बिहार चुनाव के लिए सभी दलों के टिकट वितरण और नामांकन की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। चुनाव से पहले के सारे अयास-कयास अब धरातल पर उतर चुके हैं। बिहार की सियासी बिसात पर किसने कौन सा मोहरा कहाँ चला है, यह साफ देखा जा सकता है।

पहले चरण का मतदान छह नवंबर को होना है। अभी तक के माहौल से साफ है कि किसी दल के पक्ष में कोई प्रत्यक्ष लहर नहीं चल रही है। मुख्य मुकाबला सत्ताधारी एनडीए और मुख्य विपक्षी महागठबंधन के बीच है। जन सुराज के संस्थापक प्रशांत किशोर दावा कर रहे हैं कि उनकी पार्टी छिपा-रुस्तम साबित होगी मगर आम लोगों से बातचीत में ज्यादातर लोग उसे भविष्य का रुस्तम बता रहे हैं।

बिहार चुनाव को लेकर जिससे भी बात करिए वह यही कह रहा है कि तेजस्वी की 2020 वाली हवा नहीं है। तेजस्वी यादव के समर्थक भी मान रहे हैं कि हवा 2020 वाली नहीं है मगर इतनी जरूर है कि राजद राज्य में सरकार बना लेगी। तेजस्वी के समर्थकों को बदलाव की चाह, युवाओं का झुकाव, मुकेश सहनी से जुड़ाव, कुशवाहा उम्मीदवारों पर दाँव, पर काफी भरोसा दिख रहा है।

दूसरी तरफ, भाजपा-जदयू समर्थक इस बार पिछले चुनाव के मुकाबले ज्यादा आश्वस्त नजर आ रहे हैं। भाजपा के कुछ समर्थकों को लगता है कि पार्टी पिछली बार से काफी ज्यादा सीटों पर जीतने जा रही है। ऐसे समर्थकों का उत्साह देखते हुए ही शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी समस्तीपुर की रैली में कह दिया कि एनडीए रिकॉर्ड जीत हासिल करेगा।

पीएम मोदी के इस बयान के पहले मीडिया ने दावा किया कि अमित शाह ने एनडीए के लिए 160 सीटें जीतने का टारगेट रखा है। पिछले चुनाव में चिराग पासवान के बिना एनडीए ने 125 सीटों पर जीत हासिल की थी।

भाजपा-जदयू को बिहार विधान सभा में रिकॉर्ड जीत वर्ष 2010 में मिली थी जब इन दो दलों ने 206 सीटों पर जीत हासिल की थी। प्रधानमंत्री ने भले ही रिकॉर्ड तोड़ जीत की बात कही हो मगर भाजपा के प्रचार में यह दावा गायब दिख रहा है। लोक सभा चुनाव में ‘अबकी बार 400 पार’ के उलटवार के बाद भाजपा बिहार में 200 पार का नारा देने में शायद हिचक रही हो।

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नीतीश कुमार को लेकर बिहार की आम जनता की राय कमोबेश प्रशांत किशोर की राय से मिलती है। एक टीवी चैनल ने जब प्रशांत किशोर से पूछा कि वह नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव में से किसे बेहतर नेता मानते हैं तो किशोर ने साफ कहा कि दोनों के बीच कोई तुलना नहीं है।

किशोर ने यह भी कहा कि नीतीश कुमार को जितना काम करना चाहिए था वह नहीं कर पाए हैं मगर उन्होंने अब तक खुद को भ्रष्टाचार और परिवारवाद से दूर रखा है।

सार्वजनिक जीवन में पाँच दशक गुजारने के बावजूद भारतीय राजनीति की इन दो बड़ी बीमारियों से दूर रह पाना सामान्य बात नहीं है। यही कारण है कि आम जनता के बीच नीतीश कुमार की अपील आज भी बरकरार है।

राजद समर्थक नीतीश कुमार की तबीयत को निशाना बनाकर यह दिखाना चाह रहे हैं कि जनता अगर नीतीश को देखकर वोट देगी तो उसके साथ चुनाव बाद धोखा होगा। एनडीए समर्थक भी मान रहे हैं कि नीतीश जी की सेहत परफेक्ट नहीं है मगर उनकी नजर में स्थिति नियंत्रण से बाहर नहीं है।

जदयू समर्थक मान रहे हैं कि नीतीश अगर स्वास्थ्य कारण से सीएम नहीं बनते हैं तो भी वही सीएम बनेगा जिसे नीतीश चाहेंगे। कुछ मीडिया रिपोर्ट में यह भी दावा कर दिया गया कि नीतीश कुमार के बेटे भी डिप्टी सीएम बनाये जा सकते हैं मगर सुशासन कुमार का पिछला रिकॉर्ड देखकर इस पर फिलहाल यकीन करना मुश्किल है।

2020 में तेजस्वी यादव ने बेरोजगारी को बड़ा मुद्दा बनाया जिसका भाजपा-जदयू पर दबाव आज तक दिखायी देता है। बेरोजगारी सदाबहार मुद्दा है। तेजस्वी इस बार भी नौकरी को अपना सबसे बड़ा मुद्दा बता रहे हैं मगर इस बार पिछली बार जैसी हवा बनाने में वह अभी तक सफल नहीं दिख रहे हैं।

नौकरी का मुद्दा तेजस्वी के हुकुम का इक्का था मगर उन्होंने हर घर में एक सरकारी नौकरी का वादा करके शायद अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली है। तेजस्वी ने जीविका दीदियों को 30 हजार रुपये महीने देने और संविदाकर्मियों को नियमित करने का भी वादा किया है। तेजस्वी के ये वादे इतने बड़े हैं कि एक वर्ग को अविश्वसनीय नजर आने लगे हैं।

तेजस्वी के इन वादों को लेकर माहौल बनने के बजाय हवाई-जुमले की तरह देखा जाने लगा है। तेजस्वी के हर घर में सरकारी नौकरी के वादे का असर भाजपा के 400 पार के नारे से की जा सकती है। लालू-राबड़ी के 15 साल के शासन में मिली नौकरियों के आंकड़े भाजपा-जदयू ने ऊपर कर दिये हैं। कम से कम भाजपा-जदयू समर्थक यही मान रहे हैं कि सत्ता में पाने के लिए तेजस्वी यादव हवाई वादे कर रहे हैं।

कुछ जानकार तेजस्वी के नारे की तुलना लोक सभा चुनाव में कांग्रेस द्वारा देश के सबसे निचले 20 प्रतिशत गरीबों को साल में 72 हजार रुपये देने के वादे से कर रहे हैं। उस वक्त भी मोदी-समर्थकों ने राहुल के वादे को चुनावी जुमला माना और उसका वैसा असर नहीं हुआ जैसा राहुल गांधी के सलाहकारों ने उम्मीद की होगी।

भाजपा लालू-राबड़ी कार्यकाल के कथित ‘जंगलराज’ पर बहुत ज्यादा जोर दे रही है मगर इसका असर उसी वर्ग पर ज्यादा हो रहा है जो उसका परंपरागत वोटर है और खुद को लालू राज का भुक्तभोगी मानता है। ऐसे वोटरों में अगड़ी जातियाँ, ओबीसी बनिया जातियाँ और अत्यंत पिछड़ी जातियाँ ज्यादा हैं।

21वीं सदी में जवान हुए बिहारी नौजवानों के लिए ‘जंगलराज’ का वह मतलब बिल्कुल नहीं है जो 1990 से पहले पैदा हुई पीढ़ियों के लिए है। ऐसे में ‘जंगलराज’ की दुहाई से भी राजद विरोधी लहर नहीं तैयार हो रही है। इसके माध्यम से पुराने वोटरों को पुराना डर दिखाया जा रहा है। नए वोटर इसे उतना वजन देते नहीं दिख रहे हैं।

भाजपा-जदयू नीतीश राज में सुधरी बिजली-सड़क की स्थिति और महिला-केंद्रित योजनाओं पर बहुत जोर दे रही है मगर जो पीढ़ी बचपन से बेहतर बिजली-सड़क या महिला आरक्षण देखती आ रही है उसके लिए ये चीजें “पुरानी” पड़ चुकी हैं।

एनडीए नीतीश राज में बिहार में बेहतर हुए सड़क-बिजली-सुरक्षा को मुद्दा बनाए हुए है। एनडीए लड़कियों को साइकिल देने, जीविका दीदियों को नौकरी देने, उनका मानदेय बढ़ाने और पंचायत चुनाव में महिलाओं को आरक्षण जैसे उठा रही है। इन मुद्दों की सीमा ये है कि वेतन, मानदेय, सहायत राशि बढ़ाने जैसी ताजा घोषणाओं को छोड़ दें तो ये सारी योजनाएँ पुरानी हो चुकी हैं।

प्रशांत किशोर जैसे विरोधी भी नीतीश कुमार को 2015 से पहले और बाद के काल में बांटकर दिखा रहे हैं। विपक्षी दल जनता के बीच सन्देश दे रहे हैं कि नीतीश जी ने पहले 10 साल में जो किया उसी को आज तक भुना रहे हैं। नीतीश कुमार की इन योजनाओं का लाभार्थी वर्ग उनके प्रति नरम तो है मगर उनमें ऐसी कोई लहर नहीं है।

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नेशनल मीडिया में छाए हुए प्रशांत किशोर द्वारा उठाए गये मुद्दे जनता को पसन्द तो आ रहे हैं मगर उनके पास उन समस्याओं का समाधान है, इस पर यकीन करने वाले ज्यादा नहीं दिख रहे। शिक्षा, पलायन और बदलाव, उनके तीन प्रमुख मुद्दे हैं मगर इनकी कोई लहर चल रही है या नहीं यह सतह पर जाहिर नहीं है।

किसी चुनावी लहर के अभाव में एनडीए और महागठबंधन दोनों ने मजबूत उम्मीदवार और जातीय गोलबन्दी को तवज्जो देकर टिकट वितरण किया है। कई सीटों पर उम्मीदवारों की अदल-बदल हो गयी है। जो उम्मीदवार पिछले चुनाव में एनडीए खेमे में था वही अब राजद खेमे में है और इसका उलटा भी हुआ है। यानी चुनाव में पार्टी के नाम जितना ही महत्व उम्मीदवार की निजी क्षमता का होगा।

मोदी लहर या केजरीवाल लहर की तरह बिहार में महज राजद या एनडीए का टिकट पा जाने से किसी उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित नहीं हो जाएगी।
प्रशांत किशोर ने भी टिकट वितरण में स्थानीय समीकरण का ध्यान रखा है। इसलिए कुछ जगहों पर उनके प्रत्याशी चुनाव जीत सकते हैं जैसे कुछ मजबूत निर्दलीय उम्मीदवार हर चुनाव में जीतकर आते हैं।

अभी तक के माहौल को देखकर लगता है कि बिहार चुनाव सीट दर सीट तय होगा। सियासी टक्कर स्थानीय होगी। जो उम्मीदवार स्थानीय समीकरण साधने में कामयाब रहेगा और वोटरों का मैनेजमेंट करने में सफल होगा उसके जीतने की सम्भावना ज्यादा होगी।

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