अजय प्रताप तिवारी

किसी भी देश में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रगति इस बात पर निर्भर करती है कि वहां शिक्षा व्यवस्था कितनी चुस्त-दुरुस्त है और किस स्तर तक गुणवत्ता सुनिश्चित कर पाती है। शिक्षा हमारे जीवन और वातावरण में एक नई ऊर्जा प्रदान करती है। विद्वानों का मानना है कि अर्थतंत्र को मजबूती प्रदान करने में शिक्षा की महती भूमिका है।

शिक्षा का अपना एक अर्थशास्त्र होता है। अर्थशास्त्र मानवीय शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। यह स्कूली बच्चों के लिए आर्थिक ज्ञान का पाठ्यक्रम, लोकतांत्रिक मूल्यों के व्यवहार को समझने और मानवीय मानदंडों के गठन के साथ उद्यमशीलता के नैतिक मानकों का एक स्रोत है। शिक्षा एक आपसी समझदारी पर आधारित कोष की तरह है। इसमें जितना निवेश किया जाए, उसका दोगुना मिलता है।

शिक्षा के आर्थिक संबंधों के बिना शिक्षण संस्थाओं के बाजारीकरण की प्रक्रिया को समझ पाना मुश्किल है। इसी तर्ज पर देखें तो आधुनिक विकास के मूल सिद्धांतों को जाने बिना आधुनिक विद्यार्थी के समग्र विकास की कल्पना करना असंभव है। प्रत्येक मनुष्य अपने दैनिक जीवन में अर्थशास्त्र का ज्ञान थोड़ा बहुत अवश्य रखता है।

बाजार में महंगाई पर विचार करते हुए खुदरा दुकानों पर सामानों की कीमत का आकलन सभी लोग करना जानते हैं। यह स्पष्ट है कि लोगों में थोड़ा-बहुत अर्थशास्त्र का ज्ञान है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सभी लोग शिक्षित हैं। केवल साक्षर होने को शिक्षित होना मान लिया जाना शायद अधूरा ज्ञान है। इसके बहुस्तरीय आयाम हैं।

लेकिन अगर केवल शिक्षा और अर्थशास्त्र के संबंध को देखें तो शिक्षा से किसी के लिए भी आर्थिक अवसर और रोजगार की संभावनाएं बढ़ती हैं। शिक्षा और आर्थिक लाभ में निवेश के प्रभावी उपयोग की भूमिका में आर्थिक, और सामाजिक विकास में शिक्षा का अध्ययन सर्वप्रथम है।

शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य ही है सामाजिक परिवर्तन लाकर समाज को आधुनिकता और गतिशीलता का संस्पर्श लोगों को प्रदान करना। वहीं सामाजिक परिवर्तनों को स्वीकार करने के लिए शिक्षा हमें मानसिक रूप से तैयार भी करती है। आज वैश्वीकरण के दौर में बौद्धिक होड़ मची हुई है।

ऐसे में शिक्षा की भूमिका दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उस देश के कामगार कितने शिक्षित हैं। शिक्षित कामगार दुनिया के सामान के उत्पादन, सेवा के निष्पादन से जुडी हुई गुणवत्ता की जरूरत को पूरा करते हैं और साथ ही अपना शोषण होने देने से खुद को बचाते हैं।

हालांकि यह कहना गलत होगा कि अशिक्षित कामगारों की अर्थतंत्र में कोई भागीदारी नहीं है। अर्थशास्त्र के सिद्धांत प्रतियोगी नीति और विनियम बल के साथ सामरिक वार्ता पर बल देते हैं। वे विकास के मुद्दों, जैसे कि कृषि, शिक्षा, श्रम, पर्यावरणीय अर्थशास्त्र, बौद्धिक संपत्ति अधिकार (आइपीआर) और लैंगिकता पर भी काम करते हैं। विकसित देशों की बात करें तो जोर देकर इस बात को रेखांकित किया जाता है कि सरकारी अभिक्रम से शिक्षा तक पहुंच का प्रयास हो, आर्थिक और सामाजिक विकास को टिकाऊ और मजबूत बनाया जाए।

आज दुनिया भर में शिक्षा के बाजारीकरण के दौर में खासतौर पर तीसरी दुनिया के देशों में गरीब परिवारों को शिक्षा से वंचित होना पड़ेगा। बल्कि इसी वजह से उन्हें अर्थतंत्र में अपनी भागीदारी से भी बाहर रहना पड़ सकता है। इन वजहों से उनके जीवन में अर्थतंत्र के शोषण के साथ सामाजिक न्याय और राजनीतिक के दायरे से भी वंचित होना पड़ेगा।

सरकारे चाहे तो कम खर्चे में संगठित स्तर पर व्यवस्था करके पूरी जनता के लिए सबसे जरूरी शिक्षा हासिल करना आसान बना सकती है। निजी शिक्षा प्रणाली को इस स्तर पर प्रोत्साहित किया जा सकता है कि उस पर सभी को शिक्षा मुहैया कराने के लिए दबाव बन सके। आज सरकारें जोर देकर कहती हैं कि आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था बनाई जाए। यह क्यों भूल जाया जाता है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था आत्मनिर्भर बनाने में किस स्तर तक सक्षम है?

पिछली सदी के नब्बे के दशक में वैश्वीकरण और बाजार अर्थव्यवस्था के दौर में आत्मनिर्भरता की अर्थनीति का स्थान परस्पर निर्भरता की अर्थनीति ने लिया। आज आत्मनिर्भरता भारतीय अर्थनीति का केंद्र बिंदु बना हुआ है। क्या आत्मनिर्भता सबके लिए शिक्षा और उसमें गुणवत्ता सुनिश्चित किए बिना संभव है? आर्थिक विषमता को दूर किए बिना कैसे आत्मनिर्भर बना जा सकता है? शैक्षिक प्रगति से जहां नवीन विचार जन्म लेते हैं, वहीं शिक्षा से सामाजिक गतिशीलता आती है।

शिक्षा सामाजिक परिवर्तनों की धुरी है और यह समाज को जड़ता से उबार कर उसे जीवंत बनाती है। आज जरूरत है कि शिक्षा पर अधिक से अधिक निवेश किया जाए, साथ ही गांव के दूरदराज इलाकों में निवास करने वालों को बेहतर गुणवत्ता के साथ शिक्षित किया जाए। सकल घरेलू उत्पाद में शिक्षा की भागीदारी ज्यादा से ज्यादा सुनिश्चित की जाए। अर्थतंत्र की मजबूती का आधार स्तंभ शिक्षा है। ज्ञान के आर्थिक विकास के बिना देश का विकास संभव नहीं है।