आधुनिक भारत के इतिहास के पन्नों पर बिहार की बात शुरू होती है, समाजवादी क्रांति से। समाजवादी क्रांति से निकले नीतीश कुमार अपने हिस्से का इतिहास बना चुके हैं, शायद ही उन्हें अब समय से कुछ और चाहिए होगा। साथ ही तय है कि अब बिहार का राजनीतिक इतिहास नए सिरे से लिखा जाएगा। बिहार में जद (एकी) और भाजपा दोनों का प्रदर्शन सर्वश्रेष्ठ है। यहां अहम है भाजपा का सबसे बड़ी पार्टी के रूप में आना। भाजपा ने बिहार में जिस सांगठनिक ढांचे के साथ प्रवेश किया है, अब क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व की लड़ाई और मुश्किल हो जाएगी। तेजस्वी यादव की हार इस बात का सबक है कि पुराने ढर्रे की राजनीति कर न तो नया मुकाम पाया जा सकता है और न ही पुराने को पाया जा सकता है। बिहार की जनता ने जिस तरह से रिकार्ड तोड़ मतदान कर भाजपा को ऐतिहासिक जीत दिलाई है, वह आने वाले समय में क्षेत्रीय दलों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनेगा। महिलाओं के राजनीतिक रूझान को ‘दस हजारी वोट’ से आगे बढ़ कर समझने की जरूरत है। बिहार में सफल कमल-कथा पर बेबाक बोल।
बात शुरू करने के दो तरीके हो सकते हैं। विपक्ष को सबक सीखने की सलाह दी जा सकती है। उसकी गलतियों की निशानदेही की जा सकती है। दूसरा तरीका यह है कि चुनावी स्कूल में साल भर पढ़ाई करने वाली विद्यार्थी भाजपा की चुनावी रणनीति का विश्लेषण किया जा सकता है। अब 14 नवंबर 2025 का यथार्थ यही है कि दूसरे तरीके को चुनने पर पहला तरीका उसमें खुद ही समाहित हो जाएगा।
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भारतीय लोकतंत्र राजनीतिक गतिविधियों और चुनाव से ही बनता है। इसलिए जरूरी है कि आप अपनी राजनीतिक गतिविधियों में निरंतरता बरकरार रखें। याद करें बिहार का पिछला चुनाव। उस वक्त राजनीतिक विश्लेषकों ने भाजपा की जिन गलतियों की निशानहेदी की थी, भाजपा ने 2025 में उस पर पूरा काम किया। उस वक्त की पहली चूक थी, चिराग पासवान को नीतीश कुमार से ज्यादा तवज्जो देना। उस वक्त इस वजह से नीतीश कुमार और भाजपा को जो नुकसान हुआ, वह महागठबंधन के फायदे में रहा था। इस बार चुनाव की शुरुआत में भाजपा ने नीतीश कुमार को मान-सम्मान देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। उनकी अगुआई को स्वीकार किया था।
नीतीश कुमार को मान देने में चिराग का अपमान न हो, इसका भी पूरा ध्यान रखा था। बिहार ने संदेश दे दिया कि वरिष्ठ जब तक काम करते रहें ‘जेन जी’ को उनकी छत्र-छाया में रहना चाहिए। अभी पूरी दुनिया में जो ‘जेन जी’ का सिद्धांत चल रहा है, बिहार में आकर वह भी धूल फांक रहा है। बिहार के ‘जेन जी’ ने वरिष्ठों के अनुभव को ही चुना है। बिहार चुनाव में ‘युवा’ शब्द पूरी तरह अपनी प्रासंगिकता खो बैठा।
दूसरा सबक, जो बिहार ही नहीं लगभग पूरे देश का समीकरण बन चुका है, जातिगत समीकरणों को साधना। बिहार जितनी तरह की जातियों और उसकी अस्मिताओं में बंटा है, भाजपा ने हर जाति की सीमा-रेखा पर जाकर उनसे घुलने-मिलने की कोशिश की। यह घुलना-मिलना पारंपरिक तुष्टीकरण से अलग है। पारंपरिक तुष्टीकरण में आप किसी ऊंचे मंच से एलान करते हुए दिखते हैं कि आप इन्हें साधना चाहते हैं।
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लेकिन, भाजपा ने दिखाया कि वह साध नहीं रही, साथ में सध रही है। जातिगत समीकरण को साधने के मोर्चे पर भाजपा के पास पितृ-संस्था है, जो फिलहाल अन्य दलों के पास नहीं है। वह है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जमीनी दस्ता। यह दस्ता चुनाव आने पर हाथी, घोड़े से प्रवेश नहीं करता है। यह तो वहीं जातियों के बीच कदमताल करते हुए कब सबको अपने कारवां में शामिल कर लेता है, पता ही नहीं चलता।
जब चुनाव जातिगत आधार पर लड़ा जा रहा हो, तो वहां भी यह अहम हो जाता है कि आप किस तरह से अलग दिखेंगे, जब दोनों पक्ष जातिगत गठबंधन में हों। मल्लाह समुदाय के नेता मुकेश सहनी, यह इतिहास बनाने में कामयाब रहे कि चुनाव के पहले उपमुख्यमंत्री पद का एलान कर दिया गया। लेकिन सहनी मल्लाहों का वोट नहीं जुटा पाए। बिहार चुनाव का सीधा संदेश है कि जातिगत समीकरण में भी एक केंद्रीय वैचारिक झुकाव काम करेगा। जातिगत समीकरण तभी सधेंगे जब सत्ता होगी।
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जद (एकी) का शानदार प्रदर्शन, नीतीश कुमार की निजी छवि के कारण हुआ। हमने इस स्तंभ में नीतीश की तुलना फिनिक्स पक्षी से की थी, जो अपनी राख से पैदा हो जाता है। नीतीश एक बार फिर भारतीय राजनीति के फिनिक्स साबित हुए हैं। अपना विकल्प खड़ा हुआ देख कर भी डटे रहने के संकल्प से उन्होंने भारतीय राजनीतिक इतिहास में अपने लिए अलग अध्याय सुरक्षित कर लिया है। हालांकि नीतीश की यह निजी छवि जद (एकी) की सांगठनिक छवि में नहीं तब्दील हो पाएगी।
आज बिहार में जद (एकी) के पास भी वह सांगठनिक ढांचा नहीं है, जो बजरिए संघ भाजपा के पास है। चुनाव सिर्फ चुनाव आयोग की तारीखों के एलान के बाद नहीं लड़ा जाता है। राजनीति एक बारहमासा प्रक्रिया है। चुनाव की तारीखों के एलान के बाद तेजस्वी यादव ने कहा कि हम राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाना चाहते हैं। हम तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं, यह बोलने में कांग्रेस ने पहले चरण के नामांकन तक का वक्त ले लिया। आत्मविश्वास की खुराक ज्यादा हो जाती है तो वह अहंकार की तरह दिखने लगता है। विपक्ष को यह अहंकार सा हो गया था कि जनता अपना राजनीतिक फैसला लेने के लिए उसके ढुलमुल फैसले का इंतजार करेगी।
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बिहार के संदर्भ में एक अहम कारक महिला मतदाताओं को माना जा रहा है। यह ठीक है कि चुनाव के वक्त उनके खाते में दस हजार रुपए डाले गए। लेकिन, इसका मतलब यह नहीं है कि आप इस पूरे तबके को अब ‘दस हजारी’ वोट के नजरिए से देखते रहेंगे। नीतीश कुमार ने अपने पहले कार्यकाल से ही महिलाओं पर ध्यान केंद्रित किया था।
जिन स्कूली लड़कियों को नीतीश कुमार ने साइकिल दी थी, अब वे बड़ी होकर मतदाता बन चुकी हैं। जिन इलाकों में लड़कियों का स्कूली खर्चा तक बोझ माना जाता था, वहां जब लड़कियां फर्राटे से साइकिल चला कर स्कूल जाने लगीं तो सबसे ज्यादा खुशी उनकी मांओं को ही हुई होगी। इस बार वे मां-बेटी साथ वोट देने गई होंगी। जब आप शराबबंदी की मुखालफत करेंगे तो उस कमजोर वर्ग की महिलाओं का समर्थन नहीं ही मिलेगा, जिनके घर से शराब की बोतलें बाहर गईं और स्कूल जाने के लिए साइकिल आई।
साइकिल, महिलाओं की आर्थिक मदद व शराबबंदी जैसी चीजों के साथ महिलाएं समाज के समीकरणों से भी बंधी हुई हैं। उनमें भी उतनी जातीय अस्मिता है, जितनी मर्दों में। राजनीति को लेकर वे भी उतनी सजग हैं, जितने मर्द। इसलिए उनके वोट को दस हजार और अन्य आर्थिक मदद से अलग हट कर देखने की जरूरत है। देश की एक संपूर्ण नागरिक की तरह।
राजद के लिए यह सोचने का समय है कि ‘जंगलराज’ का आखिर वह कैसा जख्म था, जो बीस साल बाद भी हरा हो जाता है। आज यह लिखते वक्त तेजस्वी यादव का एक भी भाषण याद नहीं आ पा रहा है, जिसमें उन्होंने यह भरोसा दिलाया हो कि वे बिहार को अपराध-मुक्त करेंगे। एक भी कवायद याद नहीं आती है, जिसमें उन्होंने राजद की छवि बदलने की कोशिश की हो।
वे अपने पिता के ढर्रे पर ही राजनीति करते दिखे। वही ढर्रा, जिसमें आप सामंतवाद को गाली देते-देते खुद ही सामंती रवैया अख्तियार कर लेते हैं। जब आपको सत्ता मिली थी तो आप जैसे सामंत हुए थे, उन किस्से-कहानियों को दिमाग, जुबान से मिटाने की आपने कोशिश की होती तो यह पूरा चुनाव आपके पिता के कथित ‘जंगलराज’ वाली छवि पर केंद्रित नहीं होता। राजनीति के मैदान में देर से आने वालों का नतीजा कभी दुरुस्त नहीं होता। यहां देर के बाद सिर्फ अंधेर ही है। कांग्रेस ने यहां भी आने में, सक्रिय होने में बहुत देर कर दी थी।
इन नतीजों के बाद आलाकमान मल्लिकार्जुन खरगे से लेकर राहुल गांधी पर और सवाल उठेंगे। राष्ट्रीय स्तर पर कठघरे में खड़े किए जाएंगे। फिनिक्स पक्षी के बरक्स कांग्रेस आगे ध्रुवीय भालू जैसे राजनीतिक व्यवहार से परहेज करे कि छह महीने जागने के बाद फिर छह महीने के लिए सो जाना है।
