1960 के दशक में कांग्रेस की केंद्रीय सत्ता को चुनौती देते हुए कई क्षेत्रीय क्षत्रप उभरे, और क्षेत्रीय मुद्दों को राष्ट्रीय राजनीति के मंच का मुद्दा बनाया। भारत जैसे विशाल भूगोल के संदर्भ में क्षेत्रीय दलों के राजनीतिक अस्तित्व को संघीय ढांचे की रीढ़ की तरह देखा गया। राजनीति का गणित हमेशा दो जमा दो चार का नहीं होता, यह पांच भी हो सकता है। ऐसा ही क्षेत्रीय दल बनाम कांग्रेस की लड़ाई में हुआ। क्षेत्रीय दलों द्वारा कांग्रेस की खाली कराई गई जमीन पर दूसरे राष्ट्रीय दल भारतीय जनता पार्टी का उभार शुरू हुआ। अब भारतीय जनता पार्टी वह केंद्रीकृत सत्ता है, जिसके चारों तरफ क्षेत्रीय दल घूर्णन कर रहे हैं। भाजपा आलाकमान कह चुके थे कि जल्द ही क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। भाजपा की यह प्रयोगशाला पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र में अपना प्रयोग सफल कर बिहार में स्थापित हो चुकी है। बिहार का विधानसभा चुनाव कई मायनों में अहम है। यह सिर्फ नीतीश कुमार ही नहीं, क्षेत्रीय दलों के भविष्य की भी झलक दिखाएगा। क्या बिहार में राजनीतिक प्रयोगशाला से एक और ‘एकनाथ’ निकलेंगे? पड़ताल करता बेबाक बोल।
कांग्रेस और राजद को बुर्का इसलिए चाहिए, ताकि फर्जी वोटर उसकी आड़ में वोट डाल सकें और गरीबों-दलितों के वोट पर डकैती डाल सकें।’ योगी आदित्यनाथ ने सहरसा में यह भाषण देकर बिहार विधानसभा चुनाव में जाति के साथ धर्म की भी जोड़ी बना दी है। आगामी बिहार विधानसभा चुनाव कई मायनों में नजीर बनने वाला है। भाजपा की वैचारिकी के अग्रदूत ने बिहार में धर्म की राजनीति की प्राण प्रतिष्ठा कर दी। चुनाव में धर्म की प्रतिष्ठा, जाति की साख के ऊपर हो जाएगी, तो इसका खमियाजा क्षेत्रीय दलों को ही भुगतना पड़ेगा। धर्म का छाता जब सभी जातियों को अपनी छांव में लेगा तो उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र की तरह सबसे ज्यादा नुकसान बिहार के क्षेत्रीय दलों को ही होगा।
वादा पूरा भी हो पाएगा? बिहार में तेजस्वी के सरकारी नौकरी देने के ऐलान का विश्लेषण
1920 में स्थापित हुए अकाली दल ने आजाद भारत में सिखों की पहचान को अपनी राजनीति का केंद्र बनाया था। कभी पंजाब की पहचान बनने वाला अकाली दल आज अपनी पहचान बचाने के लिए जूझ रहा है। हरियाणा में भजनलाल से लेकर बंसीलाल तक की पार्टी भाजपा बनाम कांग्रेस के विमर्श में अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रही है। एक समय ऐसा था, जब हरियाणा के क्षेत्रीय दल के प्रभाव के कारण इस सूबे के नेताओं के हिस्से उपप्रधानमंत्री से लेकर केंद्रीय मंत्रियों के पद आए थे। आज के दौर में क्षेत्रीय दलों से संतुलन बिठाने के लिए मुख्यमंत्री के साथ दो उपमुख्यमंत्री होना आम बात हो गई है। बिहार में मुख्यमंत्री पद के मुख्य दावेदार तो अभी दो ही हैं। लेकिन, हर तरफ से उपमुख्यमंत्री पद की मांग जोर पकड़ रही है तो, उसका कारण यही है कि बड़े क्षेत्रीय दल का प्रभाव घट रहा है।
1947 में आजादी के बाद देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस को 1949 में पहली चुनौती द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के रूप में मिली। द्रविड़ आंदोलन की पहचान के लिए छिड़े आंदोलन से उभरे इस दल ने दक्षिण में कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया। तेलगु देशम पार्टी, असम गण परिषद, शिवसेना, जनता दल, राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी से लेकर कांग्रेस से टूट कर अलग हुई तृणमूल कांग्रेस, इन सभी ने कांग्रेस को अखिल भारतीय स्तर पर कमजोर कर देश को गठबंधन की सरकार की प्रयोगशाला में भेज दिया।
क्षेत्रीय दल कांग्रेस की जितनी ज्यादा जमीन छीनते गए, उसके विकल्प में दूसरे सबसे बड़े राष्ट्रीय दल भाजपा की जमीन बनती गई। अब वक्त आ गया था, कांग्रेस की खाली कराई गई जमीन से क्षेत्रीय दलों के निर्माण हटाने का। बड़ा दल अपनी प्रयोगशाला में क्षेत्रीय दलों को किस तरह अस्तित्वहीन कर देता है, इसके उदाहरण पंजाब, हरियाणा और महाराष्ट्र हैं। इस प्रयोगशाला में सबसे प्रासंगिक महाराष्ट्र है। महाराष्ट्र में शिवसेना एक बड़ी पार्टी थी, जिसका केंद्र की सरकार में हिस्सा होता था। कांग्रेस से टूट कर बनी राकांपा अपने पितृ-दल को भरपूर नुकसान पहुंचाने के बाद खुद विभाजन का शिकार हो गई।
महाराष्ट्र में दोनों क्षेत्रीय दलों को कमजोर करने के लिए रणनीतिगत कदम उठाए गए। पहले दोनों दलों को दो फाड़ किया गया। दोनों दल अपने ही अलग हुए अंग से लड़ने लगे। दोनों के अलग हुए अंगों ने सत्ताधारी पार्टी के शरीर का हिस्सा बनना पसंद किया। आज दोनों दल सत्ताधारी शरीर में अपनी पहचान खोजने में जुटे हुए हैं। क्षेत्रीय दलों को कमजोर करने की प्रयोगशाला में एकनाथ शिंदे नजीर बन चुके हैं।
बिहार में इस समय सबसे बड़ा सवाल यही है कि नीतीश कुमार का हश्र एकनाथ शिंदे की तरह तो नहीं हो जाएगा? पिछले एक दशक में भाजपा के सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी बन जाने के बाद उसके आलाकमान चेतावनी दे चुके थे कि बहुत जल्द क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व मिट जाएगा। हालांकि 2024 में क्षेत्रीय दलों के गठबंधन के सहारे ही भाजपा केंद्रीय सत्ता में आ पाई। चार सौ पार का नारा देने वाली पार्टी 240 सीटों पर सिमट गई, और क्षेत्रीय दलों के सहारे ही लगातार तीसरी बार सरकार बना पाई।
लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, मायावती, ठाकरे, पवार जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों ने अपने-अपने क्षेत्र में कांग्रेस को सत्ता से दूर किया। हर क्षेत्रीय क्षत्रप का बढ़ना, कांग्रेस का घटना था। भाजपा ने सत्ता प्राप्ति के इस अंकगणित को समझ कर कई राज्यों में इसे आजमाया। सत्तारूढ़ दल कभी भी क्षेत्रीय दलों पर उतना ज्यादा हमलावर नहीं होता है, जितना कांग्रेस पर। बिहार में मुख्य विपक्षी दल राजद है, लेकिन कमजोर कांग्रेस को किया जा रहा है। सत्ताधारी दल को इस बात की पहचान है कि उसके लिए जब भी अखिल भारतीय खतरा उभरेगा तो उसका नाम कांग्रेस ही होगा। फिलहाल यह खतरा 40 से 99 पर पहुंच गया है। इसलिए वह सूबाई चुनाव में भी मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस को ही रखती है। क्षेत्रीय मसलों पर भी उदाहरण नेहरू और इंदिरा के दिए जाते हैं।
आज यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि अण्णा हजारे के आंदोलन से लेकर आम आदमी पार्टी के उदय में किस संगठन की सोच और शक्ति थी। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी कांग्रेस का एक-एक वोट काट कर सत्ताधारी दल के वोटों का घड़ा भरती है। इस तरह के जितने भी दल हैं, वे सत्ताधारी दल के कट्टर समर्पित वोटों को नहीं काट सकते हैं। इनके हिस्से वे उदार वोट होते हैं, जो कांग्रेस के निशान का रुख कर सकते हैं। एक लंबी राजनीतिक नींद सोने के बाद मायावती सक्रिय हुई हैं तो उनके निशाने पर भी कांग्रेस है।
Explained: ओपिनियन पोल और एग्जिट पोल में क्या अंतर है?
देश में अभी भी राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष कांग्रेस है, इसका अहसास नीतीश कुमार को बखूबी था। उन्हें डर था कि बिहार में भाजपा का बढ़ना, उनका खत्म होना होगा। इसलिए, उन्होंने कांग्रेस को साथ लेकर एक राष्ट्रीय मोर्चा बनाने की कोशिश की। मुश्किल यह है कि कांग्रेस ही अपनी इस राष्ट्रीय जिम्मेदारी को कमतर लेती है। कांग्रेस के साथ अंतहीन अंतर्विरोधों के बाद नीतीश भाजपा के खेमे में लौटने को मजबूर हुए। 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद भाजपा को अहसास हो गया कि अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए उसे बड़े क्षेत्रीय खिलाड़ियों की जरूरत पड़ेगी ही। इसलिए, कभी नीतीश कुमार को हराने के बाद ही पगड़ी बांधने की कसम खाने वाले सम्राट चौधरी नीतीश कुमार की सरकार के सिपाही बन गए।
बिहार में नीतीश कुमार का क्या होगा? यह सवाल नीतीश कुमार के संदर्भ में निजी नहीं रह गया है। यह सवाल अखिल भारतीय स्तर पर विपक्षी दलों के भविष्य को भी संदर्भित कर रहा है। उत्तर प्रदेश में एक क्षेत्रीय दल ने केंद्रीय सत्ता का सारा समीकरण बदल कर रख दिया, और सरकार का पूर्ण बहुमत का खिताब छिन गया।
आज भारत में लगभग 50 मान्यता प्राप्त क्षेत्रीय दल हैं। ये भाषा, संस्कृति, जाति से लेकर विभिन्न पहचानों के आधार पर बने हैं। भारत की भौगोलिक विविधता को बनाए रखने के लिए राजनीतिक विविधता को जरूरी समझा गया है। क्षेत्रीय आकांक्षाएं भारतीय लोकतंत्र का हिस्सा रही हैं। ये भारत के संघीय ढांचे की बुनियाद बन चुके हैं। केंद्रीकृत सरकार के खिलाफ स्वाभाविक प्रतिक्रिया के तहत ही क्षेत्रीय दलों का उदय होता रहा है। बिहार में सवाल यह है कि नीतीश का फिर से उदय होगा या वे अस्त हो जाएंगे? बिहार के नतीजे सिर्फ नीतीश कुमार ही नहीं, बल्कि क्षेत्रीय दलों का भविष्य भी तय करेंगे।
विकल्प के नाम पर हुए समाजवादी आंदोलन से निकले प्रखर नेताओं में से एक नीतीश कुमार सत्ता के संकल्प से लेकर विपक्ष के विकल्प, दोनों के निशाने पर हैं। तीर जिसका भी निशाने पर लगेगा, इरादा कांग्रेस को राजनीतिक रूप से और ज्यादा जख्मी करने का है। कांग्रेस के लिए चुनौती के रूप में उभरे क्षेत्रीय दल क्या आगे चुनौती देने की स्थिति में होंगे? बिहार का चुनाव इस तरह के कई केंद्रीय सवालों का जवाब होगा।