राजेंद्र बज

परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। देखते ही देखते आदमी की प्रकृति में भी आमूलचूल बदलाव आता जा रहा है। कल के गलत को सही और सही को गलत करार दिया जा रहा है। परंपराएं धूल-धूसरित होती जा रही हैं। बदलते दौर में जलवायु ही नहीं बदली है, बल्कि खाद्य पदार्थों का स्वाद भी बदल गया। आदमी के आचार-विचार और व्यवहार में सहजता का स्थान बनावट ने ले लिया।

पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करते हुए बिना देश-काल और परिस्थिति का संज्ञान लिए हम प्रगति का दंभ भर रहे हैं। रिश्तों की आत्मीयता कहीं खो गई लगती है। नजदीकी रिश्ते भी ‘लाभ-हानि’ की तराजू पर तोले जा रहे हैं। महंगाई, भ्रष्टाचार और राजनीति में भाई-भतीजावाद के चलते सामाजिक परिवेश में आम आदमी के मन में हाहाकार मचा दिखाई देता है। जनजीवन में तर्क का स्थान कुतर्क ने ले लिया है।

एक प्रकार से निराशा के गहन अंधकार में डूबा आदमी भविष्य की कल्पनाओं में खोकर मादक पदार्थों पर अपनी निर्भरता बढ़ा रहा है। विसंगतियों के जाल का जंजाल आम आदमी को या तो हीन भावना से ग्रस्त कर रहा है या बेलगाम होने की ओर प्रवृत्त कर रहा है। धनबल और बाहुबल का वर्चस्व राजनीति की शुचिता और पवित्रता को तार-तार कर रहा है। जातिवाद और क्षेत्रवाद का दंश देश के सर्वांगीण विकास को अवरुद्ध कर रहा है।

विचार का दायरा इस कदर सिकुड़ रहा है कि आदर्शवादी विचारधारा का वर्तमान परिवेश में मखौल उड़ाया जाता है और कई बार आदर्शों का हवाला देकर नई चारदिवारियां खड़ी की जा रही हैं। नई पीढ़ी हमारी अपनी भारतीय संस्कृति की गरिमा से एक तरह से सर्वथा अनभिज्ञ ही है। गंभीर से गंभीर विषयों को सतही तौर पर लिया जाकर शुतुरमुर्ग की तरह आचरण और व्यवहार संपूर्ण परिवेश में अराजकता का कारण बन रहा है।

छोटे-से छोटे काम के लिए ‘जरिया’ ढूंढ़ा जाना एक प्रकार से आदमी को आत्मनिर्भर बनाने में बाधक सिद्ध हो रहा है। लोकलुभावन नारों और वादों के आधार पर सफलता प्राप्त करने का क्रम बदस्तूर जारी है। सरकारों की ओर से जिस तरह मुफ्त की योजनाओं की घोषणाएं की जा रही हैं, सुविधाएं दी जा रही हैं, उससे आम आदमी को दूरगामी स्तर पर क्या लाभ पहुंचने वाला है?

ऐसी स्थिति में नागरिक आत्मनिर्भर कैसे बने? किसी आपदा या दुर्घटना के मौके पर सामाजिक सहयोग और संवेदनशीलता की बुनियाद को मजबूत करने के बजाय शासकीय सहायता पर निर्भरता की भावना एक समाज के रूप में हमें कमजोर बनाती है। हालांकि शासन की ओर से सहायता नागरिकों का अधिकार है। व्यापार भी विपत्ति की अवस्था में अवसर को भुनाता है।

इन तमाम विसंगत हालात के चलते आम नागरिकों का मनोबल कई बार टूटता देखा जा रहा है। अगर यही स्थितियां जारी रहीं तो आने वाले दौर में राजनीति, समाज और व्यापार व्यवसाय के तौर तरीके ही बदल जाएंगे।हमारा नीतिशास्त्र कहता है कि सकारात्मक सोच के साथ सकारात्मक परिणाम की प्राप्ति होती है।

लेकिन जब इधर-उधर विकृतियां दिखाई दे, तो ऐसे में आखिर हम किस बुनियाद पर स्वर्णिम भविष्य की संभावनाओं का आकलन कर सकते हैं? ऐसा नहीं है कि हालात बदले नहीं जा सकते। ऐसा भी नहीं है कि हम जंजाल में इतने अधिक फंस चुके हैं कि उससे उबर ही नहीं पाए। दरअसल, हमें नकारात्मक को सकारात्मक स्वरूप देने के निमित्त अदम्य इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा। लेकिन अहम प्रश्न यह है कि इसकी शुरुआत कहां से की जानी चाहिए?

ऊपर बैठे लोग कहते हैं कि नीचे से बदलाव आए और नीचे वाले कहते हैं कि ऊपर से बदलाव आए। वास्तव में यही समस्या है, जिसके चलते समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। इस स्थिति को बदला जाना चाहिए। ऐसा नहीं है कि इस संसार में ऐसा कोई सवाल हो, जिसका समाधान नहीं किया जा सके।

वास्तव में उपर्युक्त तमाम विसंगतियों को सुसंगत बनाने के लिए मध्य वर्ग को आगे आना होगा, क्योंकि यही वर्ग ज्यादातर विसंगतियों का सामना करता रहता है और उसका वाहक भी बना रहता है। निचले स्तर पर बदलाव लाने में अधिक समय लग सकता है। उच्च स्तर पर बदलाव लाने के लिए हमारे प्रयासों को सार्थक स्वरूप मिल पाना दुष्कर प्रतीत होता है।

ऐसे में विभिन्न समस्याओं के समाधान का एक रास्ता यह हो सकता है कि मध्य वर्ग अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति अपनी जागृति का परिचय दे। यों भी लोकतंत्र में बहुमत का राज होता है और मध्य वर्ग इस देश की दशा और दिशा को अपने आचरण और व्यवहार से सुधार की ओर ले जा सकता है।

आप और हम, सब मिलकर जमाने में व्याप्त तमाम विसंगतियों का प्रबल प्रतिकार करते हुए उच्च स्तरीय आदर्श को आत्मसात कर ऊपर वालों को और नीचे वालों को सही राह पर ला सकते हैं। हालांकि यह सब एकदम आसान भी नहीं, लेकिन कहीं न कहीं, किसी न किसी स्तर पर कुछ न कुछ प्रयास तो किया जाना चाहिए।