राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत लोकसभा चुनाव के ऐन पहले अत्यधिक सक्रिय नजर आ रहे हैं। इन दिनों वे पंजाब के तीन दिन के दौरे पर हैं। ध्यान रहे, भारतीय जनता पार्टी का पंजाब में अपना कोई खास जनाधार नहीं। पार्टी को यहां जो भी हासिल हुआ है वो या तो संघ के थोड़े-बहुत कैडर की वजह से या फिर सहयोगी अकाली दल (बादल) की बैसाखियों की बदौलत।

किसान आंदोलन के मुद्दे पर भाजपा और अकाली दल का नाता टूट चुका है। अब पार्टी के पास जो कुछ भी है वो बस संघाधार ही है। लोकसभा चुनाव अब बस कल ही की बात जैसी है तो पंजाब में माहौल भाजपा के अनुकूल बनाने की कोशिश करना वक्ती जरूरत है। आम आदमी पार्टी की छवि अब शुरुआती क्रांतिकारी पार्टी वाली रह नहीं गई है। कांग्रेस अपनी गलतियों से अपनी जमीन खो चुकी है तो उसकी भी उम्मीद वहां से है कि वापसी कर जाए।

यही वजह है कि भागवत इन दिनों पंजाब की ओर कूच कर चुके हैं। पंजाब की राजनीति में धार्मिक डेरों का महत्त्व बहुत ज्यादा है। इस बार भागवत पंजाब समेत देश भर में बड़ी मौजूदगी वाले डेरा राधा स्वामी पहुंचे जहां उनकी मुलाकात डेरा प्रमुख गुरिंदर सिंह ढिल्लों से हुई। इससे पहले भी भाजपा नेता डेरों का चक्कर लगाते रहे हैं। राजनीतिक पर्यवेक्षक इस मुलाकात के मायने बखूबी समझ रहे हैं। यानी भाजपा पंजाब का मैदान यूं ही नहीं छोड़ देगी।

मामला विधानसभा में मलिक का

महाराष्‍ट्र विधानसभा के सत्र में राकांपा के विधायक नवाब मलिक सदन के भीतर सत्तारूढ़ एनसीपी (अजित) के विधायकों के साथ बैठे तो तहलका मच गया। उन्हें 2022 में धनशोधन कानून के तहत गिरफ्तार किया गया था। भाजपा ने उन्हें आतंकवादी और देशद्रोही तक बताया था। दाऊद इब्राहीम से उनके रिश्ते बताए थे। मलिक फिलहाल खराब स्वास्थ्य के आधार पर अदालत से अंतरिम जमानत पर हैं।

सदन में वे अजित पवार के बुलावे पर पहुंचे थे। जाहिर है कि अजित पवार की इच्छा उन्हें शरद पवार से अलग कर अपने साथ जोड़ने की होगी। फडणवीस ने इसके विरोध में अजित पवार को चिट्ठी लिख दी। यह अजित पवार खेमे को तो नागवार गुजरा ही, शिवसेना (उद्धव), एनसीपी (शरद पवार) और कांग्रेस को भी सत्तारूढ़ गठबंधन की अनबन पर प्रहार का मौका मिल गया और भ्रष्टाचार पर दोहरे मापदंड को लेकर सवाल उठे।

दूर की नजर के लिए देरी ही सही

चुनाव नतीजों के पांच दिन बाद भी छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में भाजपा अपने मुख्यमंत्रियों का फैसला नहीं कर पाई है, जबकि मिजोरम और तेलंगाना में नए चुने गए मुख्यमंत्रियों ने शपथ भी ले ली है। लेकिन देरी का यह निहितार्थ निकालना सही नहीं होगा कि पूर्व मुख्यमंत्रियों की बगावत की किसी आशंका से भाजपा आलाकमान डरा हुआ है।

हकीकत तो यही है कि भाजपा आलाकमान को मुख्यमंत्रियों के चयन से ज्यादा दिलचस्पी अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव पर इस चयन से पड़ने वाले प्रभाव में है। विपक्ष के जातीय जनगणना के मुद्दे से निपटने के लिए भाजपा आलाकमान तीन नए मुख्यमंत्रियों के चयन में सामाजिक संतुलन और लोकसभा चुनाव जिताने की क्षमता को लेकर नापतौल में जुटा है।

अपने मुंह पर काला टीका

मध्यप्रदेश के चंबल इलाके के वरिष्ठ दलित नेता फूल सिंह बरैया ने विधानसभा चुनाव से कई महीने पहले दावा किया था कि विधानसभा चुनाव में भाजपा को पचास सीटें भी मुश्किल से मिलेंगी। अगर मिल गई तो वे सार्वजनिक रूप से अपना मुंह काला कर लेंगे। पर भाजपा तो 230 में से 163 सीटें जीत गई।

दूसरा कोई वादे की याद दिलाता, इससे पहले खुद बरैया ने ही एलान कर दिया कि वे गुरुवार सात दिसंबर को भोपाल के राजभवन के सामने अपना मुंह काला करेंगे। हालांकि उनकी पार्टी के कई नेताओं ने उन्हें ऐसा नहीं करने की सलाह दी। एक-दो ने तो उनकी जगह अपना मुंह काला कर लिया। पर बरैया नहीं माने तो दिग्विजय सिंह ने बचाव का रास्ता निकाल दिया।

घोषित समय पर बरैया का मुंह काला करने के बजाए उनके माथे पर काला टीका लगा दिया। काला टीका किसी को बुरी नजर से बचाने के लिए लगाने का रिवाज है समाज में। हालांकि बरैया खुद भांडेर सीट से कांगे्रस के टिकट पर चुनाव जीते हैं। तो भी दिग्विजय ने उनकी जगह हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ते हुए उसका मुंह काला करने का प्रयास किया। फरमाया कि डाकमत पत्रों की गणना के हिसाब से तो कांगे्रस 119 सीटों पर आगे थी। बरैया कांग्रेस से पहले बसपा में भी रहे हैं। मायावती से मतभेद के बाद बसपा छोड़कर अपनी अलग पार्टी बनाई थी। कुल मिलाकर 15 बार चुनाव लड़ चुके हैं। हालांकि जीत पाए हैं तो बस दो ही बार।

राकेश सिन्हा की सक्रियता

राकेश सिन्हा राज्यसभा सांसद हैं। वो भी मनोनीत। लेकिन जिस तरह से वो अपने गृह लोकसभा क्षेत्र बेगूसराय में सक्रिय रहते हैं, इससे लोगों को यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि वे किस सदन का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। क्योंकि इतनी सक्रियता तो राज्यसभा के चुने हुए सांसद भी नहीं दिखाते हैं। उनके लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व यूं केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह के पास है।

पिछली बार सिंह को उनकी मर्जी के खिलाफ यहां से टिकट दिया गया था। यहां उनका मुकाबला तब वामदलों के प्रत्याशी व जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के युवा छात्र नेता कन्हैया कुमार से था। कन्हैया कुमार की उम्मीदवारी को विपक्ष की तरफ से बहुत उम्मीदों से देखा गया था। सोशल मीडिया पर उनके भाषण इतने ‘वायरल’ होते थे कि एकबारगी आभास हुआ था कि उनके आगे गिरिराज सिंह पस्त हो जाएंगे। पर जमीनी हकीकत कुछ और निकली। गिरिराज सिंह ने कन्हैया कुमार को शिकस्त देकर अपना चेहरा और मजबूत किया था। इन सब समीकरणों के मद्देनजर सिन्हा की सक्रियता देख कर उनके दोस्त/दुश्मन एक स्वर से पूछ रहे हैं- आखिर इरादा क्या है?

संकलन : मृणाल वल्लरी