कहां तो हर चैनल पर हर रोज ‘अबकी बार चार सौ पार’ का भजन चलता था और कहां ये हाय हाय! कहां सरकार द्वारा एक दिन तीन-तीन को भारत रत्न और कहां एक रत्न के नाम से किसानों द्वारा अबकी बार चार सौ पार की कहानी पर ‘ब्रेक’ लगाने के लिए दिल्ली कूच!
अचानक दिल्ली सीमा बंद! सड़कों पर कंटीले तार, कंक्रीट-सीमेंट के बड़े-बड़े अवरोधक! पुलिस का भारी बंदोबस्त! शंभू सीमा, गाजीपुर सीमा, चिल्ला सीमा बंद! ये बंद, वो बंद और दिल्ली जाम!
शंभू सीमा पर एक सड़क की बाड़ तोड़ते हुए किसान और पुलिस द्वारा आंसू गैस के गोले चलाना, एक रिपोर्टर का धुएं की वजह से अपनी आंखें मलते हुए रिपोर्ट करना, किसानों का इधर-उधर दौड़ना और फिर मोर्चे पर जुट जाना… ऐसे सारे दृश्य पूरे दिन दिखाए जाते रहे।
चैनलों की लाइनें धमकी देती दिखतीं: वे दिल्ली को घेरने वाले हैं। सरकार से मांगें मनवानी हैं! मांगों की फेहरिस्त हर दिन बढ़ती हुइर् : ‘एमएसपी कानून’ चाहिए। पेंशन चाहिए। पिछले आंदोलनकारियों पर चलते मुकदमे वापस होने चाहिए… ये चाहिए, वो चाहिए, सारी दुनिया फिर चाहिए..!
कई एंकर-रिपोर्टर किसानों के पक्ष को जम के बता रहे हैं कि वे अन्नदाता हैं, उनकी सुनी नहीं जा रही है। स्वामीनाथन को भारत रत्न दिया, तो उनकी एमएसपी की सिफारिशें भी मानो..! इसे कहते हैं, ‘होम करते हाथ जला’! फिर एक दिन प्रधानमंत्री अबू धाबी में भव्य स्वामीनाराण मंदिर का उद्घाटन करते हुए और फिर ‘एनआरआइयों’ को संबोधित करते हुए और ‘यूएई तथा भारत’ की मित्रता को परवान चढ़ाते हुए और जवाब में एनआरआइयों का ‘अहलान मोदी’ ‘अहलान मोदी’ और मोदी मोदी मोदी मोदी के नारे लगाना… लेकिन, ‘स्वामीनारायण मंदिर’ की खबर पर स्वामीनाथन की ‘एमएसपी’ की सिफारिश भारी पड़ती दिखी।
एक चर्चा में पिछले ‘किसान आंदोलन’ की भी पोल खुलती दिखी : एक चर्चा में एक एंकर और एक विशेषज्ञ ने साफ किया कि पिछले किसान आंदोलन को लेकर एक किसान नेता का कहना रहा कि हमने तो सरकार के खिलाफ ‘पिच’ जमा दी थी, कोई उसका फायदा न उठा पाए तो हम क्या करें..!
एक-एक कर पुराने डरावने ‘किसान दृश्य’ दोहराए जा रहे हैं। एक किसान नेता कहता है कि हम तो शांतिपूर्ण तरीके से दिल्ली जाना चाहते हैं, ये रोक रहे हैं। क्या देश में आने-जाने की मनाही है… अगर ये ऐसा करेंगे, तो हम भी दिल्ली पहुंच कर रहेंगे। हमें कोई नहीं रोक सकता।
कृषिमंत्री कहते हैं कि सरकार बातचीत को तैयार है, बातचीत हो रही है, बातचीत से ही हल निकल सकता है..! फिर खबर दी जाती है कि बारह मुद्दों पर सहमति हो गई है, एमएसपी का मुद्दा अटका है। सरकार एमएसपी देती भी है, पिछली सरकारों से ज्यादा दे रही है! एक मंत्री कहते हैं कि रोज-रोज मांगों को बढ़ाना उचित नहीं, ऐसे तो मामला कभी सुलटेगा ही नहीं!
किसान आंदोलन के नेताओं के तेवर आक्रामक हैं। एक चैनल पर टिकैत भी मैदान में कूदते नजर आते हैं। वे कह रहे हैं कि अगर मांगें नहीं मानीं, तो आंदोलन और बढ़ेगा… रिपोर्टर उनको जस का तस दिखा रहे हैं। कुछ एंकर-चर्चक किसानों का सीधे पक्ष ले रहे हैं। एक चैनल पर गंभीर-सी चर्चा है : एक अर्थशास्त्री कहते हैं कि ‘एमएसपी’ कानून बना, तो देश दिवालिया हो जाना है। ऐसा समाजवाद तो समाजवादी देशों में भी नहीं चला..! एक राजनीतिक विश्लेषक कहता है कि भइए! किसान तो बहाना है, 2024 असली निशाना है… बहुत दिन बाद विपक्षी प्रवक्ताओं के चेहरे कुछ खिले-खिले और भक्त प्रवक्ता गायब नजर आते हैं।
इसी शाम आता है सुप्रीम कोर्ट का चुनावी चंदे को ‘पारदर्शी’ करने वाला आदेश। विपक्ष फिर से चहकने लगता है। हर चैनल पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बहसें हैं। एक पक्षकार कहते हैं कि हम सिर्फ पारदर्शिता चाहते हैं, राजनीति से कोई संबंध नहीं… दूसरे वकील कहे कि अदालत ने नागरिक के जानने के अधिकार को कायम रखा है।
एक निंदक चहकता है कि सबसे अधिक चंदा भाजपा को मिला है… अब साफ होगा कि किसने कितना दिया और बदले में उसे क्या मिला? एक विश्लेषक जवाब देता है कि जब कांग्रेस केंद्र में थी तो उसे सबसे अधिक चंदा मिलता था। आज केंद्र की बड़ी पार्टी होने के कारण भाजपा को मिलता है, तो क्या गलत? अदालत का आदेश मान्य है… फैसला देखना है..! मगर एक ने न पूछा कि पूंजीवादी व्यवस्था को पूंजीपति ही चलाते हैं। पूंजीवाद में समाजवादी लड््डू नहीं मिलते… पूंजीवाद में कुछ भी ‘फ्री फंड’ नहीं होता..!