अमेठी में 2019 में राहुल गांधी को हराने वाली स्मृति ईरानी को इस बार कांगे्रस के उम्मीदवार किशोरी लाल शर्मा ने कड़ी चुनौती देकर लड़ाई को रोचक बना दिया। अमेठी में स्मृति का प्रचार करने 2014 और 2019 में नरेंद्र मोदी पहुंचे थे। इस बार उनका अमेठी न आना कौतुहल का विषय रहा। अमेठी महल की उदासीनता ने भी लोगों को हैरत में डाल दिया। अमेठी रियासत के राजकुमार संजय सिंह और उनकी पत्नी अमिता सिंह दोनों भाजपा में हैं। कभी अमेठी के राजा रणंजय सिंह के आग्रह पर ही इंदिरा गांधी ने अपने बेटे संजय गांधी को 1977 में अमेठी से पहली बार लोकसभा चुनाव में उतारा था। 1980 में संजय गांधी यहां से जीते थे। तब संजय सिंह उनके खास थे और विधानसभा चुनाव जीतकर राज्य सरकार में मंत्री बने थे। पर, 1988 में उन्होंने भी वीपी सिंह के साथ कांग्रेस छोड़ दी थी। फिर भाजपा, कांग्रेस और फिर वापस भाजपा में आए। उनकी पत्नी अमिता सिंह को 2017 में तो संजय सिंह की पहली पत्नी गरिमा सिंह ने ही हराया। यह लोकसभा का पहला चुनाव था जिसमें संजय सिंह और उनकी पत्नी उदासीन रहे। उनके करीबियों ने दरअसल 2022 में संजय सिंह को विधानसभा चुनाव में अमेठी से भाजपा उम्मीदवार के नाते पराजय मिली थी। उन्हें हार के पीछे इलाके की सांसद स्मृति ईरानी की भूमिका दिखी। तभी से एक पार्टी में होते हुए भी दोनों के रास्ते जुदा हो गए।

जम्मू-कश्मीर पर नजर

केंद्र में बनने वाली नई सरकार के लिए पहली चुनौती जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव कराने की होगी। 2019 में धारा-370 खत्म करते समय केंद्र ने जम्मू कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा खत्म कर दिया था। जम्मू-कश्मीर को एक और लद्दाख को दूसरे संघ शासित क्षेत्र में बदल दिया था। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के हिसाब से विधानसभा चुनाव 30 सितंबर तक होना जरूरी है। लद्दाख तो भविष्य में भी संघ शासित क्षेत्र ही रहेगा पर जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा देना होगा। नए राज्य में विधानसभा की 90 सीटें होंगी। लोकसभा चुनाव में जम्मू-कश्मीर के लोगों ने इस बार मतदान के पुराने रिकार्ड तोड़ 58 फीसद मतदान किया। कश्मीर घाटी की तीन लोकसभा सीटों पर भले भाजपा ने इस बार अपने उम्मीदवार नहीं उतारे पर गृहमंत्री अमित शाह ने एलान किया है कि भाजपा विधानसभा की सभी 90 सीटों पर उम्मीदवार उतारेगी।

रुझान ने कर दिया परेशान

2024 के लोकसभा चुनाव में अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में हुए मतदान से निकले रुझान के बाद विपक्षी नेताओं के हौसले बुलंद हैं। लेकिन, इसी समीकरण को देख भारतीय जनता पार्टी के नेता अभी संभल कर बोल रहे हैं। इस वजह से पार्टी के नेता अपने रुझान के बड़े दावे करते नजर नहीं आ रहे हैं। पार्टी नेताओं के लिए ये समीकरण पहले से ही स्पष्ट हो चुका था कि अल्पसंख्यक बहुल इलाकों का वोट इस बार शायद उनको नहीं मिलेगा। लेकिन, अन्य जगहों पर सत्ता पक्ष को ही एकतरफा वोट है इसका भी रुझान नहीं है। जिस तरह से पार्टी के शीर्ष नेताओं की तरफ से अल्पसंख्यकों पर हमला बोला गया, वह ध्रुवीकृत होकर सत्ता पक्ष की ओर जाता तो बिल्कुल नजर नहीं आ रहा।

गढ़ में भगदड़

भाजपा दक्षिण के ही अपने गढ़ कर्नाटक में पार्टी की छिन्न-भिन्न हो रही स्थिति को नहीं संभाल पा रही है। विधानसभा चुनाव में मिली करारी पराजय के बाद पार्टी के भीतर गुटबाजी और बढ़ी है। पिछली दफा लोकसभा चुनाव में भाजपा ने कर्नाटक में 28 में से 25 सीटें जीती थी। इस बार नुकसान दिख रहा है। पार्टी के कद्दावर नेता ईश्वरप्पा बगावत करके लोकसभा चुनाव में निर्दलीय कूद पड़े। वे पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा और उनके परिवार के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। खुद को हिंदुत्व और आरएसएस का सिपाही बताते हैं। आलाकमान तक की इसी हफ्ते तीखी आलोचना कर दी कि कांग्रेस और दूसरे दलों पर वंशवाद का आरोप लगाते हैं पर कर्नाटक में पार्टी येदियुरप्पा और उनके बेटों के हवाले कर रखी है। आरएसएस ने भी लोकसभा चुनाव निपटते ही कर्नाटक भाजपा के महासचिव संगठन के तौर पर काम कर रहे अपने प्रचारक राजेश जीवी को वापस बुला लिया। उन्हें भाजपा में पिछले सूबेदार नलिन कुमार कटील लाए थे। उनकी वापसी को लेकर भी कयास लग रहे हैं। कोई कह रहा है कि लोकसभा चुनाव के दौरान उनका कामकाज ठीक नहीं रहा। लिहाजा पार्टी के सूबेदार विजयेंद्र ने उन्हें हटवाया तो कोई सफाई दे रहा है कि राजेश खुद वापस गए। बहरहाल कटील और राजेश दोनों ही भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव बीएल संतोष के करीबी रहे हैं। जिनका येदियुरप्पा परिवार से छत्तीस का आंकड़ा तो जगजाहिर है।

हुआ मतदान, गए कद्रदान

कसभा चुनाव से पहले भाजपा नेताओं ने राष्ट्रीय लोकदल अध्यक्ष जयंत चौधरी को खूब सिर माथे पर बिठाया। उनके दादा पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के व्यक्तित्व की खूबियों का जमकर बखान किया। ‘भारत रत्न’ से नवाजा तो राज्यसभा में जयंत चौधरी भाजपा और प्रधानमंत्री के कायल हो गए। यह बात अलग है कि समझौते में अखिलेश यादव जहां उन्हें सात सीटें दे रहे थे, वहीं भाजपा ने महज बागपत और बिजनौर की दो सीटें ही दी। जाट बहुल इलाकों में उन्हें चुनाव प्रचार में इस्तेमाल भी किया पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश का मतदान निपटते ही अहमियत कम हो गई जयंत की। हद तो तब हो गई जब 29 मई को राजधानी के किसान घाट पर चरण सिंह की पुण्यतिथि पर हुए कार्यक्रम में कोई बड़ा नेता तो दूर भाजपा का एक छुटभैया तक नजर नहीं आया। गनीमत रही कि उपराष्ट्र्रपति जगदीप धनखड़ किसान नेता की समाधि पर श्रद्धा-सुमन अर्पित करने पहुंच गए। पर वे तो अब संवैधानिक पद पर ठहरे। जयंत चौधरी ने तो इसकी उम्मीद भी नहीं की होगी कि इतनी जल्दी ही उनके लिए काम खत्म मान कर उन्हें नमस्कार कर लिया जाएगा। सबकी तरह उन्हें भी नतीजों का इंतजार होगा।