बिहार विधानसभा चुनाव सत्ता पक्ष के लिए जितना हंगामेदार था, चुनाव के बाद वहां एकदम शांति है। राहुल गांधी और तेजस्वी यादव की पहचान सिर्फ बेटों के रूप में बताने वाले दलील दे रहे हैं कि उपेंद्र कुशवाहा के बेटे दीपक प्रकाश को पार्टी अध्यक्ष के वंश नहीं बल्कि काबिल के तौर पर देखिए। बिना चुनाव लड़े मंत्रिपद पा जाना वंशवाद नहीं सत्ता पक्ष का नया काबिलवाद है। बकौल उपेंद्र कुशवाहा बिना चुनाव लड़े बेटे को मंत्री बनाना समुद्र मंथन से निकले जहर पीना जैसा है। लेकिन जब आलोचकों ने उनके जहर पीने वाले तर्क का ‘गर्दा’ उड़ा दिया तो उन्होंने कलयुगी भाषा चुनते हुए सवाल उठाने वालों को भन-भनाने वाली मक्खी कह दिया। दावा किया जा रहा था कि बिहार का चुनाव देश को दिशा देगा। वहां से दो दिशा दिख रही हैं। मजदूर का बेटा मजदूर बनने के लिए बिहार से बाहर जाने की दिशा वाली ट्रेन पर बैठा है तो राजनेताओं के बेटे अभिनेता से लेकर अन्य आकर्षक करिअर छोड़ कर बिहार लौटने वाली ट्रेन में बैठने के लिए ‘मजबूर’ हैं। राजपुत्रों की ‘मजबूरी’ और कुशवाहा के मक्खी-मंथन पर बेबाक बोल।
‘विद्यालय की कक्षा में फेल विद्यार्थी नहीं है। मेहनत से पढ़ाई करके कंप्यूटर साइंस की डिग्री ली है, पूर्वजों से संस्कार पाया है उसने। इंतजार कीजिए, थोड़ा वक्त दीजिए उसे। अपने को साबित करने का। करके दिखाएगा। अवश्य दिखाएगा। आपकी उम्मीदों पर खरा उतरेगा।’
बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद राजग समर्थकों का प्रिय जुमला था, ‘गर्दा’ उड़ा दिया। नई सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में जब मंच पर दीपक प्रकाश प्रकट होकर शपथ लेने लगे, तो राजनीतिक नैतिकता धूल-धूसरित होकर ‘गर्दा’ बन कर आंखों में ऐसे घुसी कि समझ नहीं आया कि परिवारवाद का यह बवंडर बिहार की राजनीति को क्या दिशा देगा। नव निर्वाचित मंत्री से पत्रकार ने पूछा कि आपको मंत्री क्यों बनाया गया? दीपक प्रकाश कहते हैं-पापा से पूछिए।
भारतीय राजनीति में नेताओं ने भारतीय मिथकों का जितना घोर दुरुपयोग किया है, उसका सानी कहीं और खोजना मुश्किल होगा। उपेंद्र कुशवाहा ‘एक्स’ पर लिखते हैं, ‘इतिहास की घटनाओं से यही मैंने सबक लिया है। समुद्र मंथन से अमृत और जहर दोनों निकलता है। कुछ लोगों को तो जहर पीना ही पड़ता है।’
अगर शुरुआत की पंक्तियों से आपको मसाला हिंदी फिल्म का गाना ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा’ याद आ रहा होगा तो इन पंक्तियों के बाद हिंदी सिनेमा के गीत से उधार लेकरकहा जा सकता है, ‘तुम सा कोई प्यारा कोई मासूम नहीं है।’ जिस चुनाव में परिवारवाद सबसे बड़ा मुद्दा था, वहां पार्टी अध्यक्ष अपने उस बेटे को मंत्रिपद की शपथ दिलवाते हैं, जिन्हें राजनीति का क, ख, ग, घ भी नहीं पता। लेकिन, उपेंद्र कुशवाहा समुद्र मंथन, अमृत-विष का ऐसे उदाहरण दे रहे हैं मानो किसी ने ‘कपार पर कट्टा’ लगा कर कहा हो कि आपने अपने बेटे को मंत्री नहीं बनाया तो…।
शुरुआत में तो उपेंद्र कुशवाहा समुद्र-मंथन और अमृत-विष जैसी बातें करते रहे। लेकिन आलोचकों पर इस विराट व त्यागी अवतार का कोई असर नहीं हुआ तो उन्होंने एकदम ‘गर्दा उड़ाने’ वाली भाषा में एक्स पर एक और टिप्पणी की। उन्होंने लिखा- कभी-कभी बड़ों के द्वारा कही गई बातों को याद करना चाहिए। आज न जाने क्यों बड़े भाई श्री नीतीश कुमार जी की एक पुरानी बात याद आ गई। सोचा आपसे भी शेयर करूं-खाना खाते वक्त मक्खियां भन-भनाएंगी। चिंता मत कीजिए। बायें हाथ से भगाते रहिए। दाहिने से खाते रहिए।’
कुशवाहा की इस पोस्ट पर एक ने टिप्पणी की-यहां कवि कहना चाहता है कि मेरा दाहिना हाथ बेटा है। जो अब बिना चुन कर आए मंत्री बन कर मलाई खाएगा। यहां मक्खी वो जनता है जो मंत्री जी की आलोचना कर रही है।
अभी जब बिहार के शब्द ‘गर्दा’ मचा रहे हैं तो कुशवाहा की पोस्ट पर आईएक और टिप्पणी पर गौर फरमाएं-‘खाना खाने और खाना भकोसने में बहुत अंतर है। आप और आप जैसे नेता तो खाना भकोस ही रहे हैं…।’ समुद्र मंथन से मक्खी-मंथन पर पहुंचे कुशवाहा इतने बड़े राजनीतिक भ्रष्टाचार के बाद भाषा व भाव का संयम नहीं रख सके, तो आम लोग क्यों रखें? जिस मुद्दे को लेकर पूरा राजग कुनबा राहुल गांधी को इस धरती पर सांस लेने का अधिकार भी नहीं देना चाहता, वह परिवारवाद की आलोचना पर, सवाल उठाने वालों को मक्खी करार दे जाता है।
वैसे बिहार की भाषा में ही आगे बात करें तो उपेंद्र कुशवाहा का यह उदाहरण बहुत ‘घिनाया’ हुआ है। मतलब, इसकी कल्पना करते ही घिन पैदा होती है कि आप खा रहे हैं और आपके आस-पास इतनी मक्खियां उड़ रही हैं। अगर आपके भोजन करने की जगह पर मक्खियां उड़ रही हैं तो मतलब आप अपने घर की साफ-सफाई पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते हैं। फिर आपसे साफ-सुथरी राजनीति की उम्मीद हो भी क्यों?
यह सही है कि अब राजनीति में किसी तरह की शुचिता और नैतिकता की उम्मीद नहीं है। लेकिन शुचिता और नैतिकता के अवशेष तो शेष हैं।
आप चुनाव प्रचार में यह तो नहीं कहते कि भ्रष्टाचार, अपराध सब चुनाव बाद भी ऐसे ही रहेंगे, बस आप जाति देख कर या नीतीश जी को देख कर हमें वोट दे दीजिए। आप जनता से वही वादे करते हैं, जो अभी तक नागरिक-शास्त्र की किताबों में लिखा है। जनता का जीवन सुधारने का वादा। पूरे चुनाव में आपने जनता से यह नहीं कहा था कि दोहरे इंजन की जोड़ी और जाति के समीकरण से जीतने के बाद मैं अपने पुत्र को बिना चुनाव लड़े मंत्री बनवा दूंगा। आप तर्क दे रहे हैं कि पार्टी को बचाने के लिए ऐसा किया। बेटे को मंत्रिपद देने से पार्टी कैसे बचेगी भला?
आप अपनी चुनाव जीती हुईं पत्नी को मंत्री बनवाते तो लोकतंत्र की थोड़ी लाज भी बच जाती। आप जिन नीतीश कुमार का हवाला देकर मक्खी-मंथन कर रहे हैं, उन्होंने तो अभी तक लाज रखी कि दस बार मुख्यमंत्री बनने के बाद भी शपथ ग्रहण समारोह के दौरान उनके पुत्र दर्शक-दीर्घा में आम जनता की तरह बैठे थे। बड़े-बुजुर्गों की चुनिंदा चीजों को ही आप क्यों याद करते हैं?
इन सबके बीच मुकेश सहनी ज्यादा ईमानदार दिखते हैं जिन्होंने कहा था कि अगर क्षेत्रीय दल अपने परिवार से अध्यक्ष नहीं बनाएंगे तो पार्टी का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। लेकिन यह क्षेत्रीय दलों को बचाने का कोई रास्ता नहीं है। अभी आप जिनकी बयार में सीटें जीत रहे हैं, हो सकता है कि अगले चुनाव में वे ऐसा राजनीतिक तूफान बन जाएं कि उन्हें आपकी कोई जरूरत नहीं रहेगी। जब राष्ट्रीय पार्टी को आपकी किसी तरह की जरूरत नहीं रहेगी, जनता क्षेत्रीय दलों की जगह राष्ट्रीय दल को पसंद करेगी तो क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व कैसे बचेगा? राष्ट्रीय पार्टी के कीर्तिमान समय तक के अध्यक्ष ने यूं ही नहीं कहा था कि जल्द ही क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व मिट जाएगा।
देश के गरीब और पिछड़े राज्यों में से एक बिहार संसाधनों की कमी की भरपाई अपने राजनीतिक संघर्ष के इतिहास से करता आया है। मगध जनपद सरीखे गणराज्य से लेकर संपूर्ण क्रांति तक। चुनाव के पहले हर पारंपरिक विश्लेषक कह रहा था, बिहार का चुनाव देश को दिशा देगा।
उपेंद्र कुशवाहा के मक्खी-मंथन के बाद तो लग रहा, बिहार दिशाहीन हो चुका है। वैसे भी सूबे में चुनाव के बाद एक ही दिशा दिख रही है-बिहार से अन्य राज्यों में जाने वाली ट्रेनों की दिशा। दमघोंटू भीड़ में चौबीस से छत्तीस घंटे तक का सफर। मंत्री का बेटा मंत्री ही बनेगा की तर्ज पर बिहार के मजदूर का बेटा मजदूर बनने के लिए निकल चुका है। जो कह रहे थे, छठ के बाद कोई बिहार से बाहर नहीं जाएगा, वे अब कह रहे कि लोगों से मिलने के इतने रुपए लूंगा।
मजदूर का बेटा सोच रहा, इनसे मिलने के लिए ही अब बाहर जाकर कमाना पड़ेगा। मंत्रियों के बेटे अभिनेता से लेकर कंप्यूटर इंजीनियर बनने के बाद मंत्री बनने के लिए ‘मजबूर’ हो रहे हैं। मंत्रिपद के लिए उनकी गाड़ी मुंबई और अन्य जगहों से बिहार के लिए लौट रही है। बिहार से पलायन मजदूरों के पुत्रों की मजबूरी है। बिहार में वापसी नेताओं के ‘राजपुत्रों’ की ‘मजबूरी’।
