रंजीता सिंह

रोजी-रोजगार की जटिल चुनौतियों के बीच कामकाजी महिलाओं को माहवारी के दौरान दोहरी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। दुनिया में ब्रिटेन और आयरलैंड ही शायद ऐसे चुनिंदा देश हैं, जहां ऐसी मनोदशा के दौरान महिलाओं के प्रति सहानुभूति रखी जाती है। इसके अंतर्गत महिलाओं को अवकाश के दिनों का भी वेतन मिलता है।

हाल के दिनों में ऐसे कई शोध सामने आए हैं, जिनमें माहवारी के दौरान माइग्रेन पीड़ित कई महिलाओं में हृदय रोग और आघात के लक्षण पाए गए। ऐसी महिलाओं को माइग्रेन होता है, उनमें बाद में लगातार रजोनिवृत्ति का खतरा अधिक होता है। शोधकर्ता हिदायत देते हैं कि ऐसी हालत में महिलाओं को अधिक से अधिक नींद लेनी चाहिए। स्वस्थ भोजन करना चाहिए। ऐसा न करने पर उनका हृदय संबंधी जोखिम बढ़ जाता है।

अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि उम्र बढ़ने के साथ सभी महिलाओं को एक जैसे अनुभव नहीं होते हैं। कई महिलाएं उन जोखिमों को नियंत्रित कर सकती हैं, जो बाद में हृदय रोग और आघात की संभावना बढ़ा सकते हैं। माइग्रेन और रजोनिवृत्ति के लक्षणों वाली महिलाएं हृदय संबंधी जोखिम के बारे में जो चिंता और भय महसूस करती हैं, वह वास्तविक परिस्थितिजन्य है, मगर इन निष्कर्षों से पता चलता है कि रोकथाम पर ध्यान केंद्रित करने और अस्वास्थ्यकर आदतों और जोखिम कारकों को ठीक करने से ज्यादातर महिलाओं को मदद मिल सकती है।

अध्ययन में शामिल मध्यम आयु वर्ग की तीस फीसद से अधिक महिलाओं का कहना था कि उन्हें लगातार रात में पसीना आता है। उनमें से, 23 फीसद ने माइग्रेन होने की भी सूचना दी थी। यह एकमात्र समूह था, जिसमें आघात, दिल के दौरे या अन्य हृदय संबंधी लक्षण परिलक्षित हुए। अध्ययन में शामिल पचास वर्ष की उम्र वाली 43 फीसद महिलाओं में ऐसे लक्षणों का न्यूनतम स्तर रहा और 50 और 60 की उम्र वाली 27 फीसद महिलाओं में समय के साथ वीएमएस में वृद्धि का अनुभव किया गया। बाद के दो समूहों में कोई अतिरिक्त हृदय संबंधी जोखिम नहीं था, चाहे उन्हें माइग्रेन था या नहीं।

खासकर भारत में बंद सामाजिक स्थितियों में झिझक के कारण महिलाओं का दुख-दर्द और भी ज्यादा पीड़ादायी हो जाता है। पहले तो वे इस बारे में जुबान खोलने तक से परहेज करती रही हैं, लेकिन जैसे-जैसे वर्जनाओं की कुंठा कम हो रही है, अब धीरे-धीरे ऐसे मिजाज में परिवर्तन दिखने लगा है। कितना विचित्र है कि ऐसी विपरीत परिस्थितियां महिलाओं को अपनी नौकरी छोड़ने तक के लिए विवश कर देती हैं, जिसका सीधे तौर पर श्रमशक्ति पर भारी दबाव देखा जा रहा है।

एक सर्वेक्षण के मुताबिक, 82 फीसद कामकाजी महिलाओं की काम की स्थितियों पर माहवारी का असहनीय असर पड़ता है। लगभग 26 फीसद महिलाएं माहवारी के दौरान छुट्टी ले लेती हैं और 18 फीसद इस दौरान तकलीफ सहकर भी काम करने को मजबूर होती हैं। इस स्थायी किस्म के मर्ज के शुरुआती दिन किसी भी युवती या महिला के लिए सहज नहीं होते। दिल-दिमाग तरह-तरह की उलझनों से जूझता है। वे अकेलापन महसूस करती हैं। कुछ महिलाओं को महीने में कई बार माहवारी हो जाती है और उन्हें काम पर जाने से बचना पड़ता है।

इस दौरान काम पर जाना और काम करना कठिन होता है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक, लगभग 23 फीसद महिलाएं इसी मानसिकता से गुजरती हुई नौकरी छोड़ने को लेकर गंभीर हो जाती हैं, उनमें से अनेक महिलाएं नौकरी छोड़ देती हैं। हर दस में से नौ महिलाएं कार्यस्थल पर संवेदनशीलता की उम्मीद करती हैं, जो प्राय: संभव नहीं रहता। बेचैनी और भावुकता में प्राय: ऐसी ही महिलाएं, आर्थिक नुकसान उठाते हुए नौकरी छोड़ देती हैं।

एक वैश्विक शोध के मुताबिक, माहवारी के लक्षणों के कारण महिलाओं के काम के घंटे कम हो जाने से सालाना 1.8 अरब डालर तक का नुकसान होता है। अगर वे नौकरी छोड़ने की हालत में नहीं होती हैं, तो उन्हें छुट्टियां लेनी पड़ती हैं। ये स्थितियां बिगड़ते स्वास्थ्य की भी निशानी होती हैं। वे अपने काम के घंटे कम कर देती हैं या फिर तरक्की के मौके उनके हाथ से निकल जाते हैं।

ऐसे हालात से गुजर रही जिन महिलाओं को हर रोज दफ्तर जाना पड़ता है, उन्हें कितनी तरह की परेशानियों से गुजरना पड़ता है, वही जानती हैं। अपनी हालत न बता सकने की वजह से वे दिमागी तौर पर झुंझलाहट और बेचैनी से भरी रहती हैं। उनकी ऐसी स्थिति को न घर वाले समझना चाहते हैं, न कार्यस्थल के सहकर्मी आदि।

एक सर्वेक्षण के मुताबिक, भारत में 29 से 34 वर्ष उम्र की चार फीसद महिलाएं वक्त से पहले माहवारी का सामना करती हैं। 35 से 39 वर्ष की करीब आठ फीसद महिलाएं समय से पहले माहवारी की यातना का सामना करती हैं। जो महिलाएं वक्त से पहले ऐसी स्थितियों से गुजरती हैं, उनकी चुनौतियां कहीं अधिक पीड़ादायी होती हैं।

कई तो कोई कामकाज करने लायक नहीं रह जाती हैं। कार्यस्थल पर संस्थान भी उनकी इस परेशानी के प्रति संवेदनशील नहीं होते हैं। ऐसी हालत में उन्हें अवकाश देने की कोई व्यावहारिक व्यवस्था नहीं होती है। आमतौर पर कामकाजी महिलाएं अपने परिजनों, बच्चों आदि के स्वास्थ्य पर ज्यादा ध्यान देने के कारण अपनी सेहत पर अपेक्षित गौर नहीं कर पाती हैं, जबकि ऐसी पीड़ा के दिनों में उन्हें सबसे अधिक अपने स्वास्थ्य को संभालना जरूरी हो जाता है।