनावी घूस उस जमाने में थी, लेकिन इन चीजों तक ही सीमित थी।
आज चुनावी घूस का ऐसा दौर आया है कि इसको लोक कल्याण योजनाओं की शक्ल दी जाती है। इसलिए पिछले सप्ताह तेजस्वी यादव ने एलान किया कि जिस दिन उनकी सरकार बनती है, उनका वादा है कि हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी दिलवाएंगे। महिलाओं के लिए इससे भी खास वादा है कि बिहार की जीविका दीदियों की सरकारी नौकरियां पक्की की जाएंगी और उनका मासिक वेतन तीस हजार तक हो जाएगा।
अनुमान लगाया जा रहा है कि इन वादों को पूरा करने के लिए तेजस्वी यादव को चमत्कार करके उनतीस लाख करोड़ पैदा करने होंगे। लाएंगे कहां से? यह भी याद रखना जरूरी है कि इतनी सरकारी नौकरियां पैदा कैसे होंगी इस एआइ और कंप्यूटर के जमाने में।
तेजस्वी अकेले नहीं हैं जिन्होंने चुनावी घूस देकर लोगों के वोट हासिल करने का प्रयास किया है। प्रधानमंत्री मोदी उनसे दो कदम आगे हैं और एक ऐसी योजना शुरू की गई है बिहार में जिसके जरिए 1.27 करोड़ महिलाओं के बैंक खातों में दस हजार रुपए जमा हो चुके हैं। यह चुनावी घूस नहीं है तो क्या है? यहां याद कराना चाहूंगी आपको कि महाराष्ट्र चुनाव शायद भारतीय जनता पार्टी का गठबंधन हार जाता अगर ऐन मतदान से पहले ‘लाडली बहना’ योजना शुरू न की गई होती, जिसके द्वारा लाखों महिलाओं को हर महीने पंद्रह सौ रुपए उनके खातों में देने का प्रावधान था।
मतदान से पहले महिलाओं के खातों में सात हजार रुपए पहुंच चुके थे। जिसकी वजह से मेरे कई जानकारों ने अपना वोट बदल दिया आखिरी वक्त। सारा चुनाव पलट कर रख दिया था इस एक चुनावी घूस ने। मगर बाद में महाराष्ट्र सरकार को इसका खमियाजा झेलना पड़ा और उनके कई ठेकेदारों ने खुल कर कहा कि सरकार पैसा नहीं दे रही है उनके काम के लिए।
चुनावी घूस से जो नुकसान देश को होता है, वह बेहिसाब है। इसलिए कि जो पैसा चुनाव जीतने के लिए खर्चे जाते हैं, अगर उनका बेहतर उपयोग होता, तो सरकारी स्कूलों और अस्पतालों में जरूरी सुधार शायद किए जाते। बेहाल गांवों की हालत सुधारी जा सकती थी। इन चीजों को छोड़िए जो सबसे जरूरी सुधार फिलहाल उत्तर भारत में होना चाहिए, वह है शहरों में वायु प्रदूषण कम करना।
मैं दिल्ली के एक छोटे गांव में बैठ कर यह लिख रही हूं, दोपहर का वक्त है, लेकिन ऐसा लगता है जैसे शाम हो चुकी है, क्योंकि प्रदूषण की एक गहरी चादर बिछ चुकी है, इस पूरे महानगर पर। मैं कुछ खरीदने बाहर निकली, तो फौरन आंखों में जलन होने लगी और खांसी ऐसी आई जैसे कि अचानक बीमार हो गई हूं। रही बात यमुना की, तो छठ पर इस नदी का पानी उतना ही प्रदूषित होगा, जितना पिछले साल था। भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन जाने के बाद दिल्ली में इतना भी फर्क नहीं आया है कि सड़कों से कूड़ा उठाने का काम हुआ हो दिवाली से पहले।
देश के राजनेता कहते हैं कि जिसको हम चुनावी घूस कह रहे हैं, वे वास्तव में समाज कल्याण योजनाएं हैं, जिनसे देश के सबसे गरीब नागरिकों को सबसे ज्यादा लाभ होता है। झूठ बोलते हैं। सवाल यह है कि समाज कल्याण योजनाएं चुनावों से अचानक पहले क्यों याद आती हैं हमारे राजनेताओं को? वास्तव में समाज का कल्याण करना चाहते, तो ऐसी योजनाएं तब क्यों नहीं तैयार होती हैं जब उनके हाथ में सत्ता होती है? तभी क्यों याद आती है इनकी, जब चुनाव सिर पर होते हैं?
सच यह भी है कि चुनावी घूस देने की जरूरत तब पड़ती है जब राजनेता शासन संभालने में असफल इतने होते हैं कि आखिरी समय पर उनको याद आता है कि उन्होंने उन लोगों के लिए कुछ नहीं किया है जिनके वोट लेकर उनकी सरकार बनी थी। चुनाव हारने का डर जब उनको सताने लगता है, तब आता है समय फिर से झूठे वादे करने का। उनके ढोंग को झूठे वादे कहना गलत है, इसलिए कि वास्तव में ये वादे नहीं हैं, यह चुनावी घूस है।
