पठानकोट जैसे हमले होते रहेंगे भारत में कहीं न कहीं, जब तक हम स्वीकार नहीं करते कि ऐसे हमले एक अघोषित युद्ध का हिस्सा हैं। जिहादी आतंकवाद नहीं। पठानकोट हमले के बाद मैंने टीवी पर कई चर्चाएं सुनीं, कई लेख पढ़े, जो सुरक्षा विशेषज्ञों ने लिखे थे, लेकिन मायूसी से, क्योंकि बातें सिर्फ आतंकवाद के खिलाफ रणनीति तय करने की हुर्इं। पठानकोट में जो हुआ, उसको हम जिहादी आतंकवाद की श्रेणी में नहीं डाल सकते हैं। इसलिए कि हम जानते हैं अब कि हमलावर जैश-ए-मोहम्मद के प्यादे थे, जो संपर्क में थे जैश के सिपहसालारों के साथ, जो पाकिस्तान से इनको कदम-कदम पर आदेश दे रहे थे। हम यह भी जानते हैं कि जैश को पैदा किया था पाकिस्तानी सेना ने, इस स्पष्ट मकसद से कि यह कट््टरपंथी संस्था भारत पर किए जाने वाले बुजदिल, अघोषित युद्ध का हिस्सा बनें।

जैश की सगी बहन है लश्कर-ए-तैयबा, जिसने मुंबई में छब्बीस ग्यारह वाला हमला किया था। इन दोनों जिहादी संस्थाओं का जन्मदाता एक ही है और वह है पाकिस्तानी सेना। इस बात को हमारे सुरक्षा विशेषज्ञ जानते हैं, लेकिन खुल कर बोलने से कतराते हैं। इस बात को हमारे राजनेता भी अच्छी तरह जानते हैं, लेकिन फिर भी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री से अमन-शांति की वार्ता जारी रखते हैं, जैसे कि कभी न कभी नवाज शरीफ कुछ कर सकेंगे। यथार्थ से इतना घबराते हैं हम कि पठानकोट वाले हमले के बाद पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल राहिल शरीफ का नाम तक लेने को तैयार नहीं हुए भारत सरकार के आला मंत्री। यथार्थ यह भी है कि जब से पाकिस्तान बना है, तब से इस इस्लामी मुल्क की सेना ने भारत को अपना सबसे बड़ा दुश्मन माना है। परवेज मुशर्रफ जब पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे, तो उन्होंने कई बार स्पष्ट शब्दों में कहा कि भारत के होते हुए पाकिस्तान कभी सुरक्षित नहीं हो सकता। पाकिस्तानी सेना के आला अफसरों से जब भी मैं मिली हूं लाहौर या इस्लामाबाद में, तो उन्होंने भी इसी तरह की बातें खुल कर कही हैं।

बंटवारे के बिल्कुल बाद पाकिस्तानी सेना के जनरलों को विश्वास था कि भारत फिर से टूट जाएगा कई छोटे मुल्कों में। जब ऐसा नहीं हुआ तो भारत को तोड़ने की कोशिश शुरू की गई। करगिल युद्ध के बाद जब साबित किया भारतीय सेना ने कि युद्धभूमि में उसको हराना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है, तो पाकिस्तानी सेना ने एक नए किस्म के अघोषित युद्ध का ईजाद किया, जिसमें सैनिक रहे हैं जैश और लश्कर जैसी संस्थाओं के आम सदस्य। यही वजह है कि मौलाना अजहर मसूद और हाफिज सईद जैसे लोग खुलेआम भारत को गालियां देते फिरते हैं कराची और लाहौर में बड़े-बड़े जलसे करके।

इन संस्थाओं को हराने में भारत सरकार न सिर्फ नाकाम, अनजान भी रही है। सो मौलाना अजहर मसूद पांच साल हमारी जेलों में बंद रहे, जब तक आइसी 814 के यात्रियों को वापस जिंदा लाने की एक शर्त इस घिनौने कट््टरपंथी की रिहाई न बनी पंद्रह वर्ष पहले। रिहा होने के फौरन बाद इस तथाकथित मौलाना ने भारतीय संसद पर हमला करवाया था। सवाल यह है कि अगर उस पार से आ सकते हैं जैश के सिपाही इतनी आसानी से, तो इतना मुश्किल क्यों है हमारे लिए पाकिस्तान जाकर अजहर मसूद जैसे लोगों का वह हश्र करना, जो अमेरिकी सिपाहियों ने उसामा बिन लादेन का किया था? क्या हमारी खुफिया संस्थाएं इतनी कमजोर हैं कि ऐसा करने की काबिलियत नहीं है उनमें? क्या उनको ताकतवर बनाया नहीं जा सकता?

जब तक हम पठानकोट जैसे हमलों को अघोषित युद्ध का हिस्सा नहीं मानेंगे, तब तक तैयार नहीं कर पाएंगे ऐसी रणनीति, जिसके जरिए इस अघोषित युद्ध का सही मुकाबला किया जा सके। सो, आगे बढ़ने से पहले बहुत जरूरी हो गया है कि भारत सरकार के सुरक्षा विशेषज्ञ स्वीकार करें कि पाकिस्तान और भारत के बीच युद्ध की स्थिति है। इसको स्वीकार करने के बाद ही बातचीत का सिलसिला शुरू होना चाहिए, वरना बेमतलब रहेगी बातचीत। जब इस बात को मान कर आगे बढ़ेंगे कि नवाज शरीफ के हाथ में नहीं है अमन-शांति लाने की कूव्वत तब जाकर ऐसे लोगों से मतलब की बात हो पाएगी, जो वास्तव में इस अघोषित युद्ध को रोकने का काम कर सकते हैं। समस्या यह है कि चूंकि पाकिस्तानी सेना भारत को सबसे बड़ा दुश्मन मानती है, वह क्यों अमन-शांति की बातें करने के लिए राजी हो? तो पाकिस्तानी सेना पर किस तरह का दबाव डाला जा सकता है? क्या अमेरिकी राष्ट्रपति इसमें भारत की मदद कर सकते हैं?

याद रहे कि करगिल युद्ध को रोकने में बिल क्लिंटन ने मदद की थी और न करते तो मुमकिन है कि युद्ध लंबा चलता। पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था अमेरिकी सहायता पर निर्भर है, सो अमेरिका दबाव डाल सकता है जब डालना चाहता है। क्या समय आ गया है कि भारत के प्रधानमंत्री अपने दोस्त बराक ओबामा से बातचीत करें पाकिस्तान के बारे में? ऐसा अगर करते भी हैं प्रधानमंत्री, तो असली रणनीति उनको ही बनानी पड़ेगी इस युद्ध में जीत हासिल करनी है अगर, वरना इस तरह के हमले होते रहेंगे और हर बार भारत हारता रहेगा। पठानकोट के बाद भारत सरकार के आला मंत्रियों ने जीत के दावे इस आधार पर किए कि इस बेस में मौजूद लड़ाकू विमानों और हेलीकॉप्टरों का कोई नुकसान नहीं कर पाए हमलावर। लेकिन सवाल है कि सीमा पार करके आए कैसे थे ये लोग और हम अपनी सीमाओं को क्यों नहीं इतना सुरक्षित कर सकते हैं जैसे युद्ध के समय होती हैं? क्या ढील इसलिए है कि हम अब भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि ऐसे हमले युद्ध का हिस्सा हैं, आतंकवाद नहीं?