रुसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की भारत यात्रा के नतीजों को लेकर राजनयिक गलियारे में व्यापक चर्चा चल रही है। हाल के दिनों में पुतिन कई महत्त्वपूर्ण सम्मेलनों में शामिल नहीं हुए। वे रोम में समूह-20 के शिखर सम्मेलन में नहीं गए। ग्लासगो में हुए पर्यावरण सम्मेलन (सीओपी-26) में नहीं पहुंचे। वह चीन का बहु-प्रतीक्षित दौरा टाल चुके हैं। ऐसे में उनकी भारत यात्रा पर निगाहें टिकना स्वभाविक है। रूसी मीडिया ने इसे भारत और रूस- दोनों के लिए बड़ी कूटनीतिक जीत कहा है।
अब अमेरिका और चीन को लेकर भारत में सामरिक और कूटनीतिक स्तर पर कवायद की सुगबुगाहट है। खासकर, अमेरिकी काट्सा प्रतिबंधों को लेकर भारतीय विदेश मंत्रालय ने अपनी गतिविधियां तेज कर दी हैं। यूक्रेन की सीमा पर रूस की सेना को लेकर समूह-सात के देश अमेरिका के पीछे लामबंद हो गए हैं। इन देशों ने रूस पर प्रतिबंध की चेतावनी दे दी है। ऐसे में भारत की कोशिश अब यह है कि अगर रूस पर प्रतिबंध लगे तो उनका असर देश के हितों पर न पड़े।
कितनी उपयोगी भारत यात्रा
हाल के वर्षों में अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में बड़ा बदलाव आया है। दुनिया में चीन का दबदबा बढ़ रहा है। इसके साथ उसकी आक्रामकता भी बढ़ रही है। भारत समेत कई देशों के साथ सीमा तनाव, ताइवान, हिंद महासागर और दक्षिण चीन सागर में उसका दखल और प्रभाव बढ़ रहा है। उधर, अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद उसकी महाशक्ति की साख में कमी आई है।
तालिबान के जरिए पाकिस्तान रूस के नजदीक पहुंच रहा है। रूस और चीन की दोस्ती के चलते हाल के दशकों में भारत का अमेरिका के प्रति झुकाव बढ़ा है। क्वाड के गठन के बाद रूस की यह चिंता और बढ़ गई थी। इससे रूस और भारत के संबंधों में एक नरमी सी आ गई थी। अब पुतिन की इस यात्रा से दोनों देशों के बीच फिर से गर्माहट आ गई है। कूटनीतिक जानकारों के मुताबिक, पुतिन की इस यात्रा में भारत यह सिद्ध करने में सफल रहा है कि अतंरराष्ट्रीय परिदृश्य में बदलाव के बावजूद उसकी विदेश नीति के सैद्धांतिक मूल्यों एवं निष्ठा में कोई बदलाव नहीं आया है।
भारत को क्या हासिल
इस दौरे को कूटनीतिक मोर्चे पर भारत की जीत बताया जा रहा है। रक्षा सौदे और ऊर्जा के क्षेत्र में यह उपलब्धि रही है। चीन के साथ चल रहे सीमा तनाव के बीच रूसी एस-400 मिसाइल प्रणाली को हासिल करना कूटनीतिक सफलता रही है। दोनों देशों के रक्षा मंत्रियों की वार्ता में चीन के अतिक्रमण का मुद्दा उठा।
चीन और अमेरिका को भारत यह संकेत देने में सफल रहा कि वह गुटबाजी या किसी धड़े का हिस्सा नहीं है। उसकी अपनी स्वतंत्र विदेश नीति है। रक्षा सौदों को लेकर भी भारत ने साफ कर दिया है कि वह अपनी सुरक्षा जरूरतों के मुताबिक किसी से सौदा करने के लिए स्वतंत्र है। वह किसी देश या उसकी सैन्य क्षमता से प्रभावित नहीं होता। साथ ही, भारत ने साफ कर दिया है कि अमेरिका और रूस के बीच चल रहे तनाव से उसका कोई वास्ता नहीं।
अमेरिका-भारत रिश्तों पर क्या असर
चीन और अमेरिका के साथ दोनों देशों के संबंधों को लेकर भारत और रूस के संबंधों में कुछ खटास आई है। इसके बावजूद दोनों देश एक दूसरे की उपयोगिता को भलीभांति जानते हैं। भारत के रक्षा बाजार को लेकर अमेरिका और रूस- देशों की बड़ी दिलचस्पी है। इस मामले में अमेरिका और रूस के बीच बड़ी प्रतियोगिता है। बीते कुछ साल में भारत और अमेरिका के बीच रक्षा सौदा बढ़ा है। इसको लेकर रूस की चिंताएं बढ़ी हैं। हालांकि, भारत ने महत्त्वपूर्ण एस-400 मिसाइल रक्षा प्रणाली की खरीद कर संतुलन साधने की कोशिश की है।
चीन की आक्रामकता को देखते हुए भारत ने सतह-से-हवा में मार करने वाली लंबी दूरी की मिसाइलों से लैस इन पांच प्रणालियों की खरीद के लिए 5.5 अरब अमेरिकी डालर का सौदा किया है। इसको लेकर अमेरिका के विभिन्न स्तरों से प्रतिबंधों की चेतावनी आ रही है।
काट्सा पर छूट का सवाल
हाल में अमेरिकी सीनेटरों और इंडिया काकस के सह-अध्यक्षों जान कार्निन और मार्क वार्नर ने वहां के राष्ट्रपति जो बाइडेन से अनुरोध किया कि रूस से सैन्य साजो-सामान खरीदने के लिए भारत को काट्सा (सीएएटीएसएस्) प्रतिबंधों से छूट दी जाए। रिपब्लिकन पार्टी के सीनेटर एवं सीनेट की विदेश संबंध समिति के सदस्य टेड क्रूज के साथ टाड यंग और रोजर मार्शेल ने लंबा-चौड़ा विधेयक मसविदा पेश किया, जो क्वाड के सदस्य देशों के लिए 10 साल की छूट का प्रावधान करता है। इसे खास तौर पर भारत को काट्सा के तहत अमेरिकी प्रतिबंधों से बचाने के लिए तैयार किया गया है। उनका तर्क है कि ऐसा नहीं करने से वर्ष 2017 में पारित काट्सा चीन के खिलाफ एकजुटता को कमजोर करेगा।
अगस्त 2017 में ट्रंप प्रशासन के आठवें महीने में कांग्रेस (अमेरिकी संसद) ने काट्सा को पारित किया था। इसकी शुरुआत रूस को निशाना बनाने की एक कोशिश के बतौर हुई, क्योंकि मास्को के अमेरिकी चुनावों में दखलंदाजी करने और 2014 में क्रीमिया पर उसके कब्जे को लेकर दोनों पार्टियों में निराशा थी। इन प्रतिबंधों ने केवल मास्को को निशाना नहीं बनाया, बल्कि तेहरान, नोमपेन और दमिश्क में दूसरे विरोधियों को भी शामिल कर लिया।
क्या कहते हैं जानकार
भारत की अमेरिका के साथ नजदीकियों को देखते हुए रूस को भी अपनी तकनीक को अमेरिकी हाथों में जाने का डर सता सकता है, लेकिन मास्को ने कोई चिंता नहीं दिखाई है। दरअसल, अमेरिका की निगाह हिंद-प्रशांत क्षेत्र की रणनीति और भारत के साथ रक्षा सहयोग पर है।
- कंवल सिब्बल, पूर्व विदेश सचिव
भारत न तो अमेरिका का विरोधी है, न ही उसके साथ किसी औपचारिक गठबंधन में है। अगर काट्सा को असल-राजनीति की व्यावहारिकता के बजाय, कानूनों की सख्ती के जरिए लागू किया गया, तो प्रतिबंधों की प्रामाणिकता पर सवाल उठेंगे। संबंधों पर भी असर पड़ेगा।
- डेविड सी मलफोर्ड, भारत में अमेरिका के पूर्व राजदूत