भाजपा के लिए जयंत से गठबंधन करना शायद घाटे का सौदा ही रहा। भाजपा जब अकेले लड़ी थी तो जयंत और उनके पिता अजित सिंह 2014 और 2019 दोनों ही चुनावों में हारे थे। अतीत पर गौर करें तो पाएंगे कि भाजपा को अजित सिंह की पार्टी से गठबंधन करने का कभी लाभ नहीं हुआ। सबसे पहले भाजपा ने अजित सिंह से 2000 में हाथ मिलाया था। मकसद उत्तर प्रदेश के 2002 के विधानसभा चुनाव को जीतकर सत्ता में वापसी करना था। अपनी पार्टी के इकलौते सांसद होने के बावजूद तबके मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने पार्टी आलाकमान को रजामंद कर अजित सिंह को कृषि मंत्री बनवाया था। विधानसभा चुनाव में उन्हें 36 सीटें भी दी। अजित को तो जरूर 14 सीटों पर सफलता मिल गई पर भाजपा सपा और बसपा से भी पिछड़ गई। इतना ही नहीं 2003 में मायावती के इस्तीफे के बाद मुलायम मुख्यमंत्री बने तो अजित सिंह ने भाजपा को छोड़ उनसे हाथ मिला लिया। भाजपा ने 2009 के लोकसभा चुनाव में अजित सिंह से फिर हाथ मिलाया। उन्हें सात सीटें दी। वे सात में से पांच सीट जीत गए जबकि भाजपा को कुल दस सीटें ही मिल पाई। अजित ने 2012 में भाजपा को फिर धोखा दिया और कांग्रेस के साथ चले गए। मनमोहन सिंह ने उन्हें नागरिक उड्डयन मंत्री बनाया। इस बार जयंत दोनों सीटें जीत गए और अब भाजपा आलाकमान को याद दिला रहे हैं कि उन्हें केंद्र में मंत्री-पद देने का वादा पूरा करे।

द्रमुक पर नजर

सहयोगी दलों के समर्थन से भाजपा केंद्र में तीसरी बार सरकार तो जरूर बना रही है पर उसकी परेशानियां खत्म होने वाली नहीं। प्रमुख दोनों सहयोगी नीतीश और चंद्रबाबू नायडू सियासत के मंजे खिलाड़ी तो हैं ही, सौदेबाजी में भी माहिर हैं। वाजपेयी सरकार का रिमोट नायडू के हाथ में ही था। सरकार में शामिल नहीं हुए थे पर लोकसभा अध्यक्ष अपना बनवाया था। बाद में तो वे राजग के संयोजक भी बन गए थे। दोनों भाजपा को पूर्व में अलविदा करते रहे हैं। कभी शिरोमणि अकाली दल और शिवसेना भाजपा के सबसे भरोसेमंद सहयोगी थे। बाद में यही भरोसा जार्ज फर्नांडिज के नेतृत्व वाली समता पार्टी ने हासिल किया था। सरकार को भविष्य में जब भी अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ेगा तो छोटे दलों को साधना भी टेढ़ी खीर होगा। इसलिए भाजपा का एक खेमा स्टालिन के नेतृत्व वाले द्रमुक से हाथ मिलाने का पक्षधर है।

उनको गुस्सा क्यों आता है?

राहुल गांधी को गुस्सा क्यों आता है? पिछले दिनों में जिस तरह राहुल गांधी मीडियाकर्मियों पर बरस जाते हैं उससे एक असहजता की स्थिति सी आ गई है। चुनावी नतीजे आने के बाद प्रेस वार्ता में राहुल गांधी ने पत्रकारों पर कहा कि आज आप सदमे में लग रहे हैं, कांग्रेस पार्टी ने ये कैसे और क्यों कर दिया। यहां तक तो ठीक है लेकिन एक वरिष्ठ महिला पत्रकार को जब उन्होंने भाजपा का बिल्ला लगाने को बोल दिया तो उन लोगों को भी अचरज हुआ जो कांग्रेस बीट देखते हैं। किसी ने कहा कि प्रेस कांफ्रेंस में आप पत्रकारों को बुलाते हैं, तो वो आपके मेहमान हुए। उनके सवाल असहज भी लगें तो सहिष्णुता से सुनें। हर बार यह तकरार राहुल गांधी के रवैये पर सवाल उठा रहा है।

संजीवनी माया की

मायावती ने पिछले एक दशक में भाजपा से ज्यादा हमले कांग्रेस और सपा पर किए। भाजपा के दबाव में होने के विरोधियों के आरोपों को मायावती ने बेशक स्वीकार न किया हो पर चुनावी नतीजे इसका प्रमाण हैं। यह सही है कि बसपा सुप्रीमो और उनके भाई आनंद के खिलाफ आयकर, सीबीआइ और ईडी की कई जांचें लंबे समय से चल रही हैं। यह आरोप भी इसी वजह से लगे कि एजंसियों के दबाव में उनका रिमोट भाजपा के हाथ में रहा। मायावती ने 2014 का लोकसभा चुनाव अकेले लड़कर भाजपा को 73 सीटों पर सफलता हासिल करने में मदद की। इसकी पुष्टि 2019 में हो गई जब उन्होंने सपा से हाथ मिलाया और 38 सीटों पर चुनाव लड़कर दस पर सफलता पाई। फिर भी अगर बयान दिया कि सपा से तालमेल घाटे का सौदा था तो कुछ तो दबाव रहा ही होगा। इस बार के लोकसभा चुनाव में भी मायावती भाजपा के लिए संजीवनी साबित हुई। दो साल पहले हुए विधानसभा चुनाव उन्हें 13 फीसद वोट मिले थे पर सीट एक। इस बार वोट घटकर 9.39 फीसद रह गए और सीट एक भी हिस्से नहीं आई। बसपा के उम्मीदवारों के कारण भाजपा को 16 सीटों पर फायदा हुआ। बसपा के वोट इन सीटों पर इंडिया गठबंधन को मिल जाते तो भाजपा 14 सीटों पर ही सिमट जाती उत्तर प्रदेश में। अब मायावती का सियासी वजूद ही खतरे में है क्योंकि उन्हीं की जाटव बिरादरी के चंद्रशेखर आजाद दलितों के नए रहनुमा बनकर उभरे हैं।

हाल-ए-बंगाल

पश्चिम बंगाल में दीदी ने भाजपा के अश्वमेध रथ को तो रोका ही है, पार्टी की गुटबाजी को भी सतह पर ला दिया है। भाजपा ने सूबे की 42 में से 25-26 सीटें जीतने का दावा किया था। एक्जिट पोल तो उसे इससे भी बड़ी सफलता दिखा रहे थे। पर नतीजे आए तो भाजपा अपनी 18 सीटों से घटकर 12 पर सिमट गई। पार्टी के कद्दावर नेता दिलीप घोष भी हार गए। हारते ही उनका दर्द फूट पड़ा। नाम लिए बिना पार्टी के पिछले पांच साल के कर्णधार सुबेंदु अधिकारी पर अपनी भड़ास निकाल दी। आलाकमान पर भी तोहमत लगाई कि उसने पुराने और वफादार नेताओं की अनदेखी कर दलबदलुओं पर दांव लगाया। जिसका नतीजा भुगतना ही पड़ता। उधर दिल्ली में हुई ‘इंडिया’ गठबंधन के नेताओं की बैठक में दीदी के भतीजे सांसद अभिषेक बनर्जी ने यह कहकर हर किसी को हैरत में डाल दिया कि भाजपा के आधे से ज्यादा सांसद उनके संपर्क में हैं। यानी तृणमूल कांगे्रस भाजपा में सेंध लगा सकती है। पहले भी ममता की पार्टी से भाजपा में गए कई नेता वापस दीदी की शरण में लौटे हैं। बाबुल सुप्रियो तो 2014 में केंद्र में मंत्री भी बन गए थे। पर सूबे में विरोधी दल की सरकार हो तो किसी नेता को मजा नहीं आता।

(संकलन- मृणाल वल्लरी)