बिजली की किल्लत से पार पाने के लिए अपनाए जा रहे मौजूदा सौर पैनलों को पच्चीस से तीस वर्ष तक चलने के लिए डिजाइन किया गया है, मगर मौसम की खराबी, दुर्घटनाओं या दूसरी वजहों से ये अनुमानित समय से पहले भी खराब हो सकते हैं। खराब सौर पैनल काम करना बंद करते ही पर्यावरण प्रदूषण की वजह बन जाते हैं।
प्लास्टिक, वाहन, कारखानों और ई-कचरे के बाद पर्यावरण को प्रदूषित करने में सौर पैनलों की अहम भूमिका मानी जा रही है। गौरतलब है कि सौर पैनल में सिलिकान, कांच, एल्युमीनियम, सीसा, तांबा और कैडमियम का मिश्रण होता है, जो आसानी से पुनर्चक्रित नहीं होता। इसलिए अभी से इस पर गहन शोध और समझ बढ़ाने की जरूरत बताई जा रही है।
अंतरराष्ट्रीय नवीकरणीय ऊर्जा एजंसी के मुताबिक बड़ी मात्रा में सौर पैनलों के उत्पादन और संस्थापन के चलते 2030 तक इससे निकलने वाले अपशिष्टों की अच्छी-खासी वृद्धि होगी, जिसके असर से पर्यावरणीय समस्याएं पैदा होने का अनुमान है। इसलिए ऐसे पैनल बनाने की जरूरत है, जो लंबे समय तक चल सकें यानी अपशिष्ट बनने की प्रक्रिया अत्यंत धीमी हो।
शोध के अनुसार भारत का सौर कचरा 2030 तक छह सौ किलोटन हो जाने की उम्मीद है। यह मात्रा 2050 तक बत्तीस गुना बढ़ जाएगी, जिसकी वजह से तकरीबन उन्नीस हजार किलोटन संचयी कचरा निकलेगा। 2040 तक यह हिस्सेदारी बढ़कर 74 फीसद हो जाएगी, क्योंकि मौजूदा सोलर पैनल अपने जीवन के अंत तक पहुंच चुके हैं। इसी तरह 2050 तक पैदा होने वाले संचयी कचरे का 77 फीसद नई क्षमताओं की वजह से होगा।
नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय और स्वतंत्र शोध संस्थान ‘काउंसिल आन एनर्जी, एनवायरमेंट एंड वाटर’ (सीईईडब्ल्यू) द्वारा किए गए अध्ययन के मुताबिक यह ओलंपिक आकार के 720 स्वीमिंग पूल (तरणताल) भरने के बराबर है। शोध की रपट के मुताबिक कचरे का 67 फीसद पांच राज्यों राजस्थान, गुजरात, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु से पैदा होगा। 2030 तक पैदा होने वाले कचरे में राजस्थान का हिस्सा 24 फीसद, गुजरात का 16 फीसद और कर्नाटक का हिस्सा 12 फीसद होगा।
‘भारत के सौर उद्योग में एक चक्रीय अर्थव्यवस्था को सक्षम करना: सौर अपशिष्ट मात्रा का आकलन’ वाले अध्ययन में कहा गया है कि भारत में मौजूदा स्थापित 66.7 गीगावाट क्षमता से पहले ही 100 किलोटन कचरा पैदा हो रहा है, जो 2030 तक बढ़कर 340 किलो टन हो जाएगा। इसमें तकरीबन दस किलो टन सिलिकान, 12 से 18 किलो टन चांदी और 16 टन कैडमियम और टेलरियम होगा। इन तत्त्वों को दुबारा प्राप्त करने के लिए सौर कचरे का पुनर्चक्रण करने से आयात निर्भरता कम होगी और भारत की खनिज सुरक्षा बढ़ेगी।
शोध में पाया गया है कि शेष 260 किलो कचरा 2024 से 2030 के बीच स्थापित होने वाली नई क्षमताओं से पैदा होगा। अध्ययन के मुताबिक सौर कचरा 2050 तक बढ़कर 19,000 किलो टन हो जाएगा, जिसमें से 77 फीसद हिस्सा नई क्षमताओं से पैदा होगा। सीईईडब्लू ने कहा है कि भारत में सौर उद्योग के लिए चक्रीय अर्थव्यवस्था की अग्रणी और जुझारू सौर आपूर्ति शृंखला सुनिश्चित करने का एक अवसर है।
पच्चीस वर्षों में 7.8 करोड़ टन सौर फोटोवोल्टिक कचरा निकलने की संभावना वैज्ञानिक बता रहे हैं, जिसका 2050 तक पुन: उपयोग या पुनर्चक्रण किया जा सकता है, हालांकि, यह एक बड़ी चुनौती होगी, क्योंकि सौर पैनलों का समग्र पुनर्चक्रण वैश्विक स्तर पर अभी भी लागू नहीं किया जा सका है। इसकी वजह है दुनिया के बाजारों में उचित बुनियादी ढांचे और राष्ट्रीय नियमों का न बनाया जा सकना। जाहिर है, सौर अपशिष्ट आने वाले वक्त में पर्यावरण प्रदूषण बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाएगा।
बिजली की समस्या से पार पाने के लिए भारत सहित दुनिया भर में बहुत बड़ी मात्रा में सौर पैनल लगाए जा रहे हैं। इसलिए सौर पैनल अपशिष्ट को खपाने के लिए अभी से सोचना जरूरी है। दुनिया के तमाम देशों में सौर प्रणालियों का उचित प्रबंधन, पुनर्चक्रण और निपटान सरकारी नीतियों और कानूनों के जरिए निर्देशित होता है।
अमेरिका, यूरोपीय संघ, जापान और आस्ट्रेलिया में सौर पैनल पुनर्चक्रण के लिए निजी या अनिवार्य कार्यक्रम चलाए जाते हैं। भारत में भी इसके लिए बेहतर नीतियां और नियम बनाकर उन्हें लागू करने की जरूरत है। गौरतलब है कि भारत ने 2030 तक लगभग 292 गीगावाट सौर क्षमता हासिल करने की योजना बनाई है, जिसमें पर्यावरणीय, आर्थिक और सामाजिक कारणों से सौर पीवी कचरा प्रबंधन महत्त्वपूर्ण है।
इसके मद्देनजर पर्यावरण-अनुकूल अपशिष्ट प्रबंधन का विकास ईपीआर (विस्तारित उत्पादक जिम्मेदारी) कार्यक्रमों का विस्तार किया जा रहा है, जो उत्पादकों को उनके जीवन के अंत के उत्पादों के प्रबंधन के लिए जिम्मेदार मानते हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक सौर कचरे के पर्यावरणीय असर को कम करने के लिए एक और बेहतर समाधान बंद-लूप प्रणाली विकसित करना जरूरी है।
एक निरापद सौर प्रणाली विकसित कर इससे बढ़ने वाली समस्याओं को कम किया जा सकता है। सौर पैनल लगाने वाले व्यक्ति के लिए यह जानना भी जरूरी है कि उसके सौर पैनल की उम्र और उसमें इस्तेमाल होने वाले तत्त्व किस स्तर के हैं। खराब होने पर उनका निपटान किस तरह और कहां करना चाहिए।
यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि सौर कचरा निपटान का बेहतर समाधान क्या है। इसमें बेहतर रखरखाव पर ध्यान देने की जरूरत है। इससे सौर पैनलों की उम्र बढ़ती है। इसी के साथ सौर प्रणाली कचरा प्रबंधन के लिए आसानी से पुनर्चक्रित सौर पैनलों पर लगातार अनुसंधान और विकास होना चाहिए। सौर पैनल के आधुनिक और टिकाऊ माडल ही बाजार में बेचने की मंजूरी दी जानी चाहिए।
सौर पैनलों के दो बेहतर तरीकों को अपनाया जा सकता है। इसमें पारंपरिक थोक सामग्री पुनर्चक्रण है, जिसमें कचरे को कुचलना, छानना और कतरना शामिल है। लेकिन अगर पैनल कांच, तांबा, एल्यूमीनियम, चांदी और सिलिकान के मिश्रण से बना है, तो इस तरीके से इसे पुनर्चक्रित नहीं किया जा सकता। दूसरा तरीका उच्च-मूल्य पुनर्चक्रण का है। इसमें थर्मल, रासायनिक और यांत्रिक तरीका अपनाया जाता है। यह तरीका हर तरह से बेहतर है। इसमें रासायनिक विधि से चांदी और सिलिकान को भी पुनर्चक्रित किया जा सकता है।
सौर पैनल भारत में सरकारी और गैर-सरकारी उपक्रमों को चलाने में बिजली के एक बेहतर विकल्प के रूप में अपनाए गए हैं। इनसे बिजली पर होने वाले खर्च में कमी आ रही है। आम और खास दोनों को घरेलू स्तर पर सहूलियत मिल रही है, लेकिन जब तक पैनल अपशिष्ट का आसानी से, पर्यावरण पर असर डाले बगैर, निपटान सुनिश्चित नहीं होता, तब तक इसे निरापद मानकर इस्तेमाल करना अच्छा नहीं कहा जा सकता है। इसलिए सौर पैनलों की सबसे बढ़िया डिजाइन का इस्तेमाल के लिए सरकार को जन जागरूकता अभियान चलाना चाहिए। सरकारी योजनाओं के तहत भी जो सौर पैनल घरों पर लगाए जाएं, वे भी पर्यावरण के नजरिए से बेहतर होने चाहिए।